क्या राज्यपाल का संवैधानिक पद ‘केंद्र का एजेंट’ होने की ओर झुक गया है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

राज्यपाल का पद कैसे अस्तित्व में आया?

  • स्वतंत्रता से पहले:
    • वर्ष 1858 में भारत का प्रशासन ‘ब्रिटिश क्राउन’ के अधीन आने के साथ ‘गवर्नर’ का पद अस्तित्व में आया। प्रांतीय गवर्नर क्राउन के एजेंट थे, जो गवर्नर-जनरल के अधीक्षण में कार्य करते थे।
    • भारत सरकार अधिनियम, 1935 के माध्यम से निर्दिष्ट किया गया कि गवर्नर प्रांत की विधायिका के मंत्रियों की सलाह के अनुसार कार्य करेगा, लेकिन उसके पास विशेष उत्तरदायित्व और विवेकाधीन शक्ति अब भी बनी रही।
  • स्वतंत्रता के बाद:
    • गवर्नर के पद पर संविधान सभा में व्यापक बहस हुई, जहाँ निर्णय लिया गया कि ब्रिटिश काल में उसकी तय भूमिका को पुनःउन्मुख करते हुए इसे बनाए रखा जाए।
    • वर्तमान में, भारत द्वारा अपनाई गई शासन की संसदीय और मंत्रिमंडलीय प्रणाली के तहत गवर्नर (जहाँ हिंदी में अब ‘राज्यपाल’ शब्द का प्रयोग किया जाता है) को किसी राज्य के संवैधानिक प्रमुख (Constitutional Head) के रूप में परिकल्पित किया गया है।

राज्यपाल से संबंधित संवैधानिक प्रावधान कौन-से हैं?

  • अनुच्छेद 153 में कहा गया है कि प्रत्येक राज्य के लिये एक राज्यपाल होगा। किसी व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों का राज्यपाल भी नियुक्त किया जा सकता है।
    • अनुच्छेद 155 एवं 156 के अनुसार राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर एवं मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करेगा और वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करेगा।
  • अनुच्छेद 161 में क्षमा आदि की और कुछ मामलों में दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की राज्यपाल की शक्ति का उल्लेख किया गया है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी बंदी को क्षमा करने की राज्यपाल की संप्रभु शक्ति का प्रयोग वास्तव में राज्य सरकार की सहमति से किया जाता है, न कि राज्यपाल द्वारा अपनी इच्छा से।
    • वह राज्य सरकार की सलाह मानने के लिए बाध्य है।
  • अनुच्छेद 163 में कहा गया है कि जहाँ राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह विवेकानुसार कार्य करे, उन विषयों को छोड़कर राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता एवं सलाह देने के लिये एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा।
    • राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ (Discretionary powers) निम्नलिखित परिस्थितियों में प्रभावी होती हैं:
      • राज्य विधानसभा में किसी भी दल के पास स्पष्ट बहुमत न होने की स्थिति में मुख्यमंत्री की नियुक्ति करना
      • अविश्वास प्रस्तावों के दौरान
      • राज्य में संवैधानिक मशीनरी की विफलता के मामले में (अनुच्छेद 356)
  • विधेयकों को पारित करने के संबंध में राज्यपाल की शक्तियाँ संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 द्वारा परिभाषित हैं। इन अनुच्छेदों के अनुसार, जब राज्य विधानमंडल द्वारा राज्यपाल के समक्ष कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है तो उसके पास निम्नलिखित विकल्प होते हैं:
    • वह विधेयक पर अनुमति दे सकता है, जिसका अर्थ है कि विधेयक एक अधिनियम बन जाता है।
    • वह विधेयक पर अपनी सहमति रोक सकता है, जिसका अर्थ है कि विधेयक अस्वीकृत कर दिया गया है।
    • वह विधेयक (यदि यह धन विधेयक नहीं है) को विधेयक या उसके कुछ प्रावधानों पर पुनर्विचार के अनुरोध वाले संदेश के साथ राज्य विधायिका को वापस कर सकता है।
    • यदि विधेयक को राज्य विधानमंडल द्वारा संशोधनों के साथ या बिना संशोधनों के दोबारा पारित किया जाता है तो राज्यपाल इस पर अपनी अनुमति नहीं रोक सकता।
    • वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित कर सकता है, जो या तो विधेयक पर अनुमति दे सकता है या अनुमति रोक सकता है, या राज्यपाल को विधेयक को पुनर्विचार के लिये राज्य विधानमंडल को वापस करने का निर्देश दे सकता है।
  • अनुच्छेद 361 में कहा गया है कि किसी राज्य का राज्यपाल अपनी शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन के लिये किसी न्यायालय को उत्तरदायी नहीं होगा।

भारत में राज्यपाल के पद से संबंधित प्रमुख मुद्दे कौन-से हैं?

