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क्या परमाणु संयम का समय आ गया है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आसिफ अली जरदारी ने हाल ही में एक बार फिर पाकिस्तान के राष्ट्रपति का पद संभाला है। उनकी बेगम बेनजीर भुट्टो की हत्या हुई थी और उन्हें सुपुद-ए-खाक हुए 17 साल बीत गए हैं। 36 साल पहले 1988 में, पाकिस्तान के बाहर बहुत से लोगों ने जरदारी के बारे में सुना भी नहीं था, पर वह जल्द ही इस्लामाबाद में काबिले-गौर शख्सियत बन गए थे। उन्हीं दिनों उनकी बेगम 35 वर्षीया बेनजीर पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनी थीं।

तब प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की खूबसूरत दिखने वाली बेहद शर्मीली उस बेटी के बारे में कुछ ही लोग जानते थे, जो 1972 में अपने पिता के साथ शिमला आई थीं, जहां शिमला समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। 1972 में जब दोनों देशों के नेताओं ने समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, तब इनमें से कोई भी देश परमाणु शक्ति संपन्न नहीं था। तब जुल्फिकार अली भुट्टो और इंदिरा गांधी ने भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन आएगा, जब उनके बेटी-बेटा अपने-अपने देश में प्रधानमंत्री पद संभालेंगे और दोनों के पास परमाणु बम बनाने की क्षमता होगी।

मणिशंकर अय्यर की राजीव गांधी पर एक किताब द राजीव आई न्यू  के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है, पर मुझे इसमें संस्मरणात्मक मूल्य से अधिक जो मिला है, वह है लेखक द्वारा दिया गया विवरण, जैसे परमाणु हथियारों पर पूर्व प्रधानमंत्री के विचार और कार्य। इस मामले में राजीव गांधी अपनी मां के बेटे से ज्यादा अपने नाना के नाती थे। उनका मानना था कि परमाणु युद्ध नहीं जीता जा सकता; परमाणु युद्ध नहीं लड़ना चाहिए, लेकिन अगर पाकिस्तान व चीन के पास यह बुरी चीज है, तो क्या भारत हाथ पर हाथ धरे बैठ सकता है? भारत यह नहीं कर सकता, तो क्या उसे अपनी आंखें मूंदकर परमाणु होड़ में शामिल हो जाना चाहिए?

मणिशंकर अय्यर लिखते हैं, ‘उन्होंने एक बार मुझसे कहा था, तुम्हें पता है मणि, अगर पाकिस्तान के पास वास्तव में बम है, तो मैं भारत को परमाणु हथियारों की राह पर जाने से नहीं रोक सकता।’ एक अन्य बातचीत में राजीव गांधी ने उनसे कहा था, ‘भारत और पाकिस्तान, दोनों के पास पहले से ही परमाणु बम हैं। अय्यर हैरान थे। राजीव गांधी ने बताया था, कनाडाई लोगों ने हमें उपहार में दिया है। हमारे पास बंबई (मुंबई) में भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र रिएक्टर है और पाकिस्तानियों के पास कराची में परमाणु रिएक्टर है। हम दोनों की वाणिज्यिक राजधानियों को तबाह करने के लिए बस इतना ही पर्याप्त होगा कि दोनों में से किसी भी देश का आत्मघाती पायलट दूसरे देश के रिएक्टर को उड़ा दे।

यह बात कोई परमाणु-विरोधी कार्यकर्ता नहीं कर रहा था। वह भारत के प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू के नाती, हर तरह के युद्ध और परमाणु युद्ध को नापसंद करने वाले, मुखरता से सोचने वाले इंसान थे। वह घबराहट या मतिभ्रम में नहीं सोच रहे थे। निस्संदेह, वह एक पायलट थे; इसलिए वह जानते थे कि वह क्या कह रहे हैं। वह यह समझ रहे थे कि पायलट की सीट पर बैठा कोई आत्मघाती क्या कर सकता है? हमें यह याद रखना चाहिए कि यह कल्पना 9/11 से बहुत पहले हो गई थी।
यह विवरण पढ़ने के बाद मुझे दिवंगत प्रधानमंत्री और उनकी इस्लामाबाद यात्रा के प्रति बहुत कृतज्ञता का एहसास हुआ।

