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राष्ट्र को जोड़ने की एक महत्वपूर्ण कड़ी है हिंदी

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हिंदी ने सभी भाषाओं का किया है सम्मान

हिंदी दिवस पर विशेष

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हिन्दी दिवस या राष्ट्रीय हिन्दी दिवस हर साल 14 सितंबर को मनाया जाता है। इसी दिन साल1949 में 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी। इसी दिन को चिह्नित करने के लिए हर साल 14 सितंबर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाने का फैसला किया था।

हिन्दी दिवस के अलावा विश्व हिन्दी दिवस हर साल 10 जनवरी को मनाया जाता है। यह दिन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में मनाया जाता है, जिसमें 30 देशों के 122 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। सम्मेलन का उद्देश्य दुनिया भर में हिंदी भाषा को बढ़ावा देना था। विश्व हिंदी दिवस पहली बार 2006 में पूर्व प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा दुनिया भर में हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मनाया गया था

हिंदी को इसका नाम फारसी शब्द हिंद से मिला है, जिसका अर्थ है ‘सिंधु नदी की भूमि’। 11वीं शताब्दी की शुरुआत में तुर्की के आक्रमणकारियों ने क्षेत्र की भाषा को हिंदी यानी, ‘सिंधु नदी की भूमि की भाषा’ नाम दिया। यह भारत की आधिकारिक भाषा है, वहीं, अंग्रेजी दूसरी आधिकारिक भाषा है। भारत के बाहर कुछ देशों में भी हिंदी बोली जाती है, जैसे मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो और नेपाल में। हिन्दी अपने वर्तमान स्वरूप में विभिन्न अवस्थाओं के माध्यम से उभरी, जिसके दौरान इसे अन्य नामों से जाना जाता था।

यह प्रश्न है कि भारत की राष्ट्रभाषा क्या है? विचारणीय है कि हमने राष्ट्रपिता घोषित कर दिया, राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रगान, राष्ट्रीय पशु, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय पुष्प भी तय कर लिया, परंतु अभी तक राष्ट्रभाषा नहीं बना पाए? मुझे लगता है कि अब हमें हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर देना चाहिए। प्रश्न उठ सकता है कि आखिर हिंदी को ही राष्ट्रभाषा क्यों बनाया जाना चाहिए? किसी और भारतीय भाषा को क्यों नहीं? तो इसका उत्तर यह है कि हिंदी इसलिए, क्योंकि देश में हिंदी सबसे अधिक बोली और समझी जाती है। संस्कृत की बेटी कही जाने वाली हिंदी सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है जो तकनीक की चुनौतियों पर भी खरी उतरती है।

देश हित से संबंधित जितने बड़े आंदोलन हुए, उन्हें हिंदी ने निर्णायक बनाया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आजादी की लड़ाई में गैर हिंदी भाषियों ने भी आंदोलन को गति देने के लिए हिंदी को आगे रखा। यही नहीं ‘सुजलाम सुफलाम मलयज शीतलाम’ गीत भी कुछ बांग्ला मिश्रित शब्दों के साथ हिंदी में गूंजा। आज विश्व भर में हिंदी की गूंज है। आंकड़े गवाह हैं कि विश्व में बोली जाने भाषाओं में हिंदी तीसरे नंबर की बड़ी भाषा है। इतना ही नहीं, विश्व के लगभग 160 देशों में हिंदी बोली जाती है। विश्व में एक अरब 30 करोड़ से अधिक लोग हिंदी बोलते हैं, जबकि अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या इससे बहुत कम है।

इंटरनेट की बात करें तो आज हिंदी में इस प्लेटफार्म पर व्यापक सामग्री उपलब्ध है। इतना ही नहीं, इंटरनेट मीडिया पर हिंदी में लिखने-पढ़ने वालों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है। यह सही है कि विपुल साहित्य की धनी हिंदी को देश में राजभाषा की संवैधानिक मान्यता पहले ही दी जा चुकी है। विश्व हिंदी सम्मेलनों में हर बार हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने की मांग उठती रही है। ऐसे में यह विचारणीय है कि जब ‘जन गण मन अधिनायक… भारत भाग्य विधाता’ को ‘राष्ट्रगान’ स्वीकार किया जा सकता है तो हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ क्यों नहीं?

