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राष्ट्रीय स्व बोध की भाषा हिंदी - श्रीनारद मीडिया

राष्ट्रीय स्व बोध की भाषा हिंदी

राष्ट्रीय स्व बोध की भाषा हिंदी

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श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्‍क:

हिंदी देश की संस्कृति की धारक एवं संवाहक है।

हिंदी अनुवाद नहीं संवाद की भाषा है।

“बढ़ने दो उसे सदा आगे,
हिंदी जनमन की गंगा है,
यह माध्यम उस स्वाधीन देश का,
जिसकी ध्वजा तिरंगा है।”
गोपाल सिंह नेपाली

प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस का उत्सव आयोजित कर हम सभी भारतवासी राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग की शपथ लेते हैं। संविधान सभा में भारत की भाषा क्या हो, इसे लेकर काफी विमर्श हुआ, अंतत यह तय हुआ की हिंदी राजभाषा होगी। इसकी घोषणा 14 सितंबर 1949 को की गई। हम सभी 14 सितंबर 1953 से हिंदी दिवस का समारोह एक पखवाड़े तक अपने कार्यालयों, विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में आयोजन करते आ रहे हैं।

हिंदी राजभाषा है, राष्ट्रभाषा नहीं।

प्रत्येक वर्ष की भांति इस बार भी हिंदी सज धज कर अपना दिवस मना रही है। भूमंडलीकरण एवं बाजारवाद ने हिंदी को प्रभावित किया है लेकिन यह अभिव्यक्ति का माध्यम बनी हुई है। संस्कृत की वाहिका एवं हमारे संस्कृति की यह संचालिका है। जब हम औपचारिक परिधि से निकलकर एक दूसरे से संपर्क करते हैं तो इसकी अठारह बोलियों का प्रयोग करते हैं, इससे हमारे बीच आत्मीयता बढ़ती है। भाषा जनमानस की होती है। यह समय के साथ बढ़ती,टूटती, घिसती एवं परिवर्तित होती रहती है। सरकारी प्रयासों से इसे संवर्धित करने का प्रयास अवश्य किया जाता है परंतु हिंदी को इस बात की कसक है कि मुझे राष्ट्रभाषा का स्तर (दर्जा )प्राप्त नहीं है। यह अजीब विडंबना है की स्वतंत्रता के पहले हिंदी राष्ट्रभाषा थी परंतु स्वतंत्रता के बाद यह राजभाषा हो गई।

विविधता के नाम पर हिंदी की अवहेलना

भारत देश को बहुरंगी, विविधतापूर्ण मानकर इसके बहुभाषी चरित्र को प्रस्तुत किया जाता है। सहमति एवं समन्वय नहीं बन पाने के कारण हिंदी औपचारिक भाषा का स्थान नहीं ले पाई है। आर्य एवं द्रविड़ भाषा के विवाद में इस दरार को खाई में बदल दिया, इसके परिणाम स्वरुप अंग्रेजी राज कर रही है। कहा जाता है कि देश की उच्च सेवाओं के लिए हिंदी उपयुक्त नहीं है क्योंकि इसमें भावुकता का पुट है। हम किसी भी विषय को प्रस्तुत करते समय जजमेंटल (निर्णायक भूमिका में) हो जाते है, जबकि यह अंग्रेजी के साथ नहीं है वह बड़े पेशेवर पहलू के साथ प्रस्तुत होती है और विश्व भाषा के रूप में अपना स्थान सुरक्षित कर रखा है।

बाजारवाद के काल में हिंदी।

पूरा विश्व भूमंडलीकरण के गिरफ्त में है। व्यापार एवं बाजार हेतु राष्ट्रों की सीमाएं खोल दी गई है। एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्र पर परस्पर निर्भरता है। पूरा समाज कृषिका से औद्योगिका की तरफ तेजी से बढ़ता जा रहा है। सेवाओं के क्षेत्र में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। इसमें प्रौद्योगिकी एवं तकनीक ने अपनी महती भूमिका का निर्वहन किया है। ऐसे में बड़ी एवं सुदृढ अर्थव्यवस्था की भाषा पूरे विश्व की भाषा बन जाती है, जो अंग्रेजी में दिखाई देती है। ब्रिटेन द्वारा औपनिवेशिक काल में शासित देश में इस भाषा ने औपचारिक रूप से अपनी गहरी पैठ बना ली। भारत जैसे देशों में अंग्रेजी औपचारिक कामकाज की भाषा, न्यायालय की भाषा,उच्च सेवाओं की भाषा एवं सेतु भाषा के रूप में प्रयोग होती है। परन्तु हिंदी यह तर्क देती है कि चीन की मंडायरिन, जापान की जापानी, रूस की रूसी, फ्रांस की फ्रांसीसी, स्पेन की स्पेनिश, इज़रायल की हिब्रू और कोरिया की कोरियन भाषा ने अपने देश की वृद्धि एवं प्रगति में अभूतपूर्व सहयोग दिया है।

अपनी भाषा को महत्व क्यों?

