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भीड़ में जाना तीसरी लहर को न्योता देने जैसा है लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं.

भीड़ में जाना तीसरी लहर को न्योता देने जैसा है लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कोरोना की पहली और दूसरी लहर के बीच जो कुछ भोगा, उसे हम बहुत जल्द भूलना चाहते हैं। मन में एक अजीब सी छटपटाहट है। सही है, इस कोरोनाकाल में इर्द-गिर्द और दूर-पास की हवा में इतनी मनाहियां और इतने इनकार थे और इतना विरोध, कि सांसों में आग सुलग उठती थी। मध्य वर्ग का रस्मी रहन-सहन वैसे भी आजकल की पीढ़ी को रास नहीं आता।

इस पर ये कोरोनाकाल! इस दौरान हमारा जाना-पहचाना सबकुछ शरीर के वस्त्रों की तरह तंग हो गया था। होंठ ज़िंदगी की प्यास से खुश्क हो गए थे। आकाश के तारे, जिन्हें सप्त रिषियों के आकार में दूर से प्रणाम करना होता है, वह भी ज्यादातर लोग नहीं कर पाते थे। क्योंकि वे तो अपनी जगह थे, हमारा आसमान बुझ गया था। न पांव तले की ज़मीन रोशन थी, न सिर के ऊपर का आकाश बुलावा दे रहा था।

तारों-सितारों की दुनिया जैसे हमारे लिए बेमानी हो गई थी। इस समय का हमारा हर चिंतन अब भी हमारे सीधे-सादे दिनों की समाधि भंग करता रहता है। ठीक है, उस समाधि के भंग होने का अभिशाप अब भी हमारे पास है, हमारे साथ है, लेकिन जीवन की रक्षा या आत्मरक्षा की जो ज़िम्मेदारी हमपर, खुद पर है, उसका क्या हुआ?

सरकारें तो कोरोना पर जीत की घोषणा करके अपनी पीठ थपथपा लेंगी, जैसी पहली लहर के बाद थपथपाई थी, लेकिन भुगतना आखिर हमें ही है! सरकारों को सिर्फ एक ही कला आती है। मौत के आंकड़े छिपाना और पॉजिटिव केस की संख्या कम से कम बताना। गांवों में हालात इतने खराब हैं कि बच्चों के डॉक्टर हैं ही नहीं। जिला स्तर पर भी बच्चों के डॉक्टर खोजने से नहीं मिलते। लेकिन सरकारें, शहरों के कुछ अस्पतालों में कुछ सुविधा बढ़ाकर संतुष्ट हैं। युद्ध स्तर पर काम करने का यह जो वक्त था सरकारों ने वह भी गंवा दिया है। ऐसे हाल में भी अगर हम खुद की ही चिंता नहीं करेंगे तो कौन करेगा?

हमने इतने अपनों, करीबियों और जान-पहचान वालों को गंवाया है कि गिनती करना मुश्किल है, लेकिन फिर भी सबकुछ भूलकर घूमने-फिरने हम कैसे निकल सकते हैं? कितनी भीड़ होती है वहां? इतनी कि पारोवार नहीं! वहां मौजूद लोग, हर पल हमसे टकराते, मिलते हैं। उन लोगों में से किसने वैक्सीन का पहला डोज लिया है और किसने दोनों, किसने लिया ही नहीं, हमें कुछ भी पता नहीं। फिर भी आधे-अधूरे मास्क लगाकर फिरते लोगों के बीच जाने से हमें गुरेज़ नहीं है।

वैज्ञानिक, डॉक्टर्स चेतावनी देते-देते थक गए हैं कि इस तरह भीड़ में जाना तीसरी लहर को न्योता देने जैसा है, लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं। कोई मानने को राजी नहीं। आखिर जीवन हमारा है, और इसे बचाने की ज़िम्मेदारी भी हमारी ही है। सरकारों का हिसाब-किताब तो हम सब देख ही चुके हैं। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता! पड़ना भी नहीं चाहिए, क्योंकि वे स्थाई नहीं होतीं। आती-जाती रहती हैं।

जीवन अक्षुण्ण है। अटल भी और अमूल्य भी। वह सरकारों की तरह नहीं हो सकता। आया राम-गया राम, तो बिलकुल नहीं। ठीक है मौसम बारिश का है और आस-पास के झरने, नदियां इतना ऊंचा बोल बोलकर हमें बुला रहे हैं लेकिन ये बारिश, ये झरने तो कल फिर आ जाएंगे, फिर से हमें बुलाएंगे भी, जीवन दोबारा आने वाला नहीं है। यही हमारी असल संपत्ति है। इसकी रक्षा हमें खुद करनी होगी। कोई दूसरा मदद के लिए आगे आने वाला नहीं है। कोई सरकार तो बिलकुल नहीं।

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