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क्या भारत को बदनाम करने के लिए विश्व भूख सूचकांक की रैंकिंग जारी की गई है ? - श्रीनारद मीडिया

क्या भारत को बदनाम करने के लिए विश्व भूख सूचकांक की रैंकिंग जारी की गई है ?

क्या भारत को बदनाम करने के लिए विश्व भूख सूचकांक की रैंकिंग जारी की गई है ?

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रैंकिंग में 121 देशों की सूची में भारत को 107वें स्थान पर रखा गया है

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

इस बार भी विश्व हंगर इंडेक्स जारी कर दिया गया है। अकादमिक उपयोग की दृष्टि से पूर्णतः अनुपयोगी यह इंडेक्स वास्तव में राजनीतिक स्टंटबाजी का एक हिस्सा प्रतीत होता है, जो भारत समेत कुछ विकासशील देशों और उनके नेतृत्व को बदनाम करने का एक प्रयास लगता है।

पिछले वर्ष अक्टूबर में जब ऐसी रिपोर्ट जारी हुई थी तो भारत सरकार की ओर से उसमें इस्तेमाल किए गए आंकड़ों और क्रियाविधि पर खासा विरोध दर्ज कराया गया था और तब विश्व खाद्य संगठन (एफएओ) ने यह कहा था कि इन त्रुटियों को ठीक किया जाएगा, लेकिन अब दोबारा से उन्हीं गलत आंकड़ों और क्रियाविधि का इस्तेमाल करते हुए इस वर्ष भी रिपोर्ट जारी करने से इस संस्था की बदनीयती स्पष्ट हो रही है।

भारत की खाद्य सुरक्षा

आज जब अनेक राष्ट्र अपनी खाद्य सुरक्षा को लेकर आशंकित हैं, भारत दुनिया के सामने एक मिसाल बनकर उभरा है। महामारी काल में जब सभी आर्थिक गतिविधियां ठप हो गई थीं और गरीबों, मजदूरों व वंचितों के आय के स्रोत समाप्त हो रहे थे, ऐसे में भारत सरकार द्वारा 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज उपलब्ध कराने की योजना और उसका सफल निष्पादन अचंभित करने वाला कहा जा सकता है। हालांकि अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भारत में खाद्य सुरक्षा को लेकर भ्रामक प्रचार में जुटी हैं, लेकिन धरातल पर एक अलग ही चित्र उभर रहा है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

वर्ष 1964-65 के दौर में भारत में खाद्यान्न उत्पादन मात्र 890 लाख टन ही था, जबकि जनसंख्या 50 करोड़ थी। ऐसे में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता मात्र 178 किलोग्राम प्रतिवर्ष थी। उस समय खाद्यान्नों की कमी तो थी ही, अन्य पोषक खाद्य पदार्थों का उत्पादन भी बहुत कम होता था।

उस समय देश में दूध का उत्पादन 205 लाख लीटर ही होता था यानी 28 मिली लीटर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन। फल-सब्जियों का उत्पादन भी कम मात्रा में होता था। अन्य खाद्य पदार्थों का उत्पादन भी कम होने के कारण देश में खाद्यान्नों की जरूरत ज्यादा होती थी। इन हालातों में देश के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था कि वह विदेश से खाद्यान्न आयात करे।

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राष्ट्रीय पोषण निगरानी बोर्ड

अमेरिका एक ऐसा देश था, जिसके पास अतिरिक्त खाद्यान्न उत्पादित होता था। अमेरिका से जब संपर्क साधा गया तो उसने पीएल-480 योजना के तहत भारत को गेहूं भेजा। अमेरिका द्वारा भेजा गया गेहूं जिसे ‘लाल गेहूं’ के नाम से भी पुकारा जाता था, अत्यंत घटिया किस्म का था। साथ ही विडंबना यह कि उसके साथ ही कई प्रकार के फफूंद एवं खरपतवार भी भारत में प्रवेश कर गए।

एक खतरनाक खरपतवार जिसे ‘कांग्रेस ग्रास’ कहा जाता है, वह भी साथ में आ गया। देश इस खरपतवार से तब से जूझ रहा है और हमारी लाखों एकड़ भूमि ही इसके कारण बर्बाद नहीं हुई, बल्कि इस खरपतवार को साफ करने के लिए हर साल हजारों करोड़ रुपये बर्बाद हो जाते हैं।