अपनी भाषा को हमसभी मातृभाषा के रूप में जानते हैं, जो हमें हमारी माता से आती है। जिसमें हमारी सभ्यता, संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज होते है। भाषा हमारी अभिव्यक्ति को परिलक्षित करते हुए हमें संबलता प्रदान करती है। यह गांव के बथान से लेकर विश्व स्तरीय सूचना व सम्प्रेषण में हमारी समझ को बढ़ाती है। जिस समाज की अपनी बोली-बानी भाषा नहीं होती उसकी अपनी कोई संस्कृति भी नहीं होती। भाषा के अंदर वाक्य एवं उसके शब्द हमारी अवधारणा एवं मर्म को स्पष्ट करते हमारे मस्तिष्क एवं हृदय को संदेश संप्रेषित करते है कि आपके संवाद, आपकी समझ लोक कल्याणकारी है, जिम्मेदारी भरी हुई है, आपके भीतर सहिष्णुता का पुट है, आपमें मनुष्य होने की अभिव्यक्ति है।

भाषा हमें अपने प्रकृति एवं पर्यावरण से अटूट रूप से जोड़कर रखती है। वह हमारे भीतर दया, करुणा, आकांक्षा, अनुशासन, अभिनव, अभिवृति, स्पष्टता एवं अभिरुचि का संदेश देती है। हिंदी केवल कुछेक एक घंटे का सेमिनार एवं समारोह नहीं है और ना ही अगले दिन अखबारों के पृष्ठों पर छपे समाचार है, वरन यह दिवस हमें निरंतर अपनी भाषा पर गर्व करने, अपनी अभिव्यक्ति को स्पष्ट करने का संदेश देती है। हमें अपने भाषा पर गर्व करते हुए उसका प्रयोग नहीं सर्वाधिक प्रयोग करते हुए उसे सजाने एवं संवारने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए।

भाषा हेतु सरकारी एवं हमारा प्रयास।

संविधान के भाग-5, 6 और 17 में एवं अनुच्छेद 343 से 351 तक में हिंदी विस्तृत रूप से उद्धृत है। उत्तर भारत के सभी राज्यों में हिंदी का प्रयोग सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर होता है। केन्द्र सरकार की केंद्रीय हिंदी निदेशालय एवं गृह मंत्रालय का हिंदी विभाग निरंतर हिंदी को बढ़ाने और इसके प्रचार- प्रसार में लगा रहता है। हिंदी के विरोध वाले राज्यों में सहमति बनाने एवं हिंदी को नहीं थोपने वाली बात होती रहती है। भाषा पर राजनीति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि हमें ज्ञात होना चाहिए कि दक्षिण के महानुभाव गोपाल स्वामी आयंगर के कारण ही हिंदी को राजभाषा का स्तर प्राप्त हुआ था।

हिंदी आत्मसात की भाषा होते हुए समन्वय की बोली है। हिंदी बोलने- समझने वाले व्यक्ति का दायित्व है कि वह अन्य भाषाओं का सम्मान करें, उसके गरिमा को अक्षुण रखने का प्रयास करें और अंततः बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के अनुसार “अगर आपके पास मातृभाषा है तो आपके पास सांस्कृतिक विरासत भी होती है, जिसका अपना अतीत, भविष्य और वर्तमान होता है।”

हिंदी की ऐतिहासिक यात्रा।

देश के निर्धारण में भाषा पहला आधार होता है। राष्ट्र की तीव्र गति से विकास एवं प्रशासनिक व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण हेतु भाषा आवश्यक तत्व है।

सन 1500 से 1835 तक इस देश की भाषा फारसी रही। 1835 में लॉर्ड मैकाले की प्रतिवेदन आई जिससे अंग्रेजी राजकीय भाषा बनी और 1839 से इसे सरकारी भाषा के रूप में दर्जा दिया गया। 1872 में बंगाल में यह घोषणा हुई की हिंदी राष्ट्रभाषा होगी। 1917 में गांधी जी ने गुजरात के भरूच में कहा कि हिंदी राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। 1924 में राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन बेलगाम में गांधी जी ने कहा कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया जाना चाहिए।

