स्वाधीनता संग्राम के संचालन का श्रेय किसी एक महानायक को दिया जाना महिमामंडन का अतिवाद है,कैसे?

स्वाधीनता संग्राम के संचालन का श्रेय किसी एक महानायक को दिया जाना महिमामंडन का अतिवाद है,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

स्वाधीनता संग्राम के सुचारू संचालन का श्रेय किसी एक महानायक को दिया जाना वास्तव में महिमामंडन का अतिवाद है। इस मुक्तिकामी आंदोलन में क्रांतिपथ के अनुगामी भी थे और अहिंसा के अनुयायी भी, वास्तव में कई महान आत्माओं ने उस पृष्ठभूमि को परिपक्व किया था जिस पर अंतिम प्रस्तुति थी महात्मा गांधी की।

यह बात बिल्कुल सही है कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को महात्मा गांधी ही सामान्य लोगों तक ले गए, लेकिन यह कहना कि भारत का राष्ट्रीय आंदोलन गांधी युग (1917 से 1947) की देन है, अपर्याप्त है। राष्ट्रीय आंदोलन उसके बहुत पहले से चल रहा था। 1905 के स्वदेशी आंदोलन के दिनों के बाद से सुस्पष्ट राष्ट्रीय आंदोलन का चरित्र उभर चुका था, जिसे बाल गंगाधर तिलक, अरबिंदो घोष और अन्य नेतागण स्वर दे रहे थे।

बंगाल और महाराष्ट्र में सशस्त्र क्रांति का समर्थन करने वाले लोग तैयार हो रहे थे। तिलक का मंत्र ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ शिक्षित युवाओं के एक बड़े हिस्से को आंदोलित कर रहा था। देश में ही नहीं, विदेश में भी इस बात की चर्चा होने लगी थी कि भारत की पराधीनता का कारण यहां के लोगों द्वारा अंग्रेजों का सहयोग करना है।

टालस्टाय ने भी अपने एक लेख में कहा था कि ‘मुट्ठी भर अंग्रेज भारत पर शासन इसलिए कर पाते हैं क्योंकि यहां के लोग सेना में भर्ती होते हैं और किसान अपना लगान देने से मना नहीं करते। अगर ये दोनों न हों तो अंग्रेज भारत पर शासन नहीं कर सकते।’

तेज हुई संघर्ष की आग

स्वदेशी आंदोलन के बाद के वर्षों में पंजाब में भी स्वतंत्रता आंदोलन का व्यापक प्रभाव हुआ। गदर आंदोलन का स्पष्ट प्रभाव पंजाब के गांवों पर पड़ा था। 1905 से 1915 के बीच के 10 वर्ष की राजनीति में दो तरह की शक्तियां सक्रिय थीं। एक ओर वे लोग थे जो अंग्रेजों से सीधी लड़ाई करने के बजाय संवैधानिक तरीके से लड़ने के पक्ष में थे। कांग्रेस पर, जो उस समय देश के शिक्षित लोगों का सबसे प्रभावशाली मंच बन चुका था, ऐसे ही लोगों का कब्जा था, लेकिन स्वदेशी आंदोलन के बाद देश में स्वाधीनता के लिए संघर्ष की भावना तेज हुई और 1906 में पूर्ण स्वराज की भावना से प्रेरित होकर तिलक के नेतृत्व में एक प्रस्ताव लाया गया।

इसका संगठित विरोध बड़े कांग्रेसी नेताओं ने किया और 1907 में सूरत में नरम और गरम दल के कांग्रेसी आपस में भिड़ गए। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस के बड़े नेताओं और गरम दल के समर्थकों के बीच एक वैचारिक अंतर वर्ष 1906 के बाद से लगातार बना रहा। वहीं देश और विदेश में ऐसे बहुत सारे लोग थे जो सशस्त्र कार्यवाही द्वारा अंग्रेजों को भारत से निकालने की कोशिश कर रहे थे। सिंगापुर के सैनिकों का विद्रोह, पेरिस में मदाम कामा, वीरेन चट्टोपाध्याय, इंग्लैंड में लाला हरदयाल, श्याम जी कृष्ण वर्मा जैसे कई लोग इस काम में लगे हुए थे।

सशस्त्र क्रांति की जगी अलख

कौन थे ये लोग जो क्रांतिकारी संगठनों (अनुशीलन और जुगांतर दलों) से जुड़कर देश को स्वाधीन करने के लिए जुटे थे? इस देश के क्रांतिकारी आंदोलन के साथ जुड़े लोग क्या बगैर किसी सोच-विचार के बस बम फेंकने वाले थे या उनकी कोई राजनीतिक दृष्टि थी। बाघा जतिन, रास बिहारी बोस, शचींद्रनाथ सान्याल, महेंद्र प्रताप जैसे लोग किस राजनीतिक विचारधारा के साथ जुड़े थे?

