कब्जाए सभी मंदिर हिन्दुओं को मिल सकते हैं वापस,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे ये नारा किसी दौर में राम जन्मभूमि आंदोलन की पहचान हुआ करता था। जिसके साथ ही एक नारा इसके परस्पर लगा करता था अयोध्या तो बस झांकी है, काशी मथुरा बाकी है। हजारों-लाखों लोग इस नारे से सहमत नजर आते हैं। जिसके पीछे कहा जाता है कि एक बार राम के काम में योगदान दे चुके हैं और अगर जरूरत पड़ी तो काशी और मथुरा में भी कृष्ण और शिव की सेवा करने जाएंगे। वैसे तो काशी और मथुरा को लेकर दावे पहले भी किए जाते रहे हैं लेकिन अब इस मामले ने कानूनी रूख भी ले लिया है। काशी और मथुरा में पूजा के अधिकार की एक याचिका ने 20 साल पहले बने एक कानून और उस वक्त के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है।
देश की सर्वोच्च अदालत की तरफ से नरसिम्हा राव सरकार के प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट को चुनौती देने वाली याचिका की वैधता परखने की मांग को मंजूर कर लिया गया है और भारत सरकार को नोटिस भेजकर उसका पक्ष भी मांगा गया है। ऐसे में आज हम बात करेंगे इस एक्ट के बारे में इसके प्रावधनाों के बारे में और साथ ही आपको काशी-मथुरा के विवाद के बारे में भी बताएंगे।
ये 90 के दशक की बात है। राम जन्मभूमि आंदोलन प्रखर रूप से सामने आया। 1991 के लोकसभा चुनाव के दौरान तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बुदुर में एक चुनावी सभा के दौरान, लिट्टे के आत्मघाती हमले में राजीव गांधी की हत्या कर दी जाती है। इसके बाद नरसिम्हा राव जून 1991 में प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए। राम मंदिर जन्मभूमि आंदोलन अपने चरम पर था इसके साथ ही विश्व हिन्दू परिषद की ओर से वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में शाही इदगाह के खिलाफ भी आंदोलन तेज हो रहा था। अयोध्या की तरह ही इन्हें भी वापस सौंपे जाने की मांग हो रही थी।
उस वक्त कांग्रेस की सरकार सत्ता में थी और नरसिम्हा राव उसके अगुवा थे। राव सरकार ने प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट यानी पूजा स्थल विशेष प्रावधान अधिनियम बनाया। आपको बता दें कि कांग्रेस ने 1991 के अपने चुनावी घोषणापत्र में ऐसे कानून लाने की बात पहले ही कह दी थी। अधिनियम के बिल को बहस के लिए संसद के मानसून सत्र में प्रस्तुत किया गया। उस वक्त के गृह मंत्री शंकरराव चव्हाण ने 10 सितंबर 1991 में लोकसभा में बहस के दौरान इस बिल को भारत के प्रेम, शांति और आपसी भाईचारे के महान संस्कारों का एक सूचक बताया और कहा कि सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता हमारी महान सभ्यता का चरित्र है।
क्या कहता है कानून
1991 में लागू कानून में कहा गया है कि पूजा स्थालों की स्थिति जो 15 अगस्त 1947 को थी उसमें कोई बदलाव नहीं किया जाएगा। इस कानून में अयोध्या की श्रीराम जन्मभूमि को अलग रखा गया था। अयोध्या के श्रीराम जन्मभूमि केस के अलावा अगालतों में लंबित ऐसे सभी मामले समाप्त समझे जाएंगे। कानून के बारे में बताते हुए तत्कालीन गृह मंत्री एस बी चव्हाण ने संसद में कहा कि यह सांप्रदायिक तनाव को रोकने के लिए इसे लाया गया।
इसके क्या प्रावधान हैं?
इस अधिनियम की धारा 3 के अनुसार किसी पूजा स्थान या उसके खंड को अलग धार्मिक संप्रदाय की पूजा स्थली में बदलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। यह अधिनियम राज्य पर एक सकारात्मक दायित्व भी प्रदान करता है कि वह स्वतंत्रता के समय मौजूद प्रत्येक पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र को बनाए रखे।
अधिनियम की धारा 4 (1) में कहा गया कि 15 अगस्त 1947 को विद्यमान पूजा स्थल का धार्मिक चरित्र वैसा ही रहेगा जैसा उस दिन था। अधिनियम की धारा 4 (2) का प्रावधान है अधिनियम के प्रारंभ होने पर 15 अगस्त 1947 को मौजूद किसी भी पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र के रूपांतरण के संबंध में कोई मुकदमा, अपील या अन्य कार्यवागी किसी भी अदालत के समक्ष लंबित है तो वो समाप्त होगा। इसके साथ ही इस प्रकार के किसी भी मामले के संबंध में कोई मुकदमा, अपील या अन्य कार्यवाही नहीं होगी।
न्यायालय ने अयोध्या विवाद कैसे सुना?
अधिनियम की धारा 5 के अनुसार अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर लागू नहीं होगा और ना ही उससे संबंधित किसी भी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करेगा। इसी कारण राम जन्मभूमि विवाद पर सुनवाई हुई और फैसला आया।
सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियम के बारे में क्या कहा है?