संविधान सभा में हिंदी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव गोपाल स्वामी आयंगर ने रखा, जिसका समर्थन शंकर देव ने किया। संविधान सभा में राजभाषा के नाम पर हुए मतदान में हिंदुस्तानी को 77 वोट और हिंदी को 78 वोट मिला था। इससे पहले प्रताप नारायण मिश्र ने हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान का नारा दिया था। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का विचार सर्वप्रथम बंगाल से ही प्रकट हुआ था। लेकिन स्वतंत्रता पूर्व हिंदी का समर्थन करने वाले एवं स्वतंत्रता के बाद हिंदी का विरोध करने वाले व्यक्तित्व में सी. राजा गोपालाचारी, सुनीति कुमार चटर्जी हुमायूं कबीर, अनंत शयनम आयंगर प्रमुख रूप से थे।

संविधान सभा की चर्चा में 12 से 14 सितंबर 1949 को हुये बैठकों के बाद मुंशी-आयंगर सूत्र के अनुसार हिंदी देश की राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा होगी इसकी लिपि देवनागरी होगी। परंतु अंक रोमन लिपि में प्रयोग होंगे। संविधान के भाग 17 एवं अनुच्छेद 343 से 351 तक में इसे सम्मिलित किया जाएगा। राजभाषा प्रशासनिक लक्ष्यों के माध्यम से राजनीतिक-आर्थिक इकाई के रूप में देश को संगठित करने का कार्य करेगी। राज्यभाषा सरकार एवं जनमानस दोनों के द्वारा सरकारी कार्यों के लिए अपनाई गई भाषा है।

अंतत: 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को राजकाज की भाषा बनाया। 14 सितंबर 1953 से हिंदी दिवस समारोह के रूप में मनाये जाने लगा,जबकि भीमराव अंबेडकर चाहते थे की संस्कृत इस देश की राष्ट्रभाषा बने। भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जहां कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिंदी को पुर्तगालियों ने ‘हिंदुस्तानी भाषा कहा था।

