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क्या आदिवासियों ने मोटे अनाज को विलुप्त होने से बचाया है? - श्रीनारद मीडिया

क्या आदिवासियों ने मोटे अनाज को विलुप्त होने से बचाया है?

क्या आदिवासियों ने मोटे अनाज को विलुप्त होने से बचाया है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

मोटा अनाज एक समय भारतीय समुदायों के मुख्य भोजन का हिस्सा था. गेहूं, चावल और चीनी का प्रचलन भारतीय खाद्य संस्कृति में 20वीं सदी में शुरू हुआ. हरित क्रांति ने भारतीय मैदानी क्षेत्रों में गेहूं और चावल को लोकप्रिय बना दिया. परंतु आदिवासियों ने कोदो, कुटकी, कंगुनी, सज्जा, ज्वार, सावा, मडुवा रागी, कांगु आदि को कभी नहीं छोड़ा. उन्होंने इन मिलेट्स की स्वदेशी किस्मों को संरक्षित किया. हम जानते हैं कि कैसे सफेद चावल और गेहूं ने इंसानों की खाद्य संस्कृति को बदल दिया और भारतीय महाद्वीप को मधुमेह, उच्च रक्तचाप और निम्न रक्तचाप आदि बीमारियों की ओर धकेल दिया.

मिलेट्स जल प्रतिरोधी और सूखा प्रतिरोधी भी हैं. उसके पोषण संबंधी और चिकित्सीय लाभ अनंत हैं. ये आहार फाइबर व विभिन्न प्रोटीन से समृद्ध हैं. इनमें कैल्शियम, आयरन, खनिज और विटामिन बी कॉम्प्लेक्स की उच्च सांद्रता होती है. कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कम होने के साथ यह ग्लूटेन मुक्त भी है, जो इसे टाइप 2 मधुमेह और हृदय रोगियों के लिए आदर्श बनाता है.

ये कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स पर आधारित होते हैं जो हड्डियों की मजबूती और ऊर्जा के स्तर को बढ़ा सकते हैं, वजन घटाने में सहायक हो सकते हैं, सूजन को कम कर सकते हैं और जोड़ों के दर्द से राहत दिला सकते हैं. इनका कोई दुष्प्रभाव भी नहीं होता. ये प्राकृतिक रूप से प्रतिरोधी, मधुमेह रोधी होते हैं और उच्च रक्तचाप से राहत दिलाते हैं.

यूनेस्को द्वारा 2023 को मिलेट्स वर्ष घोषित करने से यह सुर्खियों में आ गया है. भारत सरकार ने मिलेट्स को मिशन मोड में लिया है और इसकी वृद्धि के लिए कानूनी और वित्तीय मदद की घोषणा की है. मिलेट्स की खेती और कटाई से पहले व बाद की तकनीक तथा मिलेट्स का प्रसंस्करण अब आसान हो गया है. मजबूत वितरण प्रणाली ने देश के हर कोने में इसकी उपलब्धता सुनिश्चित कर दी है. आज सभी किराना दुकानों में मिलेट्स और इसके उत्पादों का एक कोना होता है.

भारत द्वारा आयोजित जी-20 बैठक में मिलेट्स को ‘श्री अन्न’ शीर्षक के साथ कार्यक्रम के मेनू में विशेष स्थान मिला. पीएम मोदी आदिवासियों और मोटे अनाजों की ताकत को पहचानने वाले अग्रदूत हैं. उन्होंने मिलेट्स की खेती और संरक्षण से जुड़ी जनजातियों और लोगों को प्रोत्साहित किया है. मध्य प्रदेश के डिंडोरी जिले के सिलपिडी गांव की आदिवासी महिला लहरी बाई को मिलेट्स को विलुप्त होने से बचाने व बीज बैंक बनाने में उनके योगदान के लिए प्रधानमंत्री ने मन की बात में प्रशंसा की और उन्हें ‘मिलेट्स रानी’ के रूप में नामित किया है.

लहरी बाई ने 150 मिलेट्स बीज प्रजातियों की पहचान की है और 2022 में 25 गांवों में 350 किसानों को बीज वितरित किये हैं. बजट में भी देश में मिलेट्स की खेती के लिए प्रावधान किया गया है. कई राज्य सरकारों ने इसकी खेती को बढ़ावा देने के लिए सकारात्मक कदम उठाये हैं. ओडिशा और आंध्र प्रदेश सरकार के पास इस क्षेत्र में उपलब्धियों की कहानियां हैं. ओडिशा सरकार ने मिलेट्स मिशन की बड़ी परियोजना बनायी है और इस पर जिलेवार काम करने के लिए विश्वविद्यालयों, अनुसंधान स्टेशनों और गैर-सरकारी संगठनों को जोड़ दिया है.

जनजातीय क्षेत्र भोजन एकत्र करने और भोजन उगाने के अपने स्वदेशी दृष्टिकोण के लिए जाने जाते हैं. पतरापुटी (जेपोर) की पद्मश्री कमला पुजारी ने ओडिशा के आदिवासियों को मिलेट्स से जुड़ने के लिए प्रेरित किया है. दौना भोई, युवा उद्यमी हैं जो मिलेट्स उगा रही हैं, वह परजा जनजाति से हैं. मिलेट्स की स्वदेशी किस्में, जैविक खेती विधि, कम वर्षा में भी मिलेट्स की विलुप्त किस्मों का संरक्षण, खेती की सामुदायिक विधि, समाज को एक एकड़ जमीन दान देकर फार्म स्कूल की स्थापना करने वाली रायमती घिउरिया को मिलेट्स का ब्रांड एंबेसडर बनाया गया है.

रायमती भूमिया जनजाति से हैं और कमला पुजारी से प्रेरित हैं. उनके गांव नुआगाड़ा में कोई भी मिलेट्स बाजार देख सकता है. उन्होंने अपनी सहयोगी महिलाओं के साथ मांडिया-रागी की 40 किस्मों को बचाया और विकसित किया है. लगभग 160 प्रकार के मिलेट्स की भी पहचान की है. कोरापुट जिला रागी की खेती, संग्रहण और उत्पादन का केंद्र बन गया है. मिलेट्स प्रसंस्करण के लिए न्यूनतम उचित मूल्य घोषित करने और मिलेट्स उपज को सरकार से खरीदने में ओडिशा सरकार के समर्थन ने ओडिशा की जनजातियों को मिलेट्स में आत्मनिर्भर बना दिया है.

दुनिया आज तेजी से विज्ञान और प्रौद्योगिकी की ओर बढ़ रही है. जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे के साथ पूरी दुनिया ऐसी फसल की ओर देख रही है जिसमें गेहूं और चावल जैसी फसलों की तरह अधिक पानी, जमीन या कीटनाशकों की आवश्यकता नहीं होती है. वैश्विक भूख के खतरे के समाधान के रूप में, जो ग्लोबल वार्मिंग के कारण तेज हो सकता है, कृषि वैज्ञानिक आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलें (जिन्हें जीएम फसल के रूप में भी जाना जाता है) विकसित कर रहे हैं. परंतु उसके भी कई दुष्प्रभाव हैं, जैसे एलर्जी, एंटीबायोटिक दवाओं की प्रभावशीलता में कमी, पाचन तंत्र में गड़बड़ी आदि. श्री अन्न के रूप में मिलेट्स इंजीनियरिंग आधारित फसल की ऐसी प्रतिकूलताओं से निपट सकता है.

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