क्या देश में राजनीतिक माहौल बदल गया है ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के जितने भी सरसंघचालक हुए हैं, वे संयमित जीवन जीने के लिए ही नहीं, बल्कि नियंत्रित सार्वजनिक बयान देने के लिए भी जाने जाते रहे हैं। इसीलिए राजनीतिक माहौल पर नजर रखने वाले लोग विजयादशमी के दिन उनके सालाना उद्बोधन का इंतजार करते हैं, जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति के ‘स्टेट ऑफ द यूनियन स्पीच’ के जैसा माना जाता है।

वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत खामोशी की इस परम्परा को तोड़ते नजर आते हैं। वे गाहे-बगाहे चर्चित बयान देते रहते हैं लेकिन शब्दों को तौलकर बोलते हैं, खासकर तब जब उनकी तुलना उनके पूर्ववर्ती के. एस. सुदर्शन से की जाती है। भागवत उनसे भिन्न हैं, मगर वे भी सुर्खियों के लिए मसाला देते रहते हैं। बीते हफ्ते आरएसएस के मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गेनाइजर’ को दिए अपने इंटरव्यू में भागवत ने यही किया था।

आखिरकार, कहा जा सकता है कि वे ऐसे माहौल में सरसंघचालक बने हैं, जैसा आरएसएस के 100 साल के इतिहास में कभी नहीं आया था। आरएसएस की स्थापना 27 सितम्बर 1925 को हुई थी। 2014 तक के 90 साल में आरएसएस के सम्बंध तत्कालीन सरकारों के साथ अमूमन टकराव वाले रहे, समाज में उसने स्वीकार किए जाने और राजनीति में अपनी प्रासंगिकता तलाशने की जद्दोजहद लगातार की है।

आज आरएसएस न केवल सत्ता का हिस्सा है, बल्कि उसका मूल आधार है। ‘पाञ्चजन्य’ को दिए इंटरव्यू में भागवत ने इसे स्वीकार किया है। उन्होंने कहा है कि अतीत में आरएसएस के रास्ते में ‘कंटक’ थे- बौद्धिक तथा राजनीतिक स्तरों पर अस्वीकार्यता और आलोचनाएं थीं। आज वह माहौल बदल गया है।

सरसंघचालक ने ठीक ही कहा है कि आज राजनीतिक माहौल बदल गया है और वह आरएसएस के लिए बेहतर हुआ है। यही वजह है कि वर्तमान समय में आरएसएस अपने इतिहास की सबसे शक्तिशाली स्थिति में है। नए, बदले हुए माहौल ने उनके संगठन के शिष्यों को सत्ता के प्रमुख पदों पर बिठा दिया है।

नरेंद्र मोदी कोई अटल बिहारी वाजपेयी नहीं हैं, जो खुद को अलग दिखाने की कोशिश करेंगे या अपनी वैचारिक परवरिश को लेकर संकोची दिखेंगे। वाजपेयी के जमाने में आरएसएस को अक्सर उनके साथ कभी-कभी तो खुले तौर पर नोक-झोंक करते देखा जाता था, लेकिन हमने मोदी के साथ ऐसा होते नहीं देखा। इसलिए आरएसएस आज राजनीतिक रूप से सबसे शक्तिशाली भले हो लेकिन इसमें एक विरोधाभास भी है।

इसकी वजह यह है कि उसकी राजनीतिक ताकत सरकार के बूते है। आरएसएस भले गुरु हो, लेकिन थोड़ी-सी आलोचना तो भूल ही जाइए, सलाह या सुझाव देने की भी कोशिश नहीं कर सकता। शिष्य ही जब इतना लोकप्रिय और दबंग हो जाए, तब गुरु को किनारे खड़े होकर सराहना करनी पड़ती है।

इसका अर्थ यह हुआ कि आरएसएस आज ज्यादा सुर्खियों में नहीं रह सकता। वह सरकार पर सवाल उठाकर उसे परेशानी में नहीं डाल सकता। उसे कुछ विचारों को किनारे रखना पड़ सकता है। उस पर सत्ता का भला साथी बनने की जिम्मेदारी आ गई है।