हिंदी को संविधान में अनुच्छेद 343 से 350 तक में रखा गया है। सातवीं अनुसूची जिसमें समवर्ती सूची है इस सूची में शिक्षा शामिल है। भाषा को लेकर 21 वीं,58वीं, 71वीं और 92वीं संशोधन किया जा चुका है। संविधान के आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं का उल्लेख है।
अनुच्छेद 29 में अपनी भाषा में शिक्षा देना,
अनुच्छेद 120 में संसद में प्रयुक्त भाषा का उल्लेख,
अनुच्छेद 210 में राज्य की विधान मंडल में प्रयुक्त होने वाली भाषा, अनुच्छेद 343 में संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी, अंग्रेजी के रोमन अक्षर प्रयोग होंगे, अनुच्छेद 344 में राजभाषा के संबंध में आयोग एवं समिति राष्ट्रपति जी निर्मित करेंगे,
अनुच्छेद 345,346,347 में राज्य की राजभाषा एवं भाषाओं का उल्लेख है,
अनुच्छेद 348 में सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट की भाषा अंग्रेजी होगी,
अनुच्छेद 349 में भाषा के बारे में आयोग एवं निर्मित करने का विधान है,
अनुच्छेद 350 में लोक शिकायत की भाषा राज्यों-केंद्र सरकार की भाषा का उल्लेख है,
अनुच्छेद 350 ‘क’ में मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने का प्रावधान है, अनुच्छेद 350 ‘ख’ में राष्ट्रपति जी अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकारी भाषा हेतु नियुक्त करेंगे, अनुच्छेद 351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए उठाए गए कदमों का उल्लेख है।
राजभाषा आयोग का गठन 7 जून 1955 को किया गया जिसके अध्यक्ष बाला साहब गंगाधर खरे (बी.जी खरे) थे जिन्होंने इसका प्रतिवेदन 31 जुलाई 1956 को दिया।
केंद्रीय हिंदी निदेशालय 1960 का गठन,वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग 1961, 1962 में केंद्रीय हिंदी समिति का गठन हुआ, जबकि 10 मई 1963 को राजभाषा अधिनियम लागू किया गया। 1971 में केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो का गठन हुआ। 1976 में राजभाषा संसदीय समिति बनी जबकि स्वतंत्र राजभाषा विभाग की स्थापना 26 जून 1975 को किया गया। 1985 में केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की गई।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में जनमानस के भीतर राष्ट्र स्व का बोध प्रस्फुटित हुआ था। राष्ट्रीय स्व निर्माण के क्रम में जनता का ध्यान राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर भी गया, क्योंकि स्व का एक अनिवार्य अंग है राष्ट्रभाषा की अस्मिता। राष्ट्र शब्द एक सुनिश्चित भूभाग एवं तंत्र के अंतर्गत रहने वाली जनसंख्या की सभ्यता, संस्कृति, चिंतन एवं प्रज्ञा का एक समग्र पुंज है। वैसे तो देश के भीतर सभी भाषाएं राष्ट्रभाषाएं हैं परंतु राष्ट्र का जनमानस जब स्थानीय एवं तत्कालीन हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने देश की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को विशेष प्रयोजनों के लिए चुनकर उसे राष्ट्रीय स्व एवं गौरव गरिमा का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो वही राष्ट्रभाषा है।
किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा कहने में उसे सम्मान देने का एक अतिरिक्त बोध है लेकिन इससे यह साबित नहीं होता कि अन्य भाषाओं को नीचा दिखाना है। राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अंतर राज्य संवाद संपर्क की एक आवश्यकता होती है। संवाद संपर्क में जनता से जनता के बीच संवाद और जनता से सरकार के बीच संवाद होता है।
आरंभ से ही हिंदी राष्ट्रभाषा के दोनों दायित्वों का बखूबी निर्वहन करती आ रही है। जनता एवं सरकार के बीच संवाद स्थापना के क्रम में जब फारसी अंग्रेजी के माध्यम से कठिनाई उपस्थित हुई तो कंपनी सरकार ने फोर्ट विलियम कॉलेज में हिंदुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिंदी सीखने की व्यवस्था की। यहां से हिंदी पढ़े हुए अधिकारी अपने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में इसका प्रत्यक्ष लाभ देखकर हिंदी को अपने मुक्त कंठ से सराहा। इस कड़ी में 1806 में फोर्ट विलियम कॉलेज के हिंदुस्तानी विभाग के अध्यक्ष जॉन गिलक्राइस्ट ने एक पत्र में लिखा था की कोलकाता से लेकर लाहौर तक कुमाऊं की पहाड़ियों से लेकर नर्मदा तक एक पूरे विशाल क्षेत्र में भिन्न-भिन्न भाषाएं बोली जाती हैं लेकिन हिंदुस्तानी एक ऐसी बोली है जो आमतौर पर सभी के लिए सुलभ है, यही कारण था कि हिंदी की सर्व व्यापकता ने अंग्रेज अधिकारियों का ध्यान खींचा।
