क्या सचमुच हम विकसित हुए हैं या यह केवल एक छलावा है ?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
कभी नेनुँआ टाटी पे चढ़ के रसोई के दो महीने का इंतज़ाम कर देता था। कभी खपरैल की छत पे चढ़ी लौकी महीना भर निकाल देती थी, कभी बैसाख में दाल और भतुआ से बनाई सूखी कोहड़ौरी, सावन भादो की सब्जी का खर्चा निकाल देती थी!
वो दिन थे, जब सब्जी पे खर्चा पता तक नहीं चलता था। देशी टमाटर और मूली जाड़े के सीजन में भौकाल के साथ आते थे,लेकिन खिचड़ी आते-आते उनकी इज्जत घर जमाई जैसी हो जाती थी!
तब जीडीपी का अंकगणितीय करिश्मा नहीं था।
ये सब्जियाँ सर्वसुलभ और हर रसोई का हिस्सा थीं। लोहे की कढ़ाई में, किसी के घर रसेदार सब्जी पके तो, गाँव के डीह बाबा तक गमक जाती थी। धुंआ एक घर से निकला की नहीं, तो आग के लिए लोग चिपरि लेके दौड़ पड़ते थे संझा को रेडियो पे चौपाल और आकाशवाणी के सुलझे हुए समाचारों से दिन रुखसत लेता था!
रातें बड़ी होती थीं, दुआर पे कोई पुरनिया आल्हा छेड़ देता था तो मानों कोई सिनेमा चल गया हो।
किसान लोगो में कर्ज का फैशन नहीं था, फिर बच्चे बड़े होने लगे, बच्चियाँ भी बड़ी होने लगीं!
बच्चे सरकारी नौकरी पाते ही,अंग्रेजी इत्र लगाने लगे। बच्चियों के पापा सरकारी दामाद में नारायण का रूप देखने लगे, किसान क्रेडिट कार्ड डिमांड और ईगो का प्रसाद बन गया,इसी बीच मूँछ बेरोजगारी का सबब बनी!
बीच में मूछमुंडे इंजीनियरों का दौर आया। अब दीवाने किसान,अपनी बेटियों के लिए खेत बेचने के लिए तैयार थे, बेटी गाँव से रुखसत हुई,पापा का कान पेरने वाला रेडियो, साजन की टाटा स्काई वाली एलईडी के सामने फीका पड़ चुका था!
अब आँगन में नेनुँआ का बिया छीटकर,मड़ई पे उसकी लताएँ चढ़ाने वाली बिटिया, पिया के ढाई बीएचके की बालकनी के गमले में क्रोटॉन लगाने लगी और सब्जियाँ मंहँगी हो गईं!
बहुत पुरानी यादें ताज़ा हो गई, सच में उस समय सब्जी पर कुछ भी खर्च नहीं हो पाता था, जिसके पास नहीं होता उसका भी काम चल जाता था!
दही मट्ठा का भरमार था, सबका काम चलता था। मटर,गन्ना,गुड़ सबके लिए इफरात रहता था। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि, आपसी मनमुटाव रहते हुए भी अगाध प्रेम रहता था!
आज की छुद्र मानसिकता, दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती थी, हाय रे ऊँची शिक्षा, कहाँ तक ले आई। आज हर आदमी, एक दूसरे को शंका की निगाह से देख रहा है!
विकसित भारत का आधार
भारत को विकसित बनाने के लिए हमें पांच प्रमुख क्षेत्रों में पूरी ईमानदारी और निष्ठा से काम करने की जरूरत है। इनमें कृषि और खाद्य प्रसंस्करण, शिक्षा व स्वास्थ्य सुरक्षा, सूचना व संचार तकनीक, भरोसेमंद इलेक्ट्रॉनिक पॉवर, महत्वपूर्ण तकनीक में आत्मनिर्भरता।
ये पांचों क्षेत्र एक-दूसरे से जुड़े तो हैं ही, एक-दूसरे पर प्रभाव भी डालते हैं। इसलिए इनमें बेहतर सामंजस्य होना चाहिए। यह देश की आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी बहुत जरूरी है। इसके साथ ही हममें यह सकारात्मक सोच भी होनी चाहिए कि हम कुछ नया अविष्कार करके ही अपने देश में अच्छा बदलाव ला सकते हैं, क्योंकि विज्ञान और तकनीक से ही मानव कल्याण, शांति और खुशहाली आ सकती है। देश को पूर्ण साक्षर बनना ही होगा।
जिस दिन पूरा देश शिक्षित होगा, सारी समस्याएं खुद ब खुद समाप्त हो जाएंगी। इसलिए शिक्षा के प्रसार में पूरी ईमानदारी से सभी शिक्षकों को जुटाने की आवश्यकता है, क्योंकि शिक्षक ही वह ताकत है, जिसका सही मार्गदर्शन न मिलने से किसी का बचपन गलत राह की तरफ भटक सकता है और जिस राष्ट्र का बचपन भटक जाए, उस राष्ट्र का भविष्य भी भटक जाता है। इसलिए शिक्षकों को अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना होगा।
हमें ‘क्या लें’ की जगह ‘क्या दें’ की विचारधारा को बढ़ावा देना होगा, तभी देश में संसाधन बढ़ेंगे और गरीबी, बेरोजगारी, आतंकवाद की समस्या मिट सकेगी। हम जीवन भर जिन वृक्षों की हवा लेकर जीवित रहते हैं, उन्हें ज्यादा से ज्यादा लगाकर हमें ऑक्सीजन का कर्ज लौटाना चाहिए। क्या दें की यह विचारधारा देश की तरक्की में अहम योगदान दे सकती है।
हमारे देश के नौजवानों में दृढ़ इच्छा-शक्ति, हमेशा कुछ अलग कर गुजरने का जज्बा होना चाहिए और इसके साथ ही उन्हें शिक्षकों का उचित मार्गदर्शन भी मिलना चाहिए। तभी भारत एक विकसित और शक्तिशाली देश बन सकता है। हमारे युवकों को रेंगने की बजाय पक्षियों की तरह पंख फैलाकर खुले आसमान में उड़ने की आदत डालनी होगी। इसलिए किसी भी काम में दिक्कतों को कभी खुद पर हावी मत होने दो, बल्कि आप खुद दिक्कतों पर हावी हो जाओ, कभी असफलता नहीं मिलेगी।
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