गौरतलब है कि वेल्ट हंगर हिल्फे, विश्व भूख सूचकांक तैयार करने के लिए खाद्य उपभोग के स्वयं कोई आंकड़े एकत्र नहीं करती और केवल विश्व खाद्य संगठन (एफएओ) द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों को ही उपयोग में लाती है। पूर्व में यह संगठन भारत की एक संस्था राष्ट्रीय पोषण निगरानी बोर्ड पर निर्भर करती रही है, लेकिन बोर्ड का कहना है कि उसने ग्रामीण क्षेत्रों में 2011 और शहरी क्षेत्रों में 2016 के बाद खाद्य पदार्थों के उपभोग का कोई सर्वेक्षण नहीं किया है। वेल्ट हंगर हिल्फे ने बोर्ड के आंकड़ों की जगह किसी निजी संस्था के ‘गैलोप’ सर्वेक्षण, जिसका कोई सैद्धांतिक औचित्य भी नहीं, उसका उपयोग किया है।

देश में विश्व का सबसे बड़ा खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम

भारत सरकार ने भी एजेंसी द्वारा प्रयुक्त इस ‘गैलोप’ सर्वे की कार्य पद्धति और उसमें पूछे गए प्रश्नों पर सवाल उठाया है। सरकार की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि एजेंसी की रिपोर्ट में सरकार द्वारा खाद्य सुरक्षा हेतु किए गए प्रयासों को समाहित नहीं किया गया।

गौरतलब है कि भारत सरकार की ओर से देश में विश्व का सबसे बड़ा खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम चलाया जा रहा है, जिसमें न केवल पिछले 28 महीनों से 80 करोड़ देशवासियों को मुफ्त अनाज का वितरण किया जा रहा है, बल्कि आंगनबाड़ी सेवाओं के तहत भी लगभग 7.71 करोड़ बच्चों और 1.78 करोड़ गर्भवती महिलाओं एवं स्तनपान कराने वाली माताओं को पूरक पोषण भी प्रदान किया गया है।

लगभग 14 लाख आंगनबाड़ियों में कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं द्वारा पूरक पोषाहार का वितरण किया गया और लाभार्थियों को हर पखवाड़े उनके घरों तक राशन पहुंचाया गया। डेढ़ करोड़ महिलाओं को उनके पहले बच्चे के जन्म पर गर्भावास्था और प्रसव के बाद की अवधि के दौरान पारिश्रमिक सहायता एवं पौष्टिक भोजन के लिए प्रत्येक को पांच हजार रुपये प्रदान किए गए।

एक अन्य दिलचस्प सवाल यह है कि क्या वैश्विक भूख सूचकांक में इस्तेमाल होने वाले संकेतक जैसे बच्चों में ठिगनापन और पतलापन वास्तव में भूख को मापते हैं? यदि ये संकेतक भूख के परिणाम हैं, तो अमीर लोगों को भोजन तक पहुंच की कोई समस्या नहीं है, उनके बच्चे ठिगने और पतले क्यों होने चाहिए।

वर्ष 2016 में 16 राज्यों के राष्ट्रीय पोषण संस्थान के आंकड़ों से पता चलता है कि अमीर लोगों (कार और मकान के मालिक) में भी क्रमशः 17.6 और 13.6 प्रतिशत बच्चे इससे पीड़ित थे। इस रपट के अनुसार भी पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में मृत्यु दर घटी है, साथ ही पांच वर्ष की आयु से कम के बच्चों में ठिगनेपन की प्रवृत्ति भी कम हुई है।

समझना होगा कि अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों का अपना एक एजेंडा हो सकता है, इसलिए खाद्य सुरक्षा के मामले में हमें अपने बनाए हुए मार्ग पर चलते रहना होगा। वर्ष 1998-2002 के बीच अपनी आयु से ठिगने बच्चों का अनुपात 54 प्रतिशत से घटता हुआ वर्ष 2016-2020 के बीच 34.7 प्रतिशत रह गया है।

यानी अब बच्चे पहले से ज्यादा लंबे हो रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि चूंकि बच्चे पहले से ज्यादा लंबे हो रहे हैं, इसलिए बढ़ती लंबाई के चलते उनमें पतलापन आ रहा है, जो कि अच्छा संकेत है। ऐसे में भुखमरी मापने की कार्यपद्धति में दोष दिखाई देता है। समय की मांग है कि इस प्रकार की झूठी रपटों का ठीक प्रकार से पर्दाफाश किया जाए और वास्तविक तथ्यों को दर्शाया जाए।

 

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