कैसे और कब हुई मधुबनी चित्रकला की शुरुआत ?
मधुबनीी पेंटिंग भारतीय संस्कृति और कलात्मकता का चित्रपट है
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत अपनी समृद्ध संस्कृति के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। बात चाहे, इमारतों की हो या कलाकृतियों की, भारतीय पटल पर इनके ऐसे अनूठे नमूने देखने को मिल जाएंगे, जिन्हें आप देखेंगे, तो उनसे नजरें हटाना मुश्किल हो जाएगा। यहां के हर एक राज्य में ऐसी कई कलाएं देखने को मिलती हैं, जिनकी खूबसूरत की मिसाल देना नामुमकिन है। भारत की इन्हीं अनोखी कलाकृतियों का एक बेहद शानदार उदाहरण है, बिहार के मधुबनीी जिले की मधुबनीी चित्रकला, जिसे अंग्रेजी में मधुबनीी पेंटिंग कहा जाता है।
मधुबनीी जिला मैथिली संस्कृति का केंद्र रहा है। मिथिलांचल क्षेत्र में इस चित्रकला की शुरुआत हुई थी, इसलिए मधुबनीी चित्रकला को मिथिला चित्रकला या मिथिला पेंटिंग के नाम से भी जाना जाता है। एक छोटे से जिले से शुरू होकर आज पूरे विश्व पटल पर मधुबनीी पेंटिंग अपनी धाक जमा चुका है। आक्रामकों के हमले, लूट-पाट और गुलामी से लड़ते-लड़ते भारत की कलाओं ने अपना दम तोड़ दिया।
लेकिन लघुकालिक होते हुए भी मधुबनीी चित्रकला ने न केवल मिथिलांचल के इतिहास को खुद में संजोकर रखा, बल्कि उसे पूरी दुनिया में अमर कर दिया है। इस विश्व प्रसिद्ध चित्रकला को आपने देखा तो जरूर होगा, लेकिन इसका उद्गम कैसे हुआ और कैसे इसने दुनियाभर में ख्याति कमाई, इस बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं।
ऐसा माना जाता है कि मधुबनीी चित्रकला की शुरुआत रामायण काल में हुई थी। जनकपुर के राजा जनक, जो देवी सीता के पिता थे, उन्होंने राम और सीता विवाह के अद्भुत क्षणों को तस्वीरों में कैद करने के लिए इस चित्रकला को बनाने का आदेश दिया था। वहां की महिलाओं ने दीवारों और जमीन पर इस चित्रकला की शुरुआत की थी और राम-सीता विवाह के कई मनमोहक दृश्य इस चित्रकला के जरिए बनाए गए थे और इस तरह हुआ था मधुबनीी या मिथिला चित्रकला का उद्भव।
इसके बाद से इस क्षेत्र की महिलाओं ने इस चित्रकला को उत्सव और त्योहारों पर अपने घर की भीत यानी दीवार और जमीन पर बनाना शुरू कर दिया। यह शादी, मुंडन, पूजा आदि जैसे हर शुभ अवसर पर बनाया जाने लगा। यह सिर्फ मधुबनी तक ही नहीं, बल्कि मिथिलांचल के अन्य भाग, जैसे- दरभंगा, सहरसा, पूर्णिया और नेपाल के कई हिस्सों में भी खूब देखने को मिलती है।
किन रंगों का किया जाता है इस्तेमाल?
मधुबनीी चित्रकला की शुरुआत की कहानी से आप यह अंदाजा लगा सकते हैं कि इतनी प्राचीन होने की वजह से इसे बनाने के लिए प्राकृतिक रंग, जैसे पौधों और फूलों से निकाला गया रंग, सिंदूर, चावल के लेप आदि का इस्तेमाल किया जाता था और पेंटिंग के लिए ब्रश नहीं, बल्कि बांस की पतली लकड़ियों से इसे बनाया जाता है। बांस की लकड़ियों के अलावा, इसे बनाने के लिए माचिस की तीलियां और उंगलियों का भी प्रयोग किया जाता है। प्राकृतिक रंगों के इस्तेमाल के कारण इस चित्रकला का प्रकृति से काफी गहरा रिश्ता है। अब तो इसे बनाने के लिए केमिकल युक्त रंग का इस्तेमाल और कपड़ों, कैनवस आदि पर बनाया जाने लगा है, लेकिन पहले इसे सिर्फ दीवारों और जमीन पर, नेचुरल रंगों से ही बनाया जाता था।
क्या दर्शाती है यह चित्रकला?
इस चित्रकला के लिए इस्तेमाल की जाने वाली चीजें के साथ-साथ इनमें दर्शाए गए दृश्य भी प्रकृति से जुड़े होने का आभास कराते हैं। इन्हें देखकर आपको ऐसा अनुभव होगा जैसे आप स्वंय प्रकृति की गोद में समा गए हैं। पेड़-पौधों, पक्षी, जानवरों आदि के साथ-साथ मधुबनीी चित्रकला में ज्यादातर देवी-देवताओं से जुड़ी पौराणिक कहानियों की झलक दिखाई जाती हैं। क्योंकि माना जाता है कि इसकी शुरुआत राम-सीता विवाह से हुई थी, इसलिए इस चित्रकला में बहुत हद तक देवी-देवताओं को ही शामिल किया जाता है।
इस पर राम-सीता विवाह की झांकियां, शिव-पार्वती और राधा-कृष्ण के प्रसंग दिखाए जाते हैं। मधुबनीी चित्रकला में बिहार के महापर्व छठ की भी अनोखी झलक देखने को मिलती है। ऐसी ही कई पौराणिक कथाओं और प्राकृतिक सुंदरता की झलक आपको इस चित्रकला के जरिए देखने को मिल जाएंगी।
क्या है इस चित्रकला की खासियत?