हम जानते हैं कि संस्कृति किसी भी समाज और राष्ट्र की धरोहर तथा पहचान होती है। हमें गर्व है कि हम एक ऐसे भारत के नागरिक हैं, जिसमें बहुत सारी संस्कृतियां एक साथ हैं। हमारी एक सामासिक संस्कृति है। सभी संस्कृतियां एक सूत्र में बंध कर ‘भारतीय संस्कृति’ का निर्माण करती हैं। संस्कृति ही जन सामान्य में संस्कार और परंपराओं का संवहन करती है। हमें सभी भारतीय भाषाओं का सम्मान करते हुए यह भी प्रसन्नता के साथ स्वीकार करना चाहिए कि आज पूरे देश की सांस्कृतिक भाषा के रूप में हिंदी का प्रचलन है। एक भाषा के रूप में हिंदी न केवल भारत की पहचान है, बल्कि यह हमारे जीवन मूल्यों, संस्कृति और संस्कारों की संवाहक, संप्रेषक तथा परिचायक भी है।

यह भाषा हमारे पारंपरिक ज्ञान, प्राचीन सभ्यता और आधुनिक प्रगति के बीच सेतु की तरह है। बहुत सरल, सहज और सुगम भाषा होने के साथ ही हिंदी विश्व की संभवतः सबसे वैज्ञानिक भाषा है। ऐसा अनेक भाषा विज्ञानियों का मत है। हिंदी भले ही अब तक राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई हो, लेकिन सदियों पहले से ही यह देश की संपर्क भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है।

भले ही राजकीय प्रशासन के स्तर पर कभी संस्कृत, कभी फारसी और अंग्रेजी की मान्यता रही, लेकिन पूरे राष्ट्र के जन-समुदाय के आपसी संपर्क, संवाद-संचार, विचार-विमर्श, सांस्कृतिक सोच और जीवन-व्यवहार का माध्यम हिंदी ही बनी रही। भारतीय जनमानस से जुड़ने और अपनेपन का भाव प्रदर्शित करने के लिए इस्लामी शासकों ने भी हिंदी और उर्दू की मिलीजुली भाषा की जरूरत महसूस की। तब एक ऐसी भाषा विकसित हुई, जिसे हिंदुस्तानी कहा गया।

जनभाषा बनी हिंदी

हम सभी जानते हैं कि मध्यकाल में हुए भक्ति आंदोलन ने राष्ट्रव्यापी असर डाला, जिसके प्रभाव से हिंदी भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक जनभाषा बन गई। कुछ समय बाद जब अंग्रेजों ने भारत पर अधिकार कर लिया, तब उनको आधुनिक काल में समूचे भारत में जिस भाषा का सबसे ज्यादा प्रचार, प्रसार और प्रभाव दिखाई दिया, वह हिंदी ही थी, जिसे वे लोग भी हिंदुस्तानी कहते थे। हिंदी को जानने, समझने और बोलने वाले भारत के कोने-कोने में फैले हुए हैं। ये लोग चाहे हिंदी न जानते हों, व्याकरण की भूल करते हों, अशुद्ध हिंदी बोलते हों, लेकिन बोलते हिंदी ही हैं। वे हिंदी को अपनी भाषा मानते हैं। वास्तव में हिंदी की यह समावेशी और सर्वग्राही प्रकृति ही देश की एकता की परिचायक है और इस प्रकृति ने ही उसे अखिल भारतीय रूप दिया है।
 भाषा

जब हम एक भाषा के बारे में बात कर रहे हैं तो हमें यह भी जानना चाहिए कि भाषा होती क्या है। और इसकी आवश्यकता व महत्त्व क्या है। भाषा एक निरंतर चलती रहने वाली सामाजिक क्रिया है। इसीलिए भाषा को बहता नीर कहा गया है। इसे किसी व्यक्ति ने नहीं बनाया, बल्कि इसका सृजन सामूहिक चेतना द्वारा समाज करता है। वह समाज सापेक्ष होती है। उसकी धारा निरंतर बहती चलती रहती है। भाषा के माध्यम से ही साहित्य अभिव्यक्ति पाता है।