  • संबद्धता आधारित नियुक्ति: कई मामलों में देखा गया है कि सत्तारूढ़ दल से संबद्ध राजनेताओं और पूर्व नौकरशाहों को राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया है।
    • इससे पद की निष्पक्षता और गैर-पक्षपातपूर्णता पर सवाल उठने लगे हैं। इसके साथ ही, राज्यपाल की नियुक्ति से पहले मुख्यमंत्री से परामर्श करने की परंपरा की भी प्रायः अनदेखी की जाती है।
  • केंद्र के प्रतिनिधि से केंद्र के एजेंट की ओर: आजकल आलोचकों द्वारा राज्यपालों की ‘केंद्र के एजेंट’ होने के रूप में आलोचना की जाती है।
    • वर्ष 2001 में ‘राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग’ ने माना कि राज्यपाल अपनी नियुक्ति और पद पर बने रहने के लिये केंद्र के प्रति आभारी बना रहता है। इससे आशंकाएँ उत्पन्न होती हैं कि वह केंद्रीय मंत्रिपरिषद द्वारा दिए गए निर्देशों का ही पालन करेगा।
      • यह संवैधानिक रूप से निर्दिष्ट तटस्थता के विरुद्ध है और इसके परिणामस्वरूप पक्षपात की स्थिति बनती है।
  • विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग: कई मामलों में राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग किया गया है।
    • उदाहरण के लिये, आलोचक आरोप लगाते हैं कि राष्ट्रपति शासन के लिये राज्यपाल की अनुशंसा हमेशा ‘वस्तुनिष्ठ सामग्री’ (objective material) पर आधारित नहीं होती है, बल्कि राजनीतिक सनक या कल्पना पर आधारित होती है।
  • राज्यपालों को हटाना: राज्यपालों को पद से हटाने के किसी लिखित आधार या प्रक्रिया के अभाव में कई बार राज्यपालों को मनमाने ढंग से हटाया गया।
  • संवैधानिक एवं सांविधिक भूमिका के बीच कोई स्पष्ट अंतर नहीं: मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करने का संवैधानिक निदेश कुलाधिपति या ‘चांसलर’ के रूप में उसके सांविधिक प्राधिकार से स्पष्ट रूप से अलग नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच विभिन्न संघर्ष उत्पन्न होते हैं।
    • उदाहरण के लिये, हाल ही में केरल के राज्यपाल द्वारा सरकारी नामांकन को दरकिनार करते हुए एक विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति की गई।
  • संवैधानिक खामियाँ: संविधान में मुख्यमंत्री की नियुक्ति या विधानसभा को भंग करने की स्थिति में राज्यपाल की शक्तियों के प्रयोग के लिये कोई दिशानिर्देश मौजूद नहीं हैं।
    • इसके साथ ही, इस बात की भी कोई सीमा निर्धारित नहीं है कि राज्यपाल किसी विधेयक पर कितने समय तक अपनी अनुमति को रोके रख सकता है।
    • इसके परिणामस्वरूप, राज्यपाल और संबंधित राज्य सरकारों के बीच मनमुटाव पैदा होने की संभावना बनती है।

विभिन्न समितियों और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुझाए गए प्रमुख संवैधानिक सुधार कौन-से हैं?