अयोध्या मामले पर फैसला सुनाते हुए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने इस कानून का जिक्र करते हुए कहा कि यह संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को प्रकट करता है। सुप्रीम कोर्ट की तरफ से कहा गया कि संसद ने तय किया कि उपनिवेवादी शासन से आजादी हमें अतीत के अन्याय पर मरहम लगाने का संवैधानिक आधार प्रदान करती है। हरेक धार्मिक समुदाय को यह आश्वासन देता है कि उनके धार्मिक स्थलों का संरक्षण होगा और उनका चरित्र नहीं बदला जाएगा। सुप्रीम कोर्ट की तरफ से कहा गया कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट विधायिका की तरफ से किया गया प्रावधान है जो पूजा स्थलों के धार्मिक चरित्र को यशावत बरकरार रखने को हमारे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के अनिवार्य पहलू बनाता है।
कानून को क्यों दी गई चुनौती?
दिल्ली बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय ने सेक्युलरिज्म के सिद्धांतों का उल्लंघन बताते हुए इस कानून की वैधानिकता को चुनौती दी है। उन्होंने यह भी तर्क दिया है कि 15 अगस्त, 1947 की कट-ऑफ तारीख “मनमाना, तर्कहीन और पूर्वव्यापी” है और हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों और सिखों को अदालतों से “पूजा-स्थल” पर दोबारा प्रवेश करने से रोकती है, जिन पर “आक्रमण” किया गया था “कट्टरपंथी बर्बर आक्रमणकारियों” द्वारा “और” अतिक्रमण किया गया। जब इस कानून को पेश किया गया था तब भी बीजेपी ने इसका विरोध किया था। जिसके साथ ही ये तर्क दिया गया था कि केंद्र के पास तीर्थस्थान और शमशान/कब्रिस्तान पर कानून बनाने की कोई शक्ति केंद्र के पास नहीं है और ये राज्यों की सूची में आता है।
हालांकि सरकार ने अपनी तरफ से दलील देते हुए कहा कि इस कानून को लागू करने के लिए संघ सूची की प्रविष्टि 97 के तहत अपनी अवशिष्ट शक्ति का उपयोग कर सकती है। प्रविष्टि 97 97 केंद्रों को उन विषयों पर कानून बनाने के लिए अवशिष्ट शक्ति प्रदान करता है जो तीनों सूचियों में से किसी में भी संलग्न नहीं हैं। एक और विवाद जो कानून को लेकर है कि इसके लागू होने की तारीख भारत के आजाद होने के दिन से है। जिसका अर्थ है कि औपनिवेशिक सत्ता द्वारा निर्धारित यथास्थिति को अंतिम माना जाता है।
मथुरा का कृष्ण जन्मभूमि विवाद है क्या?
जहां भगवान कृष्ण का जन्म हुआ, वहां पहले वह कारागार हुआ करता था। यहां पहला मंदिर 80-57 ईसा पूर्व बनाया गया था। इस संबंध में महाक्षत्रप सौदास के समय के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि किसी ‘वसु’ नामक व्यक्ति ने यह मंदिर बनाया था। इसके बहुत काल के बाद दूसरा मंदिर विक्रमादित्य के काल में बनवाया गया था। इस भव्य मंदिर को सन् 1017-18 ई. में महमूद गजनवी ने तोड़ दिया था। बाद में इसे महाराजा विजयपाल देव के शासन में सन् 1150 ई. में जज्ज नामक किसी व्यक्ति ने बनवाया।
काशी विश्वनाथ मंदिर और इससे जुड़े तथ्य
काशी विश्वनाथ मंदिर भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इसलिए ये हिन्दुओं की आस्था के सबसे बड़े केंद्रों में से एक माना जाता है। भारत में मुस्लिम अक्रांताओं के आने के साथ ही काशी विश्वनाथ मंदिर पर हमले शुरू हुए। सबसे पहले 11वाीं शताब्दी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने हमला किया। इस हमले में मंदिर का शिखर टूट गया। लेकिन बावजूद इसके पूजा-पाठ होती रही। 1585 में राजा टोडरमल ने काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। 1669 में औरंगजेब के आदेश पर इस मंदिर को पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया गया और वहां पर एक मस्जिद बना दी गई। 1780 में मालवा की रानी अहिल्याबाई ने ज्ञानवापी परिसर के बगल में ही एक नया मंदिर बनवा दिया जिसे आज हम काशी विश्वनाथ मंदिर के तौर पर जानते हैं। लेकिन तब से यह विवाद आज तक जारी है।
याचिका पर केंद्र से जवाब
उच्चतम न्यायालय ने याचिका पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। याचिका में आरोप लगाया गया है कि 1991 के कानून में कट्टरपंथी-बर्बर हमलावरों और कानून तोड़ने वालों द्वारा किए गए अतिक्रमण के खिलाफ पूजा स्थलों या तीर्थस्थलों के चरित्र को बनाए रखने के लिए 15 अगस्त, 1947 की समयसीमा मनमाना और तर्कहीन’ है। प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे और न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना की पीठ ने भाजपा नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी किया। इस याचिका में उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) कानून, 1991 की धारा 2, 3, 4 को रद्द करने का अनुरोध किया गया है। इसके लिए आधार भी दिया गया है कि ये प्रावधान किसी व्यक्ति या धार्मिक समूह के पूजा स्थल को पुनः प्राप्त करने के न्यायिक सुधार का अधिकार छीन लेते हैं।