इस चित्रकला को बनाते समय छायांकन को शामिल नहीं किया जाता, यानी ये चित्र सपाट बनाए जाते हैं। अन्य चित्रकलाओं की तरह इनमें छाया या गहराई दिखाने की कोशिश नहीं की जाती। इसकी एक खासियत यह भी है कि इस चित्रकला को बनाते समय सीधी और टेढ़ी रेखाओं का इस्तेमाल किया जाता है। रंग-बिरंगी रेखाओं से बनाई गई इन तस्वीरों के प्राकृतिक और चटक रंगों की वजह से आप बड़ी आसानी से इसकी पहचान कर सकते हैं।
इस चित्रकला की पहचान के लिए आप एक बात पर और गौर कर सकते हैं। इन चित्रकलाओं में कहीं भी खाली जगह नहीं छोड़ी जाती। चित्र बनाने के बाद, बची हुई जगहों पर भरनी का इस्तेमाल करके, उसे भर दिया जाता है। भरनी उन आकृतियों को कहते हैं, जिनसे उस खाली को जगह को भरा जा रहा है। ज्यादातर फूल, पत्तियों और बेल-बुटियों को भरनी की तरह इस्तेमाल में लिया जाता है।
किन शैलियों का किया जाता है प्रयोग?
इस चित्रकला को बनाने के लिए भरनी के साथ-साथ तांतत्रिक, कोहबर, गोदना और कचनी शैलियों की भी प्रयोग किया जाता है। इन्हीं जटिलताओं के कारण इस चित्रकला में आंखों को उभारने के लिए उसे सबसे अंत में बनाया जाता है। अगर आपने कभी मधुबनीी चित्रकला देखी होगी, तो आप गौर करिएगा कि इनमें आंखें भले ही बेहद साधारण दिखती हैं, लेकिन उस पूरी पेंटिंग का सबसे प्रमुख आकर्षण उसमें बनी आंखें ही होती हैं। इतनी बारीकियों के बावजूद मधुबनीी चित्रकला आंखों को ऐसी सहजता का अनुभव करवाती है कि इसे देखकर ही आपको शांति और निर्मलता का अनुभव होगा।
क्या है महिलाओं का योगदान?
इस चित्रकला की एक और खासियत के बारे में हम बताते हैं, जिसे जानकर आप हैरान रह जाएंगे। पितृसत्ता की जड़ें कितनी हजारों साल पुरानी हैं, इसका आपको अनुमान तो होगा। लेकिन उस समय में भी मधुबनीी चित्रकला, कला का एक ऐसा रूप था, जिस पर महिलाओं की धाक थी। मिथिलांचल क्षेत्र की महिलाओं ने इस चित्रकला की शुरुआत की थी और उन्होंने ही इसे आगे भी बढ़ाया। मां से बेटी और फिर उसकी बेटी को विरासत में मधुबनीी चित्रकला बनाने का गुण सिखाया गया है।
इसलिए आज जब विश्व पटल पर मधुबनीी कला के क्षेत्र में एक सितारे की तरह चमक रहा है, तो उसके पीछे महिलाओं का बहुत अहम योगदान रहा है। आज भी इस चित्रकला को ज्यादातर महिलाएं ही बनाती हैं। हालांकि, अब कई पुरुषों ने भी इसे बनाने की शुरुआत कर दी है, लेकिन अभी भी ज्यादातर मधुबनीी पेंटिंग की कलाकार महिलाएं ही हैं।
कैसे मिली विश्व पटल पर पहचान?
एक छोटे से इलाके से शुरू हुई इस चित्रकला का अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचने के पीछे का सफर आसान नहीं रहा है। जमीन और दीवारों पर बनाने की वजह से यह चित्रकला बेहद कम समय के लिए टिक पाती थी। जमीन साफ करते या दीवार की पुताई करते हीं, इसका नामो-निशान वहां से मिट जाता था। लेकिन जब अंग्रेज भारत आए और उन्होंने इस चित्रकला का नमूना देखा, तो व्यापार के लिए उन्होंने इसे कपड़े और कैनवस पर बनवाना शुरु किया। ऐसे ही धीरे-धीरे विदेशों में मधुबनीी प्रख्यात होने लगीं।
इसके बाद मिथिलांचल क्षेत्र में आए अकाल के दौरान इन्हीं पेटिंग के जरिए कई महिलाओं ने अपने घरों में दो वक्त की रोटी का इंतजाम किया और आज मधुबनीी चित्रकला को न सिर्फ कैनवस पर, बल्कि कपड़ों, बैग, होम डेकोर के पीसेज आदि पर भी बनाया जाता है। कई स्थानीय कलाकार इस चित्रकला की बदौलत ही अपना जीवनयापन कर रहे हैं।
मधुबनीी पेंटिंग बिहार ही नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और कलात्मकता का चित्रपट है। यहां के संपन्न इतिहास और संस्कृति की अभिव्यक्ति के रूप में मशहूर यह चित्रकला हमारे इतिहास को हमारे आज से जोड़ने वाला एक पुल है, जिसका परचम आज पूरी दुनिया में लहरा है।
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