किसी भी भाषा के बोलनेवालों, जन समुदाय के रहन-सहन, आचार-विचार आदि का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने वाला उस भाषा का साहित्य ही होता है। भाषा न केवल साहित्य सृजन के लिए होती है, बल्कि अन्य विषयों की जानकारी के लिए भी माध्यम का काम करती है। इसीलिए भाषा मनुष्य के लिए एक अनोखा वरदान है। भाषा के बिना मनुष्य के समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सभ्यता-संस्कृति के विकास के लिए भाषा की भूमिका महत्वपूर्ण है।

 राजभाषा

भारत की संविधान सभा द्वारा 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार कर लेने से उसके प्रयोग का रास्ता विस्तृत हो गया। कोई भी भाषा जितने विषयों में प्रयोग में लाई जाती है, उसके उतने ही अलग-अलग रूप भी विकसित होते जाते हैं। हिंदी के साथ भी यही हुआ। हमारे संविधान में हिंदी को राजभाषा स्वीकार किए जाने के साथ हिंदी का परंपरागत अर्थ, स्वरूप, व्यवहार व्यापक हो गया। हिंदी के जिस रूप को राजभाषा स्वीकार किया गया है, वह असल में खड़ी बोली हिंदी का परिनिष्ठित रूप है। देश को स्वतंत्रता मिलने से लेकर अब तक हिंदी ने कई उपलब्धियां हासिल की हैं।

तकनीक और भाषा

भाषा का विकास उसके साहित्य पर निर्भर करता है। आज के तकनीकी युग में विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में भी हिंदी में काम को बढ़ावा दिया जा रहा है, ताकि देश की प्रगति में ग्रामीण जनसंख्या सहित सबकी भागीदारी सुनिश्चित हो सके। इसके लिए अनिवार्य है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में तकनीकी ज्ञान से संबंधित साहित्य का सरल अनुवाद किया जाए। इसके लिए राजभाषा विभाग और तकनीकी शब्दावली आयोग ने सरल हिंदी शब्दावली तैयार की है। राष्ट्रीय ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन योजना द्वारा हिंदी में ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों के लेखन को बढ़ावा दिया जा रहा है। शैक्षणिक हिंदी का वास्तविक अंतरराष्ट्रीय प्रसार यूरोप, अमेरिका और एशिया के अनेक देशों में भी हो रहा है। पश्चिमी और पूर्वी यूरोप में मिलाकर कम से कम एक दर्जन देशों में तीन दर्जन विश्वविद्यालय और संस्थानों में हिंदी शिक्षण की व्यवस्था है। कनाडा और अमेरिका के अनेक विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन और रूसी में हिंदी की अनेक कृतियों के अनुवाद हुए हैं। भारत में हिंदी को लेकर भले ही लोगों के अलग-अलग विचार हों, लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारत में सबसे अधिक हिंदी भाषा बोली जाती है।

आज दुनिया के कई देश हैं, जहां हिंदी को प्रतिष्ठा प्राप्त है। फिजी में हिंदी को सरकारी भाषा का दर्जा दिया गया है। इसे फिजियन हिंदी कहते हैं। इसी तरह मारीशस की यह प्रमुख भाषा है। त्रिनिदाद-टोबैगो में भी हिंदी चलती है। नेपाल की सरकारी भाषा तो नेपाली है, पर वहां मैथिली, भोजपुरी और हिंदी भी बोली जाती है। त्रिनिदाद और टोबैगो में अंग्रेजी आधिकारिक भाषा है, लेकिन वहां पर स्पेनिश, फ्रेंच, हिंदी और भोजपुरी भी बोली जाती है। इसी तरह सिंगापुर में मलय और अंग्रेजी वहां की आधिकारिक भाषाएं हैं, लेकिन वहां तमिल और मंडारिन के साथ हिंदी भी बोली जाती है।

दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजी और अफ्रीकी वहां की सरकारी भाषाएं हैं, लेकिन वहां भी अन्य कई क्षेत्रीय भाषाओं के साथ हिंदी भी बोली जाती है। इंटरनेट मीडिया के आने से हिंदी को नई पहचान मिली है। अब युवा भी हिंदी में अपनी बात रखने लगे है । नई शिक्षा नीति में हिंदी को मूल्यवान अधिमान मिलने में आने वाली अड़चनों को दूर करने के लिए केंद्र सरकार कुछ ठोस संकल्पों एवं अनूठे प्रयोगों द्वारा प्रतिबद्ध दिख रही है। यह एक अच्छी बात है। भाषा वही जीवित रहती है जिसमें संभावनाएं होती हैं और जिसका प्रयोग जनता व्यापक स्तर पर करती है। सौभाग्य से हिंदी में ऐसे सभी आवश्यक और अपेक्षित गुण मौजूद हैं।

हिंदी ने सभी भाषाओं का किया है सम्मान

हिंदी के प्रति इस भाषा के विद्वान आग्रही हैं। उनका मानना है कि हिंदी ही एक मात्र वह भाषा है, जिसने सभी भाषाओं का सम्मान किया है। सभी को आत्मसात किया है। गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. अनंत मिश्र का मनाना है कि हिंदी की सबसे बड़ी खासियत उसकी ग्रहणशीलता है। अपनी समृद्धि के लिए इसने हर भाषा के लोकप्रिय शब्दों को आत्मसात किया है। हिंदी का लचीलापन ही इसे देश माथे की हिंदी बनाए हुए हैं।

हिन्दी दिवस हर साल 14 सितंबर को मनाया जाता है। यह दिन विशेष महत्व रखता है क्योंकि वर्ष 1949 में इसी दिन संविधान सभा ने हिंदी को एक आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाया था। तारीख को स्वतंत्र भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने चुना था। दिलचस्प बात यह है कि हिंदी एक फारसी शब्द है और भाषा की पहली कविता अमीर खुसरो, जो एक प्रसिद्ध कवि हैं उनके द्वारा लिखी गई थी। फारसी में हिंदी शब्द का अर्थ मोटे तौर पर ‘सिंधु नदी की भूमि’ है। हिन्दी भाषा मंडेरिन, स्पेनिश और अंग्रेजी के बाद दुनिया में चौथी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है।

राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के सुझाव पर हिंदी को समर्पित दिवस पहली बार 1953 में मनाया गया था। दिन को चिह्नित करने के पीछे का कारण भाषा के महत्व को बढ़ाना था। हिंदी दिवस राजेंद्र सिंह की जयंती भी है। वह एक भारतीय विद्वान, हिंदी-प्रतिष्ठित, संस्कृतिविद्, रामायण-अधिकार, और एक इतिहासकार थे। इसके अलावा, हिंदी को भारत की आधिकारिक भाषा बनाने में उनकी भूमिका भी बहुत बड़ी थी।

हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का विचार पहली बार 1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के दौरान महात्मा गांधी द्वारा लाया गया था। भारत का संविधान अनुच्छेद 343 के तहत हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता देता है।

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पहले ऐसे नेता थे, जिन्होंने 1977 में वैश्विक स्तर पर हिंदी में एक अंतरराष्ट्रीय दर्शकों को संबोधित किया था। उस वक्त वे विदेश मंत्री थे। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण दिया था।

आपसी संवाद की इस भाषा को विवाद का विषय मत बनाइए

हिंदी का जिस तेजी से प्रसार हो रहा है, उससे स्पष्ट है कि हिंदी भारत की प्राण भाषा है।
इतिहास साक्षी है कि भारतीय भाषाओं के सहयोग-समर्थन से हिंदी की परंपरा पनपी है और हिंदी का छोटा बिरवा आज वटवृक्ष बन चुका है। ऐसा वटवृक्ष जिसके तले सभी भारतीय भाषाओं के पूर्ण विकास और प्रस्फुटन की संभावनाएं हैं।

