Breaking

क्या शासन-प्रशासन में हिंदी सशक्त हुई है?

क्या शासन-प्रशासन में हिंदी सशक्त हुई है?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आर्थिक उदारीकरण की नीतियों से तालमेल करते हुए देश आर्थिक मोर्चे पर नई इबारत तेजी से लिखना शुरू कर चुका था। बाजार बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता वस्तुओं से सजने लगे थे। उत्पादों का बाकायदा लांचिंग समारोह होता, जिसमें पत्रकार भी बुलाए जाते थे। अखबार अपने कारोबार और फीचर पृष्ठों पर नए उत्पाद या प्रोडक्ट लांच नाम से स्तंभ तय कर चुके थे। साल 2002 की बात है। इस चलन में एक और कंपनी शामिल हो रही थी। उसने अपने उत्पाद की लांचिंग पार्टी की कवरेज का जिम्मा एक जनसंपर्क कंपनी को दिया।

उत्पाद निर्माता कंपनी के प्रोडक्ट लांचिंग अधिकारी से जनसंपर्क यानी पीआर अधिकारी की बैठक हुई। उसने पत्रकारों की सूची मांगी, पहले से तैयार सूची बहुराष्ट्रीय कंपनी के अधिकारी के सामने प्रस्तुत की गई, जिसमें ज्यादातर अंग्रेजी अखबारों के पत्रकारों के नाम थे। बहुराष्ट्रीय कंपनी के अधिकारी को कुछ और चाहिए था। उसने पीआर कंपनी के अधिकारी से पूछा कि इस लिस्ट में भाषाई विशेषकर हिंदी प्रकाशनों के पत्रकारों के नाम क्यों नहीं हैं? पीआर कंपनी वाले के लिए यह नया अनुभव था। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अधिकारी अब तक सिर्फ अंग्रेजी प्रकाशनों के पत्रकारों की मांग करते थे, इस वजह से वह चौंक उठा।

जनसंपर्क अधिकारी के चेहरे के असमंजस को बहुराष्ट्रीय कंपनी के अधिकारी ने भांप लिया। उसने जनसंपर्क अधिकारी के समझाया, ‘हमारा टारगेट भारतीय मध्यम वर्ग है जिनके बीच हमें अपना प्रोडक्ट बेचना है और मुझे भी पता है कि अंग्रेजी पत्रकारों और अखबारों की पहुंच कितने लोगों तक है?’ मालूम हो कि जुलाई 1991 में संसद में पूरक बजट प्रस्तुत करते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने देश में उदारीकरण के आरंभ के समय आशंका जताई गई थी कि उदारीकरण अपने साथ अंग्रेजी को भी आगे बढ़ाएगी। ऐसा हुआ भी,

लेकिन यह भी सच है कि उदारीकरण के दौर में भाषाई अखबारों का प्रसार बढ़ा और उनकी आर्थिक स्थिति भी पहले से सुदृढ़ हुई। इसका असर यह हुआ कि हिंदी पट्टी के तमाम बड़े अखबार अपने मूल प्रदेशों से दूसरे हिंदी भाषी इलाकों तक पहुंचे। उदारीकरण के दौरान भारत में आई आर्थिक समृद्धि ने उपभोक्ता बाजार को बड़ा बनाया। इसी बाजार पर कब्जे के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हिंदी समेत भाषाई अखबारों को जरिया बनाया।

उदारीकरण के ही दौर में टीवी का विस्तार हुआ। खबरिया चैनलों ने अपनी दृश्य पत्रकारिता के जरिये जो नई-नई छवियां गढ़नी शुरू की उसने समाचार बनने-बनाने वाले केंद्रों एवं व्यक्तियों को प्रभावित किया। दृश्य माध्यम भारत के लिए नया था, वह तकनीक प्रधान था, उसमें आकर्षण था, लिहाजा वह समाचार सर्जकों का चहेता बन गया। जब तक दूरदर्शन का एकाधिकार रहा तब तक इस माध्यम की सीमा थी। लेकिन 1992 में निजी समाचार चैनलों का आरंभ होने के बाद समाचारों की दुनिया बदलने लगी।

यूं तो अब भी केंद्रीय प्रशासन और नीति निर्माण में अंग्रेजी का बोलबाला है। हालांकि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रशासन में हिंदी की पहुंच और प्रभाव बढ़ा है, लेकिन इतना नहीं कि अंग्रेजी एक किनारे हो जाए। नीति निर्माण, कानून निर्माण, सर्वोच्च अदालतों के फैसलों पर अब भी अंग्रेजी का ही प्रभाव है। इसके बावजूद अगर केंद्रीय प्रशासनिक तंत्र और नीति निर्माण में जुटी संस्थाएं हिंदी पत्रकारिता को भाव देने को मजबूर हुई हैं, तो इसकी बड़ी वजह हिंदी मीडिया की पहुंच और प्रभाव के जरिये हासिल उसकी ताकत है।

भारतीय परिदृश्य में टीवी पत्रकारिता के प्रादुर्भाव के पहले तक कम से कम केंद्रीय स्तर पर अंग्रेजी पत्रकारिता का ही बोलबाला था। मंत्रलयों के सर्वोच्च अधिकारियों को जब भी कोई बड़ी खबर देनी होती थी, उनका ध्यान सबसे पहले बड़े अंग्रेजी प्रकाशनों के पत्रकारों की ओर जाता था। यही हालत राजनीति की भी थी। ये जनप्रतिनिधि जिन इलाकों से चुन कर आते थे, वहां के स्थानीय भाषाई पत्रकारों को भाव भले ही देते थे, लेकिन जैसे ही उन्हें महत्वपूर्ण राजनीतिक पद मिल जाता था, उनकी भी नजर अंग्रेजी अखबारों में अपनी उपलब्धियां गिनाने पर केंद्रित होती जाती थीं। जैसे ही हिंदी समाचार चैनलों और समाचार पत्रों का दायरा बढ़ा, उन्हीं नेताओं की प्राथमिकताएं बदलने लगीं।

उदारीकरण की कई खामियां हो सकती हैं, आर्थिक संदर्भो में उस पर सवाल भी उठते रहे हैं, लेकिन यह भी सच है कि उदारीकरण नहीं होता तो भारतीय उपभोक्ता बाजार नहीं उभरता, उदारीकरण नहीं होता तो उपभोक्ता बाजार पर पहुंच बढ़ाने के लिए उपभोक्ता उत्पाद बनाने वाली कंपनियां खबरिया चैनलों और अखबारों की ओर नहीं देखतीं। चूंकि भारतीय मध्य वर्ग का सबसे बड़ा हिस्सा हिंदी भाषी है,

लिहाजा उससे संपर्क के लिए उदारीकरण की कोख से उभरा बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता उत्पादक हिंदी मीडिया का रुख नहीं करता। इस रुख के कारण हिंदी समाचार पत्रों की पहुंच बढ़ी और उनके संस्करणों के विस्तार में तेजी आई। इन सभी कारणों ने हिंदी पत्रकारिता की पूछ और पहुंच बढ़ाई है। कह सकते हैं कि आज की हिंदी पत्रकारिता अगर हिंदी की परोक्ष रूप से सेवा कर भी रही है, तो उसमें उसकी संवैधानिक स्थिति से कहीं ज्यादा असर उसमें अंतर्निहित उसका बाजार है और उस बाजार पर टिका उपभोक्तावाद।

Leave a Reply

error: Content is protected !!