  • सरकारिया आयोग (1988):
    • राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श के बाद की जानी चाहिये।
    • राज्यपाल को सार्वजनिक जीवन के किसी क्षेत्र में प्रतिष्ठित व्यक्ति होना चाहिये और उस राज्य से संबंधित नहीं होना चाहिये जहाँ वह नियुक्त किया गया है।
    • दुर्लभ एवं बाध्यकारी परिस्थितियों को छोड़कर राज्यपाल को उसका कार्यकाल पूरा होने से पहले नहीं हटाया जाना चाहिये।
    • राज्यपाल को केंद्र और राज्य के बीच एक सेतु के रूप में कार्य करना चाहिये न कि केंद्र के एजेंट के रूप में।
    • राज्यपाल को अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग संयमित एवं विवेकपूर्ण तरीके से करना चाहिये और उनका उपयोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमज़ोर करने के लिये नहीं करना चाहिये।
  • एस.आर. बोम्मई निर्णय (1994):
    • इस निर्णय के माध्यम से शत्रुतापूर्ण केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों की मनमानी बर्खास्तगी पर रोक लगा दी गई।
    • निर्णय में कहा गया कि विधानसभा का पटल ही एकमात्र ऐसा मंच है जहाँ मौजूदा सरकार के बहुमत का परीक्षण किया जाना चाहिये, न कि राज्यपाल की व्यक्तिपरक राय के आधार पर।
  • वेंकटचलैया आयोग (2002):
    • राज्यपालों की नियुक्ति एक समिति द्वारा की जानी चाहिये जिसमें प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री शामिल हों।
    • राज्यपाल को पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने देना चाहिये, जब तक कि सिद्ध दुर्व्यवहार या अक्षमता के आधार पर वह स्वयं त्यागपत्र न दे दे या राष्ट्रपति द्वारा हटा नहीं दिया जाए।
    • केंद्र सरकार को राज्यपाल को हटाने की किसी भी कार्रवाई से पहले संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से सलाह लेनी चाहिये।
    • राज्यपाल को राज्य के दैनिक प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। उसे राज्य सरकार के मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक के रूप में कार्य करना चाहिये तथा अपनी विवेकाधीन शक्तियों का संयमपूर्वक उपयोग करना चाहिये।
  • रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ (2006):
    • यह पता चलने के बाद कि राज्यपाल ने बिहार में राष्ट्रपति शासन की सिफ़ारिश करने में अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल का प्रेरित और मनमाना आचरण न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
    • हालाँकि रामेश्वर प्रसाद मामले में इस पर विचार नहीं किया गया कि गैर-संवैधानिक रुख एवं कथनों के लिये राज्यपाल छूट या प्रतिरक्षा का दावा कर सकता है या नहीं।
  • पुंछी आयोग (2010):
    • आयोग ने संविधान से ‘राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत’ वाक्यांश—जिसका अर्थ यह है कि राज्यपाल को केंद्र सरकार की इच्छा पर हटाया जा सकता है, को हटाने की सिफ़ारिश की।
    • आयोग ने सुझाव दिया कि इसके बजाय राज्यपाल को केवल राज्य विधानमंडल के एक प्रस्ताव द्वारा ही हटाया जाना चाहिये, जो राज्यों के लिये अधिक स्थिरता एवं स्वायत्तता सुनिश्चित करेगा।
  • बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010):
    • सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि राष्ट्रपति किसी भी समय और बिना कोई कारण बताए राज्यपाल को हटा सकता है।
    • ऐसा इसलिये है क्योंकि राज्यपाल भारत के संविधान के अनुच्छेद 156(1) के तहत ‘राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत’ पद पर बना रहता है। हालाँकि, न्यायालय ने यह भी माना कि मनमाने, मनमौजी या अनुचित आधार पर उसे नहीं हटाया जा सकता।
  • नबाम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष (2016):
    • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बी.आर. अंबेडकर की टिप्पणियों का हवाला दिया जहाँ कहा गया है कि “संविधान के तहत राज्यपाल के पास ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसे वह स्वयं निष्पादित कर सके; एक भी कार्य नहीं।”
      • “हालाँकि उसके पास कोई कार्य नहीं है, उसे कुछ कर्तव्य निभाने होते हैं और सदन इस अंतर को ध्यान में रखे तो उपयुक्त होगा।”
    • सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविधान का अनुच्छेद 163 राज्यपाल को अपने मंत्रिपरिषद की सलाह के विरुद्ध या उसके बिना कार्य करने की सामान्य विवेकाधीन शक्ति नहीं सौंपता है।
  • राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली बनाम भारत संघ (2018):
    • सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ ने ‘संवैधानिक संस्कृति’ की धारणा के आधार पर ‘संविधान के नैतिक मूल्यों’ की पहचान करने की आवश्यकता पर बल दिया।
    • न्यायालय ने कहा कि “संवैधानिक नैतिकता उन व्यक्तियों को ज़िम्मेदारियाँ और कर्तव्य सौंपती है जो संवैधानिक संस्थानों और कार्यालयों में पदभार रखते हैं।”
    • राज्यपालों को यह पहचान करनी चाहिये कि उनके कृत्य संवैधानिक नैतिकता को प्रदर्शित करते हैं या नहीं।
  • कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023):
    • न्यायालय ने कहा कि सरकारी कार्यकारियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संविधान के अनुच्छेद 19(2) द्वारा अनुमत ‘युक्तियुक्त निर्बंधों’ के अलावा किसी अन्य माध्यम से कम नहीं किया जा सकता है।

भारत में राज्यपालों की भूमिका पर जारी चर्चा सूक्ष्म सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित करती है। जबकि इस पद के पूर्णरूपेण उन्मूलन को अविवेकपूर्ण माना जाता है, पारदर्शी नियुक्तियों, जवाबदेही की वृद्धि और सीमित विवेकाधीन शक्तियों के प्रस्ताव सामने रखे गए हैं। लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कमज़ोर किये बिना राज्यपाल के पद के प्रभावी कार्यकरण को सुनिश्चित करने के लिये राज्य और केंद्रीय हितों के बीच संतुलन बनाना महत्त्वपूर्ण है।

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