हेमंत सोरेन अयोग्य घोषित हुए तो कुर्सी गंवाने वाले वह पहले मुख्यमंत्री होंगे

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्‍क

लाभ का पद (Office of Profit) मामले में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन (CM Hemant Soren) की कुर्सी जाना लगभग तय माना जा रहा है। ये भी अनुमान लगाया जा रहा है कि अगले कुछ वर्षों के लिए उनके चुनाव लड़ने पर भी रोक लग सकती है। लाभ का पद मामले में कुर्सी गंवाने वाले हेमंत सोरेन किसी राज्य के पहले मुख्यमंत्री होंगे। हालांकि उनसे पहले भी सोनिया गांधी समेत कई नेता इस मामले में कुर्सी गंवा चुके हैं। जानते हैं- लाभ का पद मामले में किन-किन नेताओं की गई कुर्सी और क्या है ये नियम?

खनन मामले में फंसे हेमंत सोरेन

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पास खनन मंत्रालय और उद्योग मंत्रालय का भी प्रभार है। आरोप है कि मुख्यमंत्री के साथ ही खनन मंत्रालय का भी प्रभार संभाल रहे हेमंत सोरेन ने इस दौरान खुद के नाम पर खनन का पट्टा आवंटित करा लिया। यही नहीं उन्होंने अपनी पत्नी कल्पना सोरेन के नाम भी एक औद्योगिक भूखंड का आवंटन कर दिया। विभागीय मंत्री होने के नाते ऐसा करना गलत है। यह जनप्रतिनिधित्व कानून का उल्लंघन है।

मुख्यमंत्री अथवा कैबिनेट के प्रमुख मंत्रियों के पास कई मंत्रालयों का प्रभार होना आम है। इस मामले में हेमंत सोरेन पर आरोप है कि उन्होंने मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालते हुए खुद को और अपने परिवार को लाभ पहुंचाया है। नियमतः ये गलत है। इसी वजह से ये मामला ‘लाभ का पद’ के दायरे में आ गया, जिसमें मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन बुरी तरह फंस चुके हैं।

सोनिया गांधी को भी देना पड़ा था इस्तीफा

वर्ष 2006 में केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार थी। इसी दौरान सोनिया गांधी के खिलाफ भी ‘लाभ का पद’ मामला सामने आया था। उस वक्त सोनिया गांधी रायबरेली से सांसद थीं। साथ ही वह केंद्र की यूपीए सरकार में गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष भी थीं।

सोनिया गांधी पर आरोप लगा था कि वह सांसद के तौर पर प्राप्त होने वाले सरकारी लाभ तो ले ही रहीं थीं, परिषद के अध्यक्ष को मिलने वाले सरकारी लाभ भी उन्हें मिल रहे थे। तब विपक्ष में बैठी भाजपा ने इस मुद्दे को खूब उछाला। नतीजतन सोनिया गांधी को अपनी संसद सदस्यता से इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद वह दोबारा रायबरेली से उपचुनाव लड़ीं और जीत हासिल की।

जया बच्चन को भी देना पड़ा था इस्तीफा

अभिनेत्री से राजनेता बनीं जया बच्चन पर भी वर्ष 2006 में ‘लाभ का पद’ रखने का आरोप लगा था। तब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी, जिसके मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव थे। जय बच्चन तब सपा की राज्यसभा सांसद थीं। साथ ही राज्य सरकार ने उन्हें उत्तर प्रदेश फिल्म विकास निगम का चेयरमैन भी बना दिया था। ये पद ‘लाभ का पद’ के दायरे में था। चुनाव आयोग ने इस मामले में जया बच्चन को अयोग्य घोषित कर दिया था। राज्यसभा सदस्यता बचाने के लिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन उन्हें राहत नहीं मिली। लिहाजा उन्हें राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देना पड़ा था।

यूपी के दो विधायकों की गई थी सदस्यता

वर्ष 2015 में उत्तर प्रदेश के दो विधायकों को लाभ का पद मामले में अपनी सदस्यता से हाथ धोना पड़ा था। इसमें भाजपा के बजरंग बहादुर सिंह और बसपा के उमा शंकर सिंह का नाम शामिल था।

पंजाब सरकार ने बदल दिया था कानून

जून 2018 में कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व वाली पंजाब की कांग्रेस सरकार ने ‘लाभ का पद’ कानून में कई बदलाव किए थे। इसके तहत ऐसे कई पदों को ‘लाभ का पद’ के दायरे से बाहर कर दिया गया था, जिस पर सरकार अपने विधायकों को बैठाना चाहती थी। दरअसल मार्च 2017 में अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री समेत केवल 18 विधायकों को ही मंत्रिमंडल में स्थान मिल सका।

इससे बाकी 60 विधायकों में काफी नाराजगी थी। इसे दूर करने के लिए सरकार ने ये रास्ता निकाला था। आम तौर पर सरकारें अपने विधायकों अथवा सांसदों को लाभांवित करने या जिम्मेदार पदों पर बैठाने के लिए वक्त-वक्त पर ‘लाभ का पद’ कानून में इस तरह के बदलाव करती रहती हैं।

लाभ का पद मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश

लाभ का पद मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि कोई सांसद अथवा विधायक अपने पास ‘लाभ का पद’ नहीं रख सकता है। अगर वह ऐसा करता है, तो उसे अयोग्य घोषित करते हुए, उसकी सदस्यता खत्म कर दी जाएगी। अगर संबंधित सांसद अथवा विधायक, ‘लाभ का पद’ वाले भत्ते और वेतन आदि न ले रहा हो तो भी उसे अयोग्य ही माना जाएगा।

क्या होता है लाभ का पद

संविधान के अनुच्छेद 102 (1A) के तहत लाभ के पद को परिभाषित किया गया है। इसके तहत कोई सांसद अथवा विधायक, ऐसे किसी पद पर नहीं रह सकता है जहां वेतन या भत्ते समेत अन्य कोई लाभ मिलते हों। सांसदों और विधायकों को लाभ के अन्य पद लेने से रोकने के लिए संविधान के अनुच्छेद 191 (1A) और जनप्रतिनिधि कानून की धारा 9A के तहत भी प्रावधान हैं।

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