होली विविधता भरी संस्कृति की पहचान का पर्व है.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत संस्कृति में त्योहारों एवं उत्सवों का आदि काल से ही काफी महत्व रहा है। होली भी एक ऐसा ही त्योहार है, जिसका धार्मिक ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्व है। पौराणिक मान्यताओं की रोशनी में होली के त्योहार का विराट समायोजन बदलते परिवेश में विविधताओं का संगम बन गया है। इस अवसर पर रंग, गुलाल डालकर अपने इष्ट मित्रों, प्रियजनों को रंगीन माहौल से सराबोर करने की परम्परा है, जो वर्षों से चली आ रही है। एक तरह से देखा जाए तो यह उत्सव प्रसन्नता को मिल-बांटने का एक अपूर्व अवसर होता है।

हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहां पर मनाये जाने वाले सभी त्यौहार समाज में मानवीय गुणों को स्थापित करके लोगों में प्रेम, एकता एवं सद्भावना को बढ़ाते हैं। यहां मनाये जाने वाले सभी त्योहारों के पीछे की भावना मानवीय गरिमा को समृद्धि प्रदान करना होता है। यही कारण है कि भारत में मनाये जाने वाले त्योहारों एवं उत्सवों में सभी धर्मों के लोग आदर के साथ मिलजुल कर मनाते हैं। होली भारतीय संस्कृति की पहचान का एक पुनीत पर्व है । होली एक संकेत है वसंतोत्सव के रूप में ऋतु परिवर्तन का। एक अवसर है भेदभाव की भावना को भुलाकर पारम्परिक प्रेम और सदभावना प्रकट करने का। एक संदेश है जीवन में ईश्वरोपासना एवं प्रभुभक्ति बढ़ाने का।

होलिकात्सव से मानव-जाति ने बहुत कुछ लाभ उठाया है। इस उत्सव में लोग एक-दूसरे को रंग से रंगकर मन की दूरियों को मिटाकर एक-दुसरे के नजदीक आते है। यह उत्सव जीवन में नया रंग लाने का उत्सव है। होली आनंद जगाने का उत्सव है, परस्पर देवो भव की भावना जगानेवाला उत्सव है। विकारी भावों पर पर धुल डालने एवं निर्विकार नारायण का प्रेम जगाने का उत्सव है। होली मात्र लकड़ी के ढेर को जलने का त्यौहार नहीं है, यह तो चित्त की दुर्बलताओं को दूर करने का, मन की मलिन वासनाओं को जलाने का पवित्र दिन है ।

होली का आगमन बसंत ऋतु की शुरुआत के करीब-करीब आस-पास होता है। लगभग यह वक्त है, जब शरद ऋतु को अलविदा कहा जाता है और उसका स्थान वसंत ऋतु ले लेती है। इन दिनों हल्की-हल्की बयारें चलने लगती है। यह मौसमी बदलाव व्यक्ति-व्यक्ति के मन में सहज प्रसन्नता, स्फूर्ति पैदा करता है। इससे सामाजिक समरसता के भाव भी वर्धमान बनते हैं। भारतीय लोक जीवन में होली की जड़ें काफी गहरी जम चुकी हैं।

होली शब्द का अंग्रेजी भाषा में अर्थ होता है पवित्रता। इस त्योहार के साथ यदि पवित्रता की विरासत का जुड़ाव होता है तो इस पर्व की महत्ता शतगुणित हो जाती है। डफली की धुन एवं डांडिया रास की झंकार में मदमस्त मानसिकता ने होली जैसे त्योहार की उपादेयता को मात्र इसी दायरे तक सीमित कर दिया, जिसे तात्कालिक खुशी कह सकते हैं, जबकि अपेक्षा है कि रंगों की इस परम्परा को दीर्घजीविता प्रदान की जाए। स्नेह और सम्मान का, प्यार और मुहब्बत का, मैत्री और समरसता का ऐसा शमां बांधना चाहिए कि जिसकी बिसात पर मानव कुछ नया भी करने को प्रेरित हो सके।