आरएसएस को आज उन मुद्दों पर समझौता करना पड़ रहा है, जो उसका वैचारिक आधार हैं- चाहे वह जेनेटिकली मोडिफाइड सीड्स का मुद्दा हो या सामूहिक नेतृत्व के बजाय शक्तिशाली पर्सनैलिटी कल्ट का या पश्चिमी देशों के साथ गठबंधन करने से लेकर महत्वपूर्ण इस्लामी देशों से सम्बंध बनाने का। यहां हमें उन चुनौतियों और मुश्किलों की याद आती है, जिनका जिक्र सरसंघचालक ने ‘पाञ्चजन्य’ को दिए इंटरव्यू में किया है।

ऐसी ही एक चुनौती है मीडिया। भागवत ने कहा है कि अब हम उस स्थिति में हैं कि मीडिया से बात कर सकें और हमें करनी भी चाहिए। यह हमें अच्छा लगता है लेकिन हमें उसके जुनून में नहीं फंसना और न ही उसका बंदी बनना। हमारे लोग आज सत्ता के ऊंचे पदों पर बैठे हैं और कभी-कभी वे ऐसी बात कह सकते हैं या ऐसे काम कर सकते हैं, जिससे हमारा संगठन बदनाम हो सकता है।

इसका कुछ दोष हमें स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि ये लोग हमारे यहां से ही गए हैं। भागवत ने सामाजिक मुद्दों पर साफ नजरिया पेश किया है। उदाहरण के लिए, ट्रांसजेंडर्स के अधिकारों के मसले पर उन्होंने आरएसएस का रुख स्पष्ट किया है। उन्होंने कहा कि हिंदू संस्कृति में इसे कभी समस्या नहीं माना गया और इसकी आलोचना पश्चिम से प्रेरित है।

किसी संगठन का नेतृत्व कर रहे व्यक्ति का यह सब कहना प्रगति की निशानी है। इस तरह के विचार आप किसी मुस्लिम या ईसाई धार्मिक नेता से आमतौर पर नहीं सुनेंगे। इसी तरह, जनसंख्या वृद्धि के बारे में भागवत ने इस मांग को अस्वीकार किया कि परिवार का आकार सीमित करने के लिए कानून बनाया जाए।

उन्होंने कहा कि जोर-जबरदस्ती नहीं, बेहतर शिक्षा से ही काम बनेगा। यह बयान भी प्रगति की निशानी है। भागवत ने दक्षिण सूडान, पाकिस्तान और पूर्वी तिमोर का उदाहरण देते हुए कहा कि ये देश इसलिए बने, क्योंकि किसी एक आस्था के लोगों की आबादी बहुत बढ़ गई। भागवत ने कहा कि समस्या जन्मदर नहीं बल्कि धर्म परिवर्तन और घुसपैठ है।

इसके बाद वह कथन, जो सुर्खियां बना कि भारत हजार साल से लड़ता आ रहा है, लेकिन अब हम इतने ताकतवर हो गए हैं कि उसकी चिंता नहीं रही, लेकिन यह तभी मुमकिन है, जब हम हिंदू-बहुल राष्ट्र बने रहेंगे। यह हमें वापस वहीं ला खड़ा करता है, जहां से हमने शुरुआत की थी। वो यह कि आरएसएस चाहे चिर विद्रोही की भूमिका में रहा हो या सत्ता में, वह कुछ दुविधाओं से अभी तक उबर नहीं पाया है।

नौ दशकों तक विद्रोही के रूप में रहने के बाद आरएसएस के सामने आज चुनौती सत्तातंत्र के मूल आधार के रूप में अपनी नई भूमिका निभाने की है। औपचारिक सत्ता की बंदिशों में एक यह भी है कि आपको प्रमुख मुद्दों पर अपने विचार को बारीकी से रखना पड़ता है, जैसा कि भागवत ने अपने हाल ही के इंटरव्यू में किया है। हालांकि यह उतना आसान नहीं है, जितना लगता है।

 

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