क्या बम, बंदूक और बवाल बंगाल की पहचान बन गई है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

पश्चिम बंगाल पंचायत चुनावों में हिंसा की घटनाओं से राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति पर गंभीर सवाल उठे हैं। बंगाल में राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं की सरेआम हत्या, हिंसा, आगजनी, बमबाजी की बढ़ती घटनाएं और राज्यपाल का अपमान तथा उनके आदेशों की अवमानना की खबरें आम बात हो गयी है जोकि चिंताजनक स्थिति है।

इसके अलावा, एक टीवी समाचार चैनल के स्टिंग में बंगाल में बमों के जिस कारोबार को दिखाया गया है उससे सवाल उठता है कि क्या पुलिस प्रशासन आंखें मूंदे बैठा है? यही नहीं, विभिन्न अदालतें कई बार बंगाल में राजनीतिक हिंसा की स्थिति पर चिंता जता चुकी हैं लेकिन इसके बावजूद स्थिति में सुधार नहीं आना इस आरोप को बल प्रदान करता है कि हिंसक तत्वों को सत्ता का समर्थन प्राप्त है।

पंचायत चुनाव के लिए मतदान वाले दिन बंगाल में कोई बैलेट बॉक्स लेकर भागता दिखा तो किसी ने बैलेट बॉक्स को आग के हवाले कर दिया तो किसी ने पोलिंग स्टेशन पर तोड़फोड़ की तो किसी ने दूसरे दलों के कार्यकर्ताओं से मारपीट की। कहीं बम फटे, कहीं गोली चली और खबरों के मुताबिक इस चुनावी हिंसा में अब तक राजनीतिक दलों के 15 कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। क्या यही वह शोनार बांग्ला है जिसकी कल्पना रविन्द्र नाथ टैगोर ने की थी?

क्या यही वह लोकतंत्र है जिसके लिए सुभाष चंद्र बोस ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी? पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री पद की सबसे बढ़िया उम्मीदवार बताने वाले क्या देश को बताएंगे कि आज जो बंगाल में हो रहा है क्या ऐसी ही बम और बंदूक की संस्कृति वह पूरे देश में लाना चाहते हैं? इसके अलावा, हिंसा के इस माहौल को देखकर भी अवार्ड वापसी गैंग जिस तरह चुप्पी साधे हुए है उसको देखते हुए मानवाधिकारों और अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति उनका दोगलापन एक बार फिर देश के सामने आ गया है।

पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेन्दु अधिकारी ने अगर राज्य में राष्ट्रपति शासन की मांग की है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है क्योंकि यदि निर्वाचित सरकार से हालात नहीं संभल रहे तो लोगों को यूं ही मरने और हिंसा में घायल होने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। हालिया इतिहास पर गौर करें तो यह देखने को मिलता है कि पश्चिम बंगाल में चुनावों के ऐलान के साथ ही शुरू होने वाला हिंसा का दौर परिणाम बाद तक जारी रहता है।

राज्य विधानसभा चुनावों के दौरान लगभग महीने भर जो हिंसा हुई थी उसमें पीड़ितों को आज तक न्याय नहीं मिला। विधानसभा चुनावों के दौरान हुई राजनीतिक हिंसा में भी कई लोग मारे गये थे, किसी को जला कर मारा गया था, किसी को बम से उड़ाया गया था, किसी को फंदे पर लटकाया गया था तो किसी को अन्य निर्मम तरीके से मौत के घाट उतारा गया था। यही नहीं, महिलाओं के साथ दुराचार और दुर्व्यवहार हुआ था, घरों और संपत्तियों को नुकसान पहुँचाया गया था, हालात यह हो गये थे कि बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हो गये थे। दुखद है कि आज भी उनमें से अधिकांश लोग न्याय की बाट जोह रहे हैं।

बहरहाल, बंगाल में पंचायत चुनावों का जब ऐलान हुआ उसके बाद से राज्य में हिंसा का तांडव जारी है मगर राज्य सरकार ‘ऑल इज वेल’ के दावे पर अडिग है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बात तो लोकतंत्र की करती हैं लेकिन उनके अपने राज्य में लोकतंत्र का हाल यह है कि सैंकड़ों की संख्या में विपक्षी दलों के उम्मीदवारों ने पंचायत चुनावों से अपने नाम वापस ले लिये क्योंकि नामांकन दाखिल करने के बाद से उन्हें धमकियां मिल रही थीं।

चुनाव को लोकतंत्र का उत्सव माना गया है लेकिन आज के बंगाल का सच यह है कि कोई भी चुनाव आने पर जनता के मन में अपनी सुरक्षा को लेकर डर बैठ जाता है। तृणमूल कांग्रेस ने माँ, माटी और मानुष के नाम पर वोट माँगे थे इसलिए उसे मंथन करना चाहिए कि पार्टी अपने वादे पर कितनी खरी उतरी है?

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