अंग्रेज अधिकारी लेफ्टिनेंट थॉमस रोबोक ने अपने पत्र में राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदुस्तानी के प्रयोग के चार क्षेत्रों का निर्देश किया।
देसी अदालतों की सामान्य भाषा हिंदुस्तानी है जबकि कभी-कभी फारसी का भी प्रयोग होता है। हिंदुस्तानी में सभी राजनीतिक मामलों पर विचार किया जाता है और अंत में इसे फारसी में अनुवाद कर दिया जाता है। भूमि लगान का सम्पूर्ण कार्य हिंदुस्तानी में होता है और देसी फौज की आम बोली हिंदुस्तानी ही है। इसके साथ ही 1816 में विलियम कैरी ने लिखा की हिंदी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है। एच.टी कॉल ब्रुक का मानना था कि पढ़े-लिखे और अनपढ़ लोगों के बोलचाल की भाषा हिंदी है, जिसे प्रत्येक गांव में थोड़े बहुत लोग समझ लेते हैं जबकि ग्रियर्सन ने हिंदी को आम बोलचाल की भाषा ग्रेट लिंगुआ फ्रैंका के रूप में की है।
सभी अंग्रेज विद्वानों का स्पष्ट विचार था कि हिंदी की व्यवहारिकता, उपयोगिता, देशव्यापी प्रसार एवं प्रयुक्त लचीलेपन के कारण हिंदी अंग्रेजों की कलम एवं जुबान पर चढ़ गई थी। इन गुणों के कारण कंपनी के सिक्कों पर भी हिंदी अक्षर एवं अंक अंकित होते थे। कंपनी के फरमान भी हिंदुस्तानी में छपते थे। उस समय हिंदी एवं उर्दू को लेकर कोई विवाद नहीं था। हिंदी, हिंदवी और हिंदुस्तानी को सभी एक ही भाषा मानते थे, जिसकी दो लिपियां थी। अंग्रेजों ने हिंदी को प्रयोग में लाकर संघ भाषा के रूप में हिंदी की संभावनाओं की ओर हमारे राष्ट्रीय नेताओं एवं साहित्यकारों का ध्यान खींचा।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि सन 1936 में देवनागरी लिपि वाली हिंदी सरकारी दफ्तरों की भाषा बन गई थी पर मुसलमान भाइयों के विरोध के कारण नहीं चल पाई। फलत: 1837 में उर्दू फारसी शब्दों वाली हिंदी दफ्तरों की भाषा बन गई। अखिल भारतीय स्तर पर जनता का संपर्क सिर्फ हिंदी में ही हो सकता था।
समाज सुधारकों के प्रयास एवं सभी संस्थाओं ने हिंदी के महत्व को समझ लिया था। यही कारण था कि 1815 में ‘वेदांत सूत्र’ का हिंदी में अनुवाद किया गया था। कोलकाता में 1829 में ‘बंगदूत’ नामक अखबार निकालने का श्रेय भी राजा राममोहन राय को था। केशव चंद्र सेन ने अपने पत्र ‘सुलभ समाचार’ 1875 में लिखा कि पूरे भारत में एक ही भाषा को व्यवहार लाकर एकता स्थापित किया जा सकता है। ब्रह्म समाजी नवीन चंद्र राय ने पंजाब में हिंदी के विकास के लिए अतुल्यनीय योगदान दिया।
आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती संस्कृत में वाद-विवाद करते थे, गुजराती उनकी मातृभाषा थी लेकिन वह हिंदी को अधिक से अधिक जनमानस तक पहुंचाने के लिए कार्य किया। उन्होंने अपना ‘सत्यार्थ प्रकाश’ ग्रंथ हिंदी में लिखा। अरविंद दर्शन के प्रणेता महर्षि अरविंद की सलाह थी कि जनता अपनी-अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिंदी को ग्रहण करें।
थियोसोफिकल सोसायटी की संचालिका एनी बेसेंट का मानना था कि हिंदी जानने वाले आदमी संपूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकते हैं, उन्हें प्रत्येक स्थान पर हिंदी बोलने वाले मिल जाएंगे और भारत के सभी स्कूलों में सभी विद्यालयों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।
इन सभी तथ्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि राष्ट्रीय समाज सुधारकों की यह सोच बन चुकी थी कि राष्ट्रीय स्तर पर संवाद कायम करने के लिए हिंदी आवश्यक है। हिंदी बहुसंख्यक जनमानस की भाषा है। एक प्रांत की जनता दूसरे प्रांत के लोगों से सिर्फ इसी भाषा में विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं।
हिंदी की व्यापकता को देखकर इसाई मशीनरियों ने अपने धर्म प्रचार के लिए हिंदी को चुना। उनके कई धर्म ग्रंथ हिंदी में छपे और उन्हें हिंदी के माध्यम से आगे बढ़ने का मौका मिला।