ये लोग सशस्त्र क्रांति के पक्षधर थे, जो सैनिक कार्यवाही के द्वारा पूर्ण स्वराज के लिए युद्ध की रणनीति के साथ अंग्रेजी ताकत को इस देश से उखाड़ फेंकना चाहते थे। इसी परंपरा में आए बाघा जतिन के सबसे प्रिय क्रांतिकारी युवा शिष्य नरेंद्र भट्टाचार्य (मानवेंद्र नाथ राय) की कहानी को देखना चाहिए। जनवरी, 1915 में जब गांधी इस देश में दक्षिण अफ्रीका से शांति, सत्याग्रह और सद्भाव की राजनीति लेकर आ रहे थे तो उसी समय नरेंद्र भट्टाचार्य विदेश से हथियारों की मदद के लिए भारत से जा रहे थे, ताकि अंग्रेजों के विरुद्ध यळ्द्ध अभियान चलाया जा सके।

मिला संपूर्ण समर्थन

जनवरी, 1915 में महात्मा गांधी आए और अगले साढ़े चार वर्ष में देश के सबसे बड़े नेता बन गए। गांधी जी अंग्रेजों के सहयोगी और संवैधानिक तरीके से नेता के रूप में ही भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर उभरे। उनका शुरू से अंग्रेज प्रशासकों के साथ बहुत मधुर संबंध रहा। तिलक उस समय देश के सबसे बड़े नेता थे। सावधानी बरतते हुए गांधी जी ने अपने को तिलक के साथ नहीं जोड़ा।

1916-17 में जब एनी बेसेंट के नेतृत्व में देशभर में प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ, उस समय भी महात्मा गांधी मुखर नहीं हुए। चंपारण के नीलहे जमींदारों के विरुद्ध किसानों के लिए लड़ने पर गांधी जी को ख्याति मिली। 1919 के अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन के पूर्व गांधी जी देश के सबसे प्रमुख नेता नहीं थे। 1919 के अमृतसर अधिवेशन में बाल गंगाधर तिलक, चित्तरंजन दास, मदन मोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, जिन्ना और एनी बेसेंट उपस्थित थे। देश की राजनीति को दिशानिर्देश देने के लिए आगे की रणनीति तय करनी थी। देश में व्यापक असंतोष था।

दमनकारी अधिनियम लाया जा चुका था और जलियांवाला बाग नरसंहार हो चुका था। देश में व्याप्त इस असंतोष को कम करने के लिए अंग्रेज 1919 का मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार लेकर आए थे। इस स्थिति में ‘देश सरकार का सहयोग करे या नहीं?’ मुद्दे पर बहस थी। एनी बेसेंट ने सरकार के साथ मिलकर चलने का मत प्रकट किया। चित्तरंजन दास और तिलक सरकार को सशर्त समर्थन के पक्ष में थी। ऐसे में पहली बार राजनीतिक मंच पर मोतीलाल नेहरू ने गांधी जी को महात्मा कहकर पुकारा। उनके बाद बोलने आए जिन्ना ने भी गांधी को महात्मा कहा। निश्चित ही तत्कालीन राजनीतिक समीकरण में गांधी जी को मालवीय और नेहरू का समर्थन मिला।

नए समय का गूंजा नारा

गांधी जी के सर्वमान्य भारतीय नेता के रूप में उभरने में लोकप्रियता और नेहरू-मालवीय और श्रद्धानंद जैसे नेताओं का समर्थन तो था ही, इसके अलावा गांधी जी ने सदिच्छा से यह कोशिश की थी कि हिंदू और मुसलमान अंग्रेजों के विरुद्ध शांतिपूर्ण संयुक्त राजनीतिक मोर्चा बनाएं। इसी आशा में उन्होंने अली बंधुओं को साथ लाने के लिए हरसंभव प्रयत्न किए और मुसलमानों की धार्मिक भावना को भी समर्थन दिया। गांधी जी को लगता था कि मुसलमानों को अपने अहिंसक आंदोलन के साथ जोड़ने का यह ऐतिहासिक मौका है। कलकत्ता के विशेष अधिवेशन में 1920 की गर्मी में गांधी का युग शुरू हुआ,

जब हजारों मुसलमानों की भीड़ ने महात्मा गांधी के पक्ष में नारे लगाए। उसी के आस-पास तिलक का देहांत हुआ। इसके बाद पुराने नेताओं का युग समाप्त हुआ और नए राष्ट्रीय नेतृत्व का युग आया। ‘नया समय आ गया है’ कहकर ये लोग आंदोलन के केंद्र में आए। मोतीलाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, सी. राजगोपालाचारी जैसे नेता गांधी जी के साथ थे। लाला लाजपत राय और चित्तरंजन दास भी गांधी से मतभेद रखकर भी सीधे उनका मुकाबला करने से बचते रहे।