प्रो. राम मोहन पाठक : आधुनिक भारत के राष्ट्र निर्माताओं ने हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया। संविधान सभा में लंबे विमर्श के बाद हिंदी को यह दर्जा मिला। 20 से अधिक सदस्यों ने हिंदी के पक्ष-विपक्ष में तर्क दिए, लेकिन अंत में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के एकमात्र वोट से हिंदी को राजभाषा बनाने पर सभा ने अपनी मुहर लगाई। इस प्रक्रिया में अनेक प्रश्न उठे थे, परंतु 12 से 14 सितंबर, 1949 के बीच उनके समाधान के जो प्रयास 73 साल पहले प्रारंभ हुए, वे अब लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं।

संविधान द्वारा घोषित राजभाषा हिंदी की विकास यात्रा यूं तो लक्ष्योन्मुखी रही है, लेकिन उसके राष्ट्रव्यापी प्रसार की राह में चुनौतियां अब भी कायम हैं। कारण यही कि अंग्रेज गए, पर अंग्रेजीयत नहीं गई। अंग्रेजी के इस जंजाल के चलते राजकाज में सौ प्रतिशत हिंदी प्रयोग का लक्ष्य अभी दूर जरूर है, परंतु असंभव नहीं। इसी क्रम में 73 साल बाद पहली बार राजधानी दिल्ली से बाहर गुजरात के सूरत में 14-15 सितंबर को आयोजित होने वाला हिंदी दिवस समारोह एक नया अध्याय लिखने का प्रयास है।

हिंदी की प्रगति, चुनौतियों, संकट और भविष्य को लेकर साहित्यकार-संपादक डा. धर्मवीर की यह टिप्पणी उल्लेखनीय है कि, ‘किसी भाषा की प्रतिष्ठा केवल इसलिए नहीं होती कि वह व्याकरण, लिपि, साहित्य-संपदा, दृष्टि से कितनी संपन्न है, न ही इस आधार पर कि वह कितने लोगों द्वारा बोली जाती है। उसकी प्रतिष्ठा मूलतः इस आधार पर होती है कि जिनकी वह भाषा है, जो उसे बोलते हैं, उनमें तनकर खड़े हो सकने की रीढ़ है या नहीं? आज हिंदी का संकट यही है कि हिंदीभाषी जन रागात्मक निष्ठा के सांस्कृतिक स्तर पर भाषा से कटा हुआ है!’ ये विचार आज भी प्रासंगिक हैं,

मगर वर्तमान युग हिंदी के प्रयोग का स्वर्णिम युग है। विपुल शब्द भंडार, साहित्य भंडार, तकनीक के पंखों पर हिंदी की ऊंची वैश्विक उड़ान और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शीर्ष नेताओं ने विश्व मंचों के साथ ही बहुभाषा-भाषी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी का जो परचम फहराया, वह भारत और हिंदी प्रेमियों के लिए गर्व और गौरव का विषय है।

इतिहास साक्षी है कि भारतीय भाषाओं के सहयोग-समर्थन से हिंदी की परंपरा पनपी है और हिंदी का छोटा बिरवा आज वटवृक्ष बन चुका है। ऐसा वटवृक्ष जिसके तले सभी भारतीय भाषाओं के पूर्ण विकास और प्रस्फुटन की संभावनाएं हैं। इस बार अखिल भारतीय सम्मेलन सूरत में हो रहा है। गुजराती और हिंदी के अंतर्संबंध अत्यंत प्रगाढ़ रहे हैं। महात्मा गांधी मूलतः गुजराती थे। भाषा द्वारा जोड़ने की शक्ति से भलीभांति अवगत थे।

तभी विविधता की थाती वाले भारत देश को एक सूत्र में पिरोने के लिए उन्होंने हिंदुस्तानी-हिंदी को महत्व दिया। दक्षिण में हिंदी के प्रथम प्रचारक के रूप में अपने पुत्र देवदास गांधी को स्वयं द्वारा स्थापित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में भेजा। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा और काशी विद्यापीठ, वाराणसी की स्थापना के साथ ही गांधी जी की भाषा-वैचारिकी को व्यावहारिक रूप देने के लिए कई संस्थाएं स्थापित हुईं, जो आज भी सक्रिय हैं।

