क्या शराब बिहार सरकार के गले की हड्डी बन गई है?

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समाज ने अपने कर्तव्य से च्युत होकर विरोध करना छोड़ दिया है

बिचौलिए के माध्यम से समाज समझौता वाली जीवन जीने को अभ्यस्त हो गई है

जहरीली शराब पीकर मर जाना हमारे समाज का अमनुष्यता के युग में प्रवेश कर जाना है

✍️ राजेश पाण्डेय

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हमारे समाज में एक कहावत कही जाती है कि निगलोगे तो अंधे और उगल दोगे तो कोढ़ी हो जाओगे यानी आगे कुआं पीछे खाई और बीच में फंस गया नीतीश भाई।
स्थिति यह है कि नीतीश जी 2016 से चल रही शराबबंदी को वापस नहीं ले सकते हैं उनके लिए यह अपने अहं का प्रश्न है। इस तरह बंदी ने कोई घरों को उजाड़ दिया तो वहीं बिहार में भू-माफिया, बालू माफिया के बाद दारू माफिया व शराब माफिया भी पैदा कर दिया है, जो सरकार और प्रशासन के लिए यह चुनौती बना हुआ है।

साष्टांग दंडवत है उसे शराब रूपी देवता को जिन्होंने निराकार रूप धारण करके बिहार के कण-कण में व्याप्त हो गए हैं। आपने ऐसी धूम मचाई है कि गांव-गांव को पूर्ण सुविधाओं से लबरेज कर दिया है। गांव अब गांव नहीं रहे नगर बन गए है। बिलासिता रूपी उपकरण ने गांव- नगर की दूरी को कम करते हुए, मानसिक दूरी को भी कम किया है। सरकारों ने बिजली, सड़क, पानी व राशन मे मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति तो किया परन्तु मनरेगा से लेकर कई प्रकार की योजनाओं ने भ्रष्ट्र तंत्र को गांव-गांव में रोपित कर दिया है। व्यक्ति अपनी प्रतिभा व प्रतिबद्धता से विमुख हो गया है। पन्द्रह से पच्चीस वर्ष तक के बालक एवं नवयुवक अहर्निश परिश्रम करके शराब बंदी को चार चांद लगा रहे है। सेठ धन लगाकर खेल का आनंद ले रहे है।

नेपाल, बंगाल, झारखंड एवं उत्तर प्रदेश से घिरा बिहार राज्य शराब बंदी को सफल बनाने हेतु अथक प्रयास कर रहा है परन्तु इन राज्यों व नेपाल में शराब की खुली छूट ने इसके राह में अनगिनत रोड़े अटका दिए है। प्रशासन व पुलिस विभाग छद्दम रूप से इसके रोकथाम हेतु भ्रष्ट तंत्र का ताना-बाना बुनती है। औपचारिक रूप से न्यायालय में एक दो मामले को पहुंचा दिया जाता है और उसके निस्तारण का भी उपाय ढूंढ लिया जाता है।

जहरीली शराब पीकर मर जाना हमारे समाज का अमनुष्यता के युग में प्रवेश कर जाना है।
कानून सफेद हाथी बनकर रह गया है। कानून केवल खौंफ पैदा करता है, समस्या का समाधान नहीं करता।
गरीबी, अशिक्षा, मानवाधिकार हनन, न्याय, प्रशासन ये सभी शब्द अपने व्यापक अर्थ में कागज के पृष्ठों पर जमे हुए है।

विगत कुछ दिन पहले सीवान जिले के भगवानपुर प्रखंड की घटना अब आई गई बात होकर रह गई है। मरने वालों की संख्या सौ से ऊपर हुई। कामना यही है कि मरने वाले को स्वर्ग मिले, परिजनों को कुछ समय के भरण पोषण के लिए कुछ पैसा और मृत्यु तक पहुंचाने वाले धन लोभियों को जेल मिला है। वह भी जेल में कितने दिनों तक रहेंगे यह कहा नहीं जा सकता है क्योंकि बिहार का यह रिकॉर्ड है कि यहां पर हाई क्राइम और लो कन्विकशन रेट रहा है यानी यहां अपराध बहुत ज्यादा होता है परन्तु सज़ा बहुत ही कम को मिलती है।