उठ खड़े हुए कई वर्ग

गांधी जी ने आंदोलन के दौरान यह कहा था कि वे देश को एक साल में स्वाधीन कर देंगे। परंतु चौरी-चौरा क्रांति के बाद जब उन्होंने आंदोलन को अचानक रोक दिया तो कई लोग निराश हुए। इस समय गांधी जी के साथ उनके सच्चे राजनीतिक समर्थकों का एक दल खड़ा हुआ, जो अंत तक उनके साथ रहा। ऐसे बहुत सारे लोग थे जो राष्ट्रीय आंदोलन में दूसरे तरीके से बढ़ना चाहते थे। कुछ नेता असेंबली में घुसकर आंदोलन को बल देना चाहते थे तो कुछ क्रांतिकारी गतिविधियों द्वारा।

कांग्रेस के भीतर दो गुट उसी समय से लगातार अस्तित्व में रहे। जो लोग गांधी जी के अहिंसावादी समूह में नहीं थे, वे पूर्ण स्वराज के हामी थे और अहिंसावादी गांधीवादी डोमिनियन स्टेटस (साम्राज्य के भीतर रहकर राजनीतिक अधिकार) के पक्ष में थे। 1920 तक दोनों पक्षों की रस्साकशी में एक पक्ष और आ जुड़ा, जब कम्युनिस्ट ग्रुपों ने कांग्रेस के भीतर साम्राज्यवाद के विरुद्ध आंदोलन को तेज करने और गांधी जी के नेतृत्व के मुकाबले के लिए चित्तरंजन दास को अपने पक्ष में लाने की कोशिश की। नागपुर कांग्रेस में मानवेंद्र नाथ राय के दूत अबनी मुखर्जी ने एक प्रस्ताव रखा, जो साम्राज्यवाद के विरुद्ध आंदोलन को तेज करने की वकालत करता था।

इतिहास के उलझे धागे

1922 से 1926 के बीच के पांच वर्ष को ठंडा समय माना जाता है। 1927 के बाद राजनीति फिर से गरमाने लगी। साइमन कमीशन आने के बाद आंदोलन तेज हुए। कहा जाता है इसकी परिणति सविनय अवज्ञा आंदोलन में हुई। पर जो नहीं कहा जाता वह यह है कि 1928 तक आते-आते लड़ाई को तेज करने वाले गुट को दो नौजवान नेता मिल गए थे। जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस ने मद्रास के अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास कराना चाहा। गांधी जी वहां उपस्थित नहीं थे। मामूली मतों से वह प्रस्ताव पारित नहीं हुआ, लेकिन गांधीवादी अहिंसा समर्थक नेतागण इससे चौंक गए। अगले अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस ने मिलिट्री की ड्रेस में परेड की।

मोतीलाल नेहरू उस अधिवेशन के सभापति थे और गांधी जी ने पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव और आंदोलन के प्रस्ताव को मुल्तवी करने की कोशिश की। बड़ी मुश्किल से जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस को मनाया जा सका कि अंग्रेजों को मांगों को मानने का मौका दिया जाए। मोतीलाल नेहरू और गांधी जी अंग्रेजों को दो बरस का समय देना चाहते थे, जिसके बाद ही आंदोलन को शुरू किया जाना था,

लेकिन अंत में एक बरस का समय दिया गया। अंग्रेजों ने इस मौके का फायदा उठाया और क्रांतिकारी नेताओं पर मुकदमा चलाकर उन्हें जेल में डाल दिया। इसी को मेरठ षड्यंत्र केस कहते हैं। देशभर के क्रांतिकारी युवाओं ने गांधी जी की राजनीति की आलोचना की। सूर्य सेन और भगत सिंह के उदाहरण सामने हैं। 1906 में जो लक्ष्य तिलक और उनके साथियों ने कांग्रेस के सामने रखना चाहा था वह आखिरकार रावी नदी के तट पर 26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस नेतृत्व ने स्वीकार किया।

इस लक्ष्य को सामने रखने के बाद भी राष्ट्रीय आंदोलन के भीतर का संघर्ष रुका नहीं। अंग्रेजों के विरुद्ध तीव्र जन आंदोलन के लिए संघर्ष करने वाले चाहते रहे कि गांधीवादी अहिंसा का प्रभाव कम हो। मगर अहिंसा के पथ पर चलने वाले राष्ट्रीय आंदोलन और अंग्रेजों से पूर्ण स्वराज्य के लिए लड़ने वालों के इतिहास को आपस में गूंथकर राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास इस रूप में पेश करना, कि सब कुछ गांधी जी के नेतृत्व में चल रहा था, एक विभ्रम को रचने में भी सहायक हुआ है। यथार्थ को समझने के लिए राष्ट्रीय आंदोलन की बहुस्तरीयता का ध्यान रखा जाना चाहिए।

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