वास्तव में गुजरात के समर्पित हिंदीसेवियों की एक लंबी परंपरा रही है। काका कालेलकर के नाम से विख्यात मूलतः मराठी भाषी और गुजराती विद्वान दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर प्रतिबद्ध हिंदीसेवी थे। गांधी जी के सिद्धांतों को समर्पित काका कालेलकर ने गुजराती पत्र ‘नवजीवन’ का संपादन किया। काका साहब मराठी थे, किंतु गांधी जी की प्रेरणा से उन्होंने सबसे पहले गुजराती एवं हिंदी सीखी और फिर कई वर्षों तक दक्षिण में राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रचार किया। इसी प्रकार मूल रूप से गुजराती सरदार पटेल भी हिंदी के हिमायती थे। उन्होंने दक्षिण भारतीयों से हिंदी सीखने की मार्मिक अपील करते हुए कहा था, ‘हमारा संकल्प हिंदी को राजभाषा बनाने का होना चाहिए। राष्ट्रीय एकता के लिए एक भाषा आवश्यक है और अंग्रेजी की जगह हिंदी लाने का संकल्प शीघ्र लागू किया जाए।’

गुजरात के स्वामी दयानंद सरस्वती की हिंदी सेवा ऐतिहासिक है। उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ और अन्य पुस्तकें हिंदी में लिखकर हिंदी की सेवा की। विश्वविभूति विदेह जैसे विद्वानों की भी गुजरात में हिंदी सेवा ऐतिहासिक तथा अविस्मरणीय है। वास्तव में हिंदी को अनेक हिंदीतर भाषी हिंदी-सेवियों ने सींचा है। कवि सुब्रह्ममण्य भारती, एम. सत्यनारायण राव, टीएसके कण्णन, बालशौरि रेड्डी, राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, स्वामी दयानंद, स्वामी श्रद्धानंद, महात्मा हंसराज, एनी बेसेंट, सी. राजगोपालाचारी, विनायक दामोदर सावरकर, बाबूराव विष्णु पराड़कर और रंगनाथ रामचंद्र दिवाकर आदि दिग्गजों और उनके अवदान की एक लंबी सूची है।

मोरारजी देसाई का कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में हिंदी संबंधी प्रस्ताव और गुजरात, महाराष्ट्र के स्कूलों में हिंदी पढ़ाए जाने के सूत्रधार के रूप में उनकी भूमिका ऐतिहासिक रही। सुभाषचंद्र बोस ने कहा था, ‘वह दिन दूर नहीं जब भारत स्वाधीन होगा और उसकी राष्ट्रभाषा होगी हिंदी।’ सयाजी राव गायकवाड़ (गुजरात) तथा हरेकृष्ण महताब (ओडिशा) की भी हिंदी सेवा स्मरणीय है। केवल भारतीयों ने ही नहीं, बल्कि विदेशियों ने भी हिंदी की भरपूर सेवा की। ऐसे ही एक बेल्जियम के ईसाई विद्वान फादर कामिल बुल्के थे। वह हिंदी और संस्कृत के साथ तुलसी साहित्य के अनन्य साधक थे। उनका यह वक्तव्य आज भी प्रासंगिक है कि, ‘संस्कृत भाषाओं की ‘महारानी’, हिंदी ‘बहूरानी’ तथा अंग्रेजी ‘नौकरानी’ है।

बहरहाल, आज दक्षिण भारत सहित संपूर्ण देश में हिंदी का जिस तेजी से प्रसार हो रहा है, उसे गति प्रदान करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय राजभाषा सम्मेलन की महत्वपूर्ण एवं सकारात्मक भूमिका होगी। यह भी सिद्ध हो चुका है कि अंग्रेजों द्वारा अंग्रेजी हम पर थोपी गई थी। हिंदी तो भारत की प्राण भाषा है। इसे थोपे जाने का विवाद व्यर्थ है। संपूर्ण देश में अब राजभाषा हिंदी से जुड़े प्रश्नों का संवैधानिक समाधान हो चुका है। इसलिए आम जन की यह धारणा है कि आपसी संवाद की भाषा हिंदी को विवाद का विषय मत बनाइए।

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