सन 1885 में जब कांग्रेस की स्थापना हुई तब हिंदी का राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान होता चला गया। राष्ट्रीय नेता बाल गंगाधर तिलक ने कहा कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। गांधी जी हिंदी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थे। वह गैर हिंदी भाषा के पहले और आखिरी सर्वमान्य राष्ट्रीय नेता थे, जिन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा समस्या पर गंभीरता से विचार करने की सलाह दी। उनका मानना था की भाषा समस्या का समाधान जनता के हित को ध्यान में रखकर किया जाए। उनका मानना था कि राष्ट्रभाषा आत्म सम्मान के अभिव्यक्ति का माध्यम है। राष्ट्रीय सम्मान की रक्षा के लिए अंग्रेजी का प्रभुत्व समाप्त होना चाहिए और भारतीय जनता की असली राष्ट्रभाषा हिंदी ही हो सकती है। गांधी जी ने स्वदेशी आंदोलन के माध्यम से राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के स्वीकार को सार्वजनिक बताया। अंग्रेजी शासन में विरोध के क्रम में विदेशी वस्तुओं एवं विदेशी भाषा अंग्रेजी का विरोध भी प्रारंभ हुआ और इसके विकल्प के रूप में हिंदी सामने आई।
सिद्धांत एवं व्यवहार के स्तर पर गाँधी जी हिंदी को अपनाने का भरपूर प्रयास किया। अपने पत्रिका में उन्होंने लिखा कि वास्तव में ये अंग्रेजी में बोलने वाले नेता हैं जो आमजन में हमारा काम जल्दी आगे बढ़ने नहीं देते और हिंदी सीखने से इनकार करते है। जबकि द्रविड प्रदेश में भी हिंदी तीन महीने के अंदर सीखी जा सकती है। गांधी जी वैसे नेताओं से परेशान थे जो जनता की बात सबसे अधिक करते थे किंतु राजनीतिक कार्यवाही में जनता की उपेक्षा करते थे। कानपुर अधिवेशन 1925 में कांग्रेस ने यह प्रस्ताव पारित किया कि अखिल भारतीय स्तर पर जहां तक संभव हो कांग्रेस की कार्रवाई हिंदी में चलाई जाए और अपने सभी कार्यालयों में प्रादेशिक कांग्रेस कमेटी प्रादेशिक भाषा तथा हिंदुस्तानी का प्रयोग करेंगे। सन 1937 में देश के कुछ राज्यों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मंत्रिमंडल का गठन हुआ।
इन राज्यों में हिंदी की पढ़ाई को प्रोत्साहन देने का संकल्प लिया गया किंतु राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के विकास का कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया। यही कारण था कि महात्मा गांधी के अतिरिक्त कई नेता हिंदी को व्यवहार में उतारने की इच्छा नहीं करते थे, जहां-तहां यदि वह हिंदी का व्यवहार करते भी थे तो उसमें औपचारिकता ही दिखाई पड़ती थी। गांधी जी की दृष्टि में अंग्रेजी का व्यवहार राजनीतिक व सांस्कृतिक गुलामी का परिणाम था। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सुदृढ़ करने के लिए उन्होंने विधापिठों एवं मद्रास में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएँ स्थापित की।
गांधी जी ने हिंदी को अपनाने का एक वातावरण तैयार कर दिया था, यही कारण था कि काका कालेलकर, बिनोवा भावे कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी राष्ट्रीय एकीकरण के लिए हिंदी को आवश्यक मानने लगे। चौथे दशक तक हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में आम सहमति प्राप्त कर चुकी थी। कराची कांग्रेस अधिवेशन में सरदार वल्लभभाई पटेल ने अपना भाषण पहले हिंदी में पढ़ा। सुभाष चंद्र बोस 1938 एवं 1939 में अपना भाषण हिंदी में देते हुए हिंदी को राष्ट्रभाषा का गौरव दिलाने की बात की। क्षितिज मोहन सेन हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के अनुष्ठान को राजसूय यज्ञ की संज्ञा दी। बंकिम चंद्र चटर्जी कहते थे जो हिंदी भाषा के जरिए राष्ट्रीय एकता काम करने में सफल होगा, वही भारत बंधु कहलाएगा। दक्षिण के तीर्थ स्थलों में हिंदी ही बात व्यवहार की भाषा थी। विवाह, व्यापार, यातायात, शिक्षा एवं मनोरंजन के साधनों के कारण भी दक्षिण भारतीयों के लिए हिंदी अपरिचित नहीं थी। राज गोपालाचारी ने भी दक्षिण वालों को हिंदी सीखने समझने की सलाह दी। अनंतशयनम आयंगर, कृष्णस्वामी अय्यर एवं विजय राघवाचार्य हिंदी के बड़े पक्षधर थे। रंगनाथ रामचंद्र दिवाकर ने कहा था जो राष्ट्र प्रेमी है उसे राष्ट्रभाषा प्रेमी भी होना चाहिए। संक्षेप यह है कि ब्रिटिश साम्राजवादी हिंदी को आम आदमी की भाषा मानते थे। खड़ी बोली को गढ़ने का अपनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। प्रारंभ में सरकार की नीति हिंदी के पक्ष में थी बाद में उन लोगों ने उर्दू को बीच में डालकर फूड डालना शुरू किया। समाज सुधारकों एवं पत्रकारों ने राष्ट्रीय पुनर्जागरण के लिए माध्यम के रूप में हिंदी को अपनाया और उसे आगे बढ़ाया। कांग्रेस ने भी राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान जनता से संवाद स्थापित करने के लिए हिंदी को चुना और राष्ट्रभाषा के रूप में गरिमा दी।

 

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