तब बेनजीर ने पदभार संभाला ही था। इस्लामाबाद की वह यात्रा दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के शिखर सम्मेलन के लिए थी। दोनों प्रधानमंत्रियों ने शिखर सम्मेलन के बाद द्विपक्षीय वार्ता के लिए कुछ घंटे निकाल लिए थे। दोनों पक्षों के बीच शांति की संभावनाओं में सुधार करने और हिंसा के जोखिमों को कम करने की दिशा में बहुत प्रगति हुई थी।

जिन मुद्दों पर त्वरित कार्रवाई शुरू हुई थी, उनमें से एक था, 31 दिसंबर, 1988 को एक-दूसरे के परमाणु ठिकानों पर हमले के निषेध संबंधी समझौते पर हस्ताक्षर। पाकिस्तान की ओर से बेनजीर भुट्टो के विदेश सचिव हुमायूं खान और भारत की ओर से राजीव गांधी के साथ गए विदेश सचिव केपीएस मेनन द्वारा हस्ताक्षरित समझौते ने दोनों पक्षों को दूसरे देश में किसी भी परमाणु प्रतिष्ठान या ठिकाने को निशाना बनाने या नुकसान पहुंचाने से परहेज करने के लिए बाध्य कर दिया। उस समझौते ने तत्कालीन प्रधानमंत्री की सोच को इरादे और कार्य में बदल दिया था। समझौते का एक जीवंत हिस्सा यह भी है कि दोनों देश हर साल 1 जनवरी को अपने परमाणु प्रतिष्ठानों और सुविधाओं की सूची का आदान-प्रदान करेंगे।

परस्पर संदेह, गोपनीयता बरतने की कोशिश और दोनों देशों के बीच की दूरियों के दौर में भी सूचियों का आदान-प्रदान पिछले 33 वर्षों से साल-दर-साल बिला नागा होता आ रहा है। इस आदान-प्रदान को राजीव गांधी, वीपी सिंह, चंद्र्रशेखर, पीवी नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की सरकारों ने भी बिना चूके अंजाम दिया है। इसी तरह, पाकिस्तान ने भी बेनजीर भुट्टो से लेकर अभी तक तमाम सियासी, कूटनीतिक उतार-चढ़ाव के बावजूद सूचियों का आदान-प्रदान बिना रुके किया है।

इस पर किसी को इतना आभारी और इतना खुश क्यों होना चाहिए? इसकी बड़ी वजह, दोनों देश यह मानते हैैं कि हमारे परमाणु ठिकानों को युद्ध की किसी भी रणनीति का हिस्सा नहीं बनना चाहिए। हमारे पास अंतिम युद्ध के लिए साधन हैं, पर हम उनका उपयोग नहीं करेंगे। बेशक, अब रणनीतिक और सभ्यतागत रूप से यह महत्वपूर्ण है कि ऐसा कोई समझौता हो, जो दोनों देशों को आत्म-संयम के लिए बाध्य करे, जो पहले इस्तेमाल न करने के समझौते से कम न हो। सूचियों का आदान-प्रदान इस ज्ञान के साथ हो कि कोई गैर-राज्य तत्व किसी के भी परमाणु ठिकाने को निशाना न बना सके। ध्यान रहे, ऐसा कोई हमला बिना युद्ध ही दोनों देशों को पंगु बना सकता है।

अब जब पाकिस्तान को अपने परमाणु ठिकानों पर नियंत्रण की एक नई व्यवस्था मिल गई है, तो यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए परमाणु आत्म-संयम की दिशा में एक नई द्विपक्षीय पहल के बारे में सोचने और प्रस्ताव करने का समय हो सकता है। यह कोशिश दुनिया को उस मंजिल के करीब ले जाएगी, जो राजीव गांधी चाहते थे- सार्वभौमिक परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए एक समयबद्ध, चरणबद्ध, सत्यापन योग्य कार्य योजना।

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