न्याय पाना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार होता है,कैसे?
अंतर्राष्ट्रीय न्याय के लिए विश्व दिवस पर विशेष
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
न्याय शब्द एक आशा और उम्मीद का प्रतीक है। जब किसी को लगता है कि उसकी बात अच्छी तरह सुनी जाएगी तथा उन्हें अपनी बात कहने का पूरा अवसर मिलेगा वह न्याय है। न्याय शब्द एक नई रोशनी लेकर आता है। व्यक्ति के मन में एक उम्मीद जगाता है कि उनकी बात को पूरी तरह सुनकर ही निर्णय किया जाएगा।
न्याय एक बहुत ही सम्मानित वह संतुष्टि प्रदान करने वाला शब्द है। आज भी जब दो व्यक्तियों के बीच में झगड़ा होता है तो दोनों एक दूसरे से कहते हैं कोर्ट में आ जाना फैसला हो जाएगा। यह लोगों की न्याय के प्रति आस्था का एक जीता जागता उदाहरण है।
न्याय पाना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार होता है। कोई भी सरकार या व्यवस्था तभी सफल मानी जाती है। जिसमें हर व्यक्ति को निष्पक्ष रुप से न्याय मिल सकें। हमारे देश में तो सदियों से न्यायिक प्रणाली बहुत मजबूत रही है। राजा महाराजाओं के जमाने में भी लोगों के साथ न्याय किया जाता था। जिनके उदाहरण हम आज भी देते हैं। भारत के महान सम्राट राजा विक्रमादित्य की न्याय प्रणाली की आज भी हर जगह चर्चा और सराहना होती है।
हमारा देश जब स्वतंत्र हुआ तो संविधान के निर्माताओं ने न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका से अलग रखा। न्याय के लिए सशक्त कानून बनाए गए थे। देश के लोगों को सही व निष्पक्ष न्याय मिल सके इसके लिए लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक की स्थापना की गई थी। जो आज भी न्यायिक प्रक्रिया में संलग्न है। हमारे देश में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का उदाहरण श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा पद के अयोग्य ठहरा दिया जाना था। इससे अधिक न्यायपालिका की स्वतंत्रता और मजबूती कहां देखने को मिल सकती है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून के शासन के तहत अदालतों को न्याय एवं अन्याय में फर्क करने का अधिकार हासिल हैं। सही क्या है तथा गलत क्या है यह अदालत विधान की पुस्तकों के आधार पर तय करती हैं। आज लम्बित मामलों की संख्या को देखकर कहा जा सकता है इंसाफ चाहने वाले पीड़ित लोगों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही हैं। हमारे देश की विधायी व्यवस्था में न्याय की शीर्षस्थ संस्था न्यायालय हैं।
विश्व न्याय दिवस अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्याय की उभरती प्रणाली को मान्यता देने के प्रयास के तहत 17 जुलाई को दुनिया भर में मनाया जाने वाला एक अंतर्राष्ट्रीय दिवस है। हर साल दुनिया भर के लोग इस दिन का उपयोग अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रमों का आयोजन करने के लिए करते हैं। यह दुनिया में आधुनिक न्यायालय प्रणालियों की स्थापना का भी स्मरण कराता है। यह दिन मौलिक मानवाधिकारों की वकालत और अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्याय को बढ़ावा देने पर केंद्रित है।
अंतर्राष्ट्रीय न्याय के लिए विश्व दिवस का उद्देश्य आईसीसी के प्रयासों की सराहना करना और अंतरराष्ट्रीय अपराधों के पीड़ितों के लिए न्याय को बढ़ावा देने के लिए सभी को एकजुट करना है। 17 जुलाई 1998 को 120 देशों ने अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय के रोम संविधि नामक एक संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए एक साथ आए थे। रोम संविधि पर हस्ताक्षर करने का दिन मनाने के लिए विश्व अंतर्राष्ट्रीय न्याय दिवस तब से हर साल मनाया जाता रहा है।
अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय या आईसीसी विश्व अंतर्राष्ट्रीय न्याय दिवस में शामिल एक महत्वपूर्ण प्राधिकरण है। यह न्यायालय सबसे गंभीर अंतरराष्ट्रीय अपराधों वाले व्यक्तियों का विश्लेषण करता है और उन पर आरोप लगाता है। इनमें नस्लीय हत्याएं, युद्ध के दौरान अपराध, मानवता के अपराध और आक्रामकता के अपराध शामिल हो सकते हैं। आईसीसी राष्ट्रीय अदालतों का विकल्प नहीं हो सकता है लेकिन यह तब उपलब्ध होता है जब कोई देश जांच नहीं कर सकता है।
हमें बहुत से लोगों से अक्सर यह सवाल सुनने को मिलता है कि न्याय कहां मिलता हैं। इस प्रश्न का होना भी यह बताता है कि आज भी आम आदमी को आसानी से न्याय नहीं मिल पा रहा हैं। न्याय के बारे में एक पुरानी अंग्रेजी कहावत है कि न्याय में देरी करना न्याय को नकारना है और न्याय में जल्दबाजी करना न्याय को दफनाना है।
यदि इस कहावत को हम भारतीय न्याय व्यवस्था के परिपेक्ष्य में देखे तो पाएगे कि इसका पहला भाग पूर्णतः सत्य प्रतीत होता हैं। सीमित संख्या में हमारे जज और मजिस्ट्रेट मुकदमों के बोझ तले दबे प्रतीत होते हैं। एक मामूली विवाद कई सालों तक चलता रहता है तथा पीड़ित को दशकों तक न्याय का इतजार करना पड़ता हैं। यही वजह है कि लोगों में न्याय के प्रति गहरे असंतोष के भाव हैं। वे अपने साथ हुए अन्याय के विरुद्ध इसलिए कोर्ट नहीं जाते क्योंकि उनके यह भरोसा नहीं रहा कि न्याय उसके लिए मददगार होगा।
आज भी न्यायपालिका परेशान लोगों के लिए सांत्वना का माध्यम है। निराश लोगों के लिए आशा की किरण है। गलत काम करने वाले लोगों के लिए भय का कारण है तथा कानून का पालन करने वाले लोगों को राहत देती है। यह बुद्धिमान और संवेदनशील लोगों के लिए एक घर के समान है। एक ऐसी शरण स्थली है जहां गरीब और अमीर दोनों को ही आसानी से न्याय मिलता है। न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठने वाले लोगों के लिए यह एक सम्मान और गर्व का स्थान होता है।
परन्तु आज के समय में गरीब लोगों की न्यायालय में पहुंच बहुत कम हो गयी है। आज स्थिति यह हो चुकी है कि धूर्त लोग न्यायालयों का दुरूपयोग समाज के सम्मानित लोगों के विरुद्ध हथियार के रूप में करने लगे हैं। वे किसी भी व्यक्ति के खिलाफ सच्चा या झूठा मुकदमा दायर कर देते हैं और मुकदमा झेलने वाला व्यक्ति सारा जीवन स्वंय को निर्दोष सिद्ध करने में लगा देता है।
संविधान ने न्याय व्यवस्था की जिम्मेदारी अदालतों पर डाल दी है। वे ही न्याय के एकमात्र एवं सर्वोपरी स्रोत माने जाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ भारत में उच्च न्यायालय एक मुकदमें का निर्णय सुनाने में लगभग चार वर्ष से अधिक का समय लेते हैं। उच्च न्यायालय से निम्न स्तरीय अदालतों का हाल तो इससे कही बुरा हैं।
जिला कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक चलने वाले एक मुकदमें का अंतिम फैसला 7 से 10 साल में आता हैं। लोगों का मानना है कि भारत की न्याय प्रणाली में अधिक समय खर्च होने का मूल कारण मामलों की अधिकता हैं। लेकिन असल समस्या है मामलों का शीघ्र निपटान न हो पाना। केवल यह कहकर कि हमारे न्यायिक तन्त्र में खामियां बताकर उसे कोसते रहना उचित नहीं हैं।
देश दे सभी सभी नागरिकों, जजो, वकीलों तथा हमारी सरकारों का यह दायित्व है कि हम न्याय व्यवस्था को दुरुस्त करे। कोर्ट की तारीख पर तारीख देने की प्रवृत्ति पर रोक लगायें। मुकदमो के फैसलों की सीमा भी निर्धारित होनी चाहिए। आज अदालतो में मुकदमों का अम्बार लग रहा है इसका कारण न्यायाधीशों की कमी भी है। सरकार को इस समस्या का हल निकालने के लिए त्वरित प्रयास कर हमारी न्यायिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाना चाहिए। तभी सभी को समय पर न्याय मिलने का सपना साकार हो सकेगा।
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