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क्या देश के करोड़ों लोगों के सपने हुए पूरे ? - श्रीनारद मीडिया

क्या देश के करोड़ों लोगों के सपने हुए पूरे ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

दूसरे विश्व युद्ध के बाद के वे दिन बड़े ही उथल-पुथल वाले थे। दुनिया के इतिहास के साथ ही भूगोल भी बदल रहा था। अनेक नए राष्ट्र बन रहे थे, तो कुछ टूट रहे थे। जापान, जर्मनी जैसे देश बर्बादी से उठने का प्रयास कर रहे थे। हमें भी स्वतंत्रता मिली थी। नया क्षितिज हमें बुला रहा था। अपार और असीम संभावनाओं के साथ हर देशवासी सपनों के अनंत आकाश में गोते लगा रहा था…।

आज पीछे पलट कर देखते हैं तो क्या दिखता है? छोटा सा इजरायल पूरी दुनिया से टक्कर लेने की स्थिति में है। जर्मनी और जापान ने तकनीकी के सहारे अपने आप को बुलंद और मजबूत राष्ट्र के रूप में खड़ा किया है। और हम? अभी बहुत पीछे हैं। 15 अगस्त 1947 को जब स्वतंत्रता मिली तब इस देश के करोड़ों लोगों ने बड़े-बड़े सपने देखे थे। विभाजन के बाद भी हमारे पास विशाल भू प्रदेश था। प्रकृति ने उदार भाव से साधन संपत्ति दी थी। कुशाग्र बुद्धिमत्ता के लोग थे। किसी समय विश्व का एक तिहाई व्यापार करने वाली समृद्ध विरासत हमारे पास थी। हम बहुत कुछ कर सकते थे पर नहीं कर सके। जिस ‘स्व’ की प्रेरणा के साथ देश उठ खड़ा होता है, उस ‘स्व’ की प्रेरणा ही हमारा नेतृत्व नहीं जगा पाया।

एक छोटा सा उदाहरण देता हूं। इजरायल का। 14 मई, 1948 को जब यह देश बना, तब दुनिया के सभी देशों से यहूदी वहां आये थे। अपने भारत से भी ‘बेने इजराइल’ समुदाय के हजारों लोग वहां पहुंचे। अनेक देशों से आने वाले लोगों की बोली भाषाएं भी अलग अलग थी। अब प्रश्न उठा कि देश की भाषा क्या होना चाहिए? उनकी अपनी हिब्रू भाषा तो पिछले दो हजार वर्षों से मृतवत पडी थी। बहुत कम लोग हिब्रू जानते थे। इस भाषा में साहित्य बहुत कम था। नया तो था ही नहीं। अत: किसी ने सुझाव दिया कि अंग्रेजी को देश की संपर्क भाषा बनाई जाए, पर स्वाभिमानी ज्यू इसे कैसे बर्दाश्त करते।

उन्होंने कहा, ‘हमारी हिब्रू भाषा ही इस देश के बोलचाल की राष्ट्रीय भाषा बनेगी।’ निर्णय तो लिया। लेकिन व्यावहारिक कठिनाइयां सामने थीं। इसलिए इजरायल सरकार ने हिब्रू सिखाने का मानक पाठ्यक्रम बनाया। और फिर शुरू हुआ, दुनिया का एक बड़ा भाषाई अभियान! पांच वर्ष का। इस अभियान के अंतर्गत पूरे इजरायल में जो भी हिब्रू जानते थे, वह दिन में 11 बजे से 1 बजे तक अपने निकट की शाला में जाकर हिब्रू पढ़ाने लगे।

अब इससे बच्चे तो पांच वर्षों में हिब्रू सीख जायेंगे। बड़ों का क्या होगा? इसका उत्तर भी था। शाला में पढ़ने वाले बच्चे प्रतिदिन शाम 7 से 8 बजे तक अपने माता-पिता और आस पड़ोस के बुजुर्गों को हिब्रू पढ़ाते थे। अब बच्चों ने पढ़ाने में गलती की तो? इसका उत्तर भी उनके पास था। अगस्त 1948 से मई 1953 तक प्रतिदिन हिब्रू का मानक पाठ, इजरायल के रेडियो से प्रसारित होता था।

और मात्र पांच वर्षों में (1953 में) इस अभियान के बंद होने के समय, सारा इजरायल हिब्रू के मामले में शत प्रतिशत साक्षर हो चुका था। आज ऑप्टिक्स, साइबर सिक्योरिटी और इरीगेशन के क्षेत्र में कुछ भी नया अगर पढ़नासमझना हो तो हिब्रू भाषा आना अनिवार्य है। यह होती है जीवटता, जिजीविषा और स्वाभिमान! दुर्भाग्य से हमारे अपने देश में इस प्रकार की भावना जगाने का प्रयास नहीं हुआ।

स्थान के अभाव में उन उदाहरणों को यहां नहीं दिया जा सकता जो दर्शाते हैं कि भारत को औपनिवेशिक मानसिकता से उबारने के लिए प्रभावी प्रयास ही नहीं किए गए। अब प्रयास शुरू हुए हैं। देर से ही सही लेकिन दुरुस्त दिशा में दुरुस्त कदम उठने लगे हैं। लोगों का स्वाभिमान जाग्रत किया जाने लगा है। राजकाज और समाज को तमाम योजनाओं और कार्यक्रमों द्वारा जोड़ा जा रहा है। लोगों को उनकी ताकत याद कराई जा रही है। इसका असर भी दिखने लगा है।

पिछले आठ वर्षों में भारत ने जो विकास किया है वह अद्भुत है। सामान्य व्यक्ति के मन में स्वच्छता की संकल्पना को डालकर, उसके सहयोग से भारत में स्वच्छता अभियान चलाना यह असंभव सा लगता था। किंतु आज बडे़ शहर से लेकर पंचायत तक, स्वच्छता में स्पर्धा की भावना प्रबल हुई है, जिसके बहुत अच्छे और प्रभावी परिणाम सामने आए हैं। हमारा देश धीरे-धीरे क्यूं ना हो, जग रहा है। उसमें ‘स्व’ की भावना निर्माण हो रही है। हम स्वयंपूर्ण होने की दिशा मे तेजी से बढ़ रहे हैं। सामान्य व्यक्ति के पुरुषार्थ के ऐसे अनेक उदाहरण अब सामने आ रहे हैं। स्वतंत्रता का 75वां वर्ष पूर्ण करते समय यह नया भारत, अनेक अवसरों से एवं अपेक्षाओं से भरपूर है।

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