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शिष्य की संपूर्णता का दिन है गुरु पूर्णिमा

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

शिक्षक शिक्षा देते हैं, लेकिन ‘गुरु’ दीक्षा देते हैं. गुरु आपको जानकारियों से नहीं भरते, बल्कि वे आपके भीतर जीवनी शक्ति जागृत करते हैं.

गुरु और शिक्षक में क्या है अंतर

शिक्षक शिक्षा देता है और गुरु शिक्षा के साथ साथ दीक्षा देता है. दीक्षा का तात्पर्य है कि प्राप्त शिक्षा का जीवन, समाज और देश के उत्थान में उपयोग करना. दीक्षा मार्गदर्शन करती है कि कैसे शिक्षा का उपयोग हो, कहां हो. इसी कारण भारतीय जीवन में दीक्षांत समारोह की अवधारणा थी. गुरु के दो प्रकार हैं- एक शिलाधर्मी और दूसरा आकाशधर्मी. शिलाधर्मी गुरु खुद ही विद्यार्थियों पर निर्भर हो जाते हैं. वे अहं के साथ घोषणा करते हैं कि हम जो कह रहे हैं, वहीं सत्य है. उसको मानो और आगे बढ़ो. दूसरी ओर आकाशधर्मी गुरु अपने विद्यार्थियों को आकाश की तरह अनंत और अछोर का अंतर्ज्ञान देते हैं.

वर्तमान के अधिकांश शिक्षक आपको आजीविका देते हैं, गुरु आपको जीवन देते हैं. शिक्षक हमारे जीवन में जानकारियों को भरता है, गुरु हमारी जानकारियों को खाली कर खुद खोजने को कहते हैं. इस युग में गुरु बहुत कम बचे हैं. गुरु वह है, जो हमको श्रेय यानी श्रेष्ठ की, सत्य की और शुभ की यात्रा कराता है. शिक्षक हमें प्रेय यानी इच्छा और भौतिक जीवन की अभिलाषा को तृप्त करने की कला सिखाता है.

आज बदल गयी है विद्यालय की परिभाषा

यही कारण है कि हम बच्चों को नहीं सुनते. हमारे पास कम समय रहता है बच्चों को गौर से समझने की. जब माता-पिता की वह नहीं सुनता, तो शिक्षक कहां सुनेगा. न समय है और न ही गुरु की तरह हृदय. कदाचित युगों में यमराज जैसा कोई गुरु मिलता है, जो नचिकेता को सुनता है तब कठोपनिषद जैसे महान ग्रंथ बनते हैं. एक बच्चे का जिज्ञासु मन, कितना सवाल उठाता है.

काश! कोई यमराज-सा गुरु होता तो फिर श्रेष्ठता की यात्रा करता हमारा समाज. आज भी हम बच्चों को सुनें, समझें और साथ चलें, तो क्रांति आ जाये. लेकिन समय नहीं है. आजीविका के लिए गणित, भूगोल, साइंस फिजिक्स सीखना है. ज्ञान प्राप्त करना है. आज तो विद्यालय की परिभाषा ही बदल गयी है. विद्यालय वह है, जहां व्यक्ति को स्वयं को को खोजने की, सत्य को पाने की शिक्षा मिलें, न कि आजीविका पाने की, टॉपर बनने तथा वासनाओं की तृप्ति का ज्ञान मिले.

गोस्वामी तुलसीदास ने गुरु वंदना करते हुए लिखा है-

‘‘बंदौं गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नर रूप हरि। महामोहतम पुंज, जासु वचन रविकर निकर।’’

अर्थात् गुरु नर रूप ईश्वर हैं और उनकी सीख, उनके विचार सूर्य की किरणों की भांति होते हैं, जिनसे मोह का पुंज स्वतः समाप्त हो जाता है. ज्ञान विद्या का लक्ष्य ही मोह का विनाश है, क्योंकि मोह ही सभी व्याधियों, परेशानियों की वजह है.

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