होली के त्यौहार के विषय में सर्वाधिक प्रसिद्ध कथा प्रह्लाद तथा होलिका के सम्बंध में भी है। नारदपुराण में बताया गया है कि हिरण्यकशिपु नामक राक्षस का पुत्र प्रह्लाद अनन्य हरि-भक्त था, जबकि स्वयं हिरण्यकशिपु नारायण को अपना परम-शत्रु मानता था। उसके राज्य में नारायण अथवा श्रीहरि नाम के उच्चारण पर भी कठोर दंड की व्यवस्था थी। अपने पुत्र को ही हरि-भक्त देखकर उसने कई बार चेतावनी दी, किंतु प्रह्लाद जैसा परम भक्त नित्य प्रभु-भक्ति में लीन रहता था। हारकर उसके पिता ने कई बार विभिन्न प्रकार के उपाय करके उसे मार डालना चाहा। किंतु, हर बार नारायण की कृपा से वह जीवित बच गया। हिरण्यकशिपु की बहिन होलिका को अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था। अत: वह अपने भतीजे प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश कर गई। किंतु प्रभु-कृपा से प्रह्लाद सकुशल जीवित निकल आया और होलिका जलकर भस्म हो गई। होली का त्योहार असत्य पर सत्य की विजय और दुराचार पर सदाचार की विजय का प्रतीक है। इस प्रकार होली का पर्व सत्य, न्याय, भक्ति और विश्वास की विजय तथा अन्याय, पाप तथा राक्षसी वृत्तियों के विनाश का भी प्रतीक है।

होली के पर्व की तरह इसकी परम्पराएं भी अत्यंत प्राचीन हैं और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परम्परा थी। वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरम्भ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरम्भ होता है। अत: यह पर्व नवसंवत का आरम्भ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।

होली के उपलक्ष्य में अनेक सांस्कृतिक एवं लोक चेतना से जुड़े कार्यक्रम होते हैं। महानगरीय संस्कृति में होली मिलन के आयोजनों ने होली को एक नया उल्लास एवं उमंग का रूप दिया है। इन आयोजनों में बहुत शालीन तरीके से गाने बजाने के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं।चंदन का तिलक और ठंडाई के साथ सामूहिक भोज इस त्यौहार को गरिमामय छबि प्रदान करते हैं। देर रात तक चंग की धुंकार, घूमर, डांडिया नृत्य और विभिन्न क्षेत्रों की गायन मंडलियाँ अपने प्रदर्शन से रात बढऩे के साथ-साथ अपनी मस्ती और खुशी को बढ़ाते हैं।

होली के पावन प्रसंग पर हमें इस बात के लिए दृढ़ संकल्पित होना होगा कि अपने मन, वाणी और व्यवहारों में अंतर्निहित आसुरी प्रवृत्तियों का परिष्कार करें एवं उसके स्थान पर पवित्रता की देवी को प्रतिष्ठित करें। होली जैसे त्यौहार में जब अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, ब्राह्मण-शूद्र आदि सब का भेद मिट जाता है, तब ऐसी भावना करनी चाहिए कि होली की अग्नि में हमारी समस्त पीड़ायें दु:ख, चिंताएं, द्वेष-भाव आदि जल जाएं तथा जीवन में प्रसन्नता, हर्षोल्लास तथा आनंद का रंग बिखर जाए।

होली रंगों का त्योहार है, हंसी-ख़ुशी का त्यौहार है लेकिन आज होली के भी अनेक रूप देखने  को मिलते हैं। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भंग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक-संगीत की जगह फिल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप है। पहले जमाने में लोग टेसू और प्राकृतिक रंगों से होली खेलते थे। वर्तमान में अधिक से अधिक पैसा कमाने की होड़ में लोगों ने बाज़ार को रासायनिक रंगों से भर दिया है। वास्तव में रासायनिक रंग हमारी त्वचा के लिए काफी नुकसानदायक होते हैं। इन रासायनिक रंगों में मिले हुए सफेदा, वार्निश, पेंट, ग्रीस, तारकोल आदि की वजह से खुजली और एलर्जी होने की आशंका बढ़ जाती है इसलिए होली खेलने से पूर्व हमें बहुत सावधानियां बरतनी चाहिए। हमें चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाये रखते हुए प्राकृतिक रंगों की ओर लौटना चाहिए।

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