भगवान के नाम पर भगवानपुर में पचास लोगों को भगवान के धाम पहुँचाने करने वाले क्षेत्र के यम को कोटि-कोटि प्रणाम निवेदित करता करता हूँ।
दिव्य रस से अपने को सदैव सराबोर रखने वाले रहवासी की आत्मा अप्रत्यक्ष रूप से शराबबंदी का गीत गाकर क्षेत्र की जनता को बहस का मुद्दा तब-तक देती रहेगी जब-जब तक की इससे बड़ा वृत्तांत आगे न हो जाए। कितना सुखद संयोग है कि परमात्मा ने आत्मा को भगवानपुर भेजा,उसने दिव्य रस का सेवन करते हुए यथाशीघ्र परमात्मा के निकट पहुँच गया।

समाज की किंकर्तव्यविमूढ भूमिका

यह विडम्बना ही है कि 2016 से लेकर 2024 तक के समय में यह मुद्दा सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से विकसित नहीं हो पाया एवं समाज के अपसंस्कृति की भेंट चढ़ गया। समाज भी अपने कार्यों से च्युत हो गया है। अब उसमें किसी भी मुद्दे को लेकर विरोध करने का साहस नहीं है। इसके कई कारणों में पहला कारण यह है कि समाज में शिक्षित होने का अनुपात लगातार घटता जा रहा है। जनता साक्षर तो हो रही हैं परन्तु शिक्षित नहीं हो रही है। समाज के प्रति उनका क्या दायित्व है,क्या कर्तव्य है इससे वह लगातार च्युत हो गए है।

व्यक्ति समाज से विमुख होकर व्यक्तिवादी हो गया है, अब वह केवल अपना विकास चाहता है, चाहे वह जैसे भी हो। समाज में क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, कैसे हो रहा है, इससे अब उसे कोई मतलब नहीं है। सरकार हमारे लिए है, प्रशासन हमारे दिन प्रतिदिन के कार्यों को सुगम बनाने के लिए है। परन्तु अब हम सेवक हो गए हैं वे हमारे स्वामी हो गए है।

हमारे समाज के कुछ लोग उसके खबरी,सूचक एवं द…ल व बिचौलिया हो गए है। हमें लगातार इस बात का डर लगा रहता है कि प्रशासन हम पर प्राथमिकी(FIR) ना कर दें। इससे बढ़कर हमारा समाज जाति, धर्म,भाषा, रूप रंग, खानपान एवं क्षेत्र में बुरी तरह बटं गया है। यह धारणा समाज के अंदर अच्छी तरह व्याप्त हो गई है। इन सभी कारणों हमने विरोध का स्वर धीमा कर लिया या बिल्कुल ही छोड़ दिया है। अब हम औपचारिकता में विश्वास कर रहे हैं।

इससे समाज में ‘अपना काम है बनता भांड में जाए जनता’ वाली उक्ति चरितार्थ हो रही है। जिसका परिणाम है कि सरकारें आए-जाए, प्रशासन आए-जाए, हमें इससे कोई मतलब नहीं है, केवल हमारा काम होना चाहिए। हम पलायन वादी हो गए है, गांव छोड़कर नगर आते हैं, नगर छोड़कर महानगर जाते है, महानगर छोड़कर विदेश तक के नगरों में हम अब आश्रय लेने लगे हैं। ऐसे में समाजिक कुरीतियों पर कैसे रोक लगेगी?

विडंबना है कि हमारे गांव में एक पांच लोगों का ऐसा समूह नहीं है जो स्वच्छ एवं सत्यनिष्ठ हो, जिससे गांव में संचालित विद्यालय, पंचायत कार्यालय, राशन का वितरण एवं सरकारी योजनाओं का ठीक-ठीक से अनुपालन को देखे। हमारा लोक कल्याणकारी राज्य अजीब चक्रव्यूह में फंसकर बिचौलियों के राज में बदल गया है। हमारे जनप्रतिनिधि तो पूर्ण रूप से औपचारिकता में जीवन व्यतीत कर रहे है। क्या हो गया है हमारे समाज को, इस पर हमें अवश्य विचार करना चाहिए।

ऐसे में सारा दोष प्रशासन पर मढ़ने से क्या होगा, जिलाधिकारी महोदय एवं अन्य अधिकारियों के स्थानांतरण से आपको क्या मिल जायेगा!

 

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