पिंगली वेंकैया ने कैसे और क्यों तीन घंटे में बनाया राष्ट्रध्वज?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के पेडाकलेपल्ली गांव में जन्मे पिंगली वेंकैया के नाती जी. गोपीकृष्ण की भावनाओं को फोन पर बातचीत में भी अनुभव किया जा सकता था। अपने नाना के बारे में बात करते हुए गोपीकृष्ण कहते हैं कि वह स्वंतत्रता सेनानी होने के साथ भाषाविद, भूगर्भशास्त्री, कृषि विज्ञानी, भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक, रेलवे तकनीशियन जैसे न जाने कितने परिचय जोड़े रहे। उनके जीवन का सबसे अहम पहलू था यायावरी। देश-दुनिया देखने और विभिन्न संस्कृतियों को जानने-पहचानने की लालसा ने ही उन्हें वह ज्ञान दिया जो सिर्फ पुस्तकों में नहीं मिलता।
गोपीकृष्ण बताते हैं कि पिंगली वेंकैया कुछ समय अंग्रेजों की सेना में रहे। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के बोअर युद्ध में मात्र 19 वर्ष की उम्र में भाग लिया। एक युवा के लिए यह अलग अनुभव था। भले ही अंग्रेजों की सेना के लिए काम कर रहे थे, लेकिन ब्रिटेन के झंडे यूनियन जैक को सलामी देते समय वेंकैया के दिल में हमेशा टीस उठती थी। युवा मन पर इसका गहरा प्रभाव हुआ और यही वह क्षण था जब भारत के लिए एक राष्ट्रध्वज की परिकल्पना ने जन्म लिया।
वेंकैया ने सोचा कि भारत की भी अपने राष्ट्रध्वज के रूप मे एक वैश्विक पहचान होनी चाहिए। संयोग से उस समय महात्मा गांधी भी दक्षिण अफ्रीका में ही प्रवास कर रह थे। पिंगली ने अपनी भावनाएं बताकर भारत का भी एक प्रतीक ध्वज होने की आवश्यकता को उनके सामने रखा। गोपीकृष्ण ने अपनी मां से सुने प्रसंगों का स्मरण करते हुए बताया कि एक युवा से राष्ट्रगौरव व प्रतीक की बात सुनकर गांधी जी ने इस पर काम करने के लिए कहा। इसके बाद तो पिंगली वेंकैया पर राष्ट्र को ध्वज रूपी प्रतीक देने की धुन सवार हो गई।
कई देशों का अध्ययन कर लिखी पुस्तिका
गोपीकृष्ण ने बताया कि पिंगली ने भारत का राष्ट्रध्वज तैयार करने से पहले विश्व के कई देशों के राष्ट्रीय झंडों का अध्ययन कर उस पर एक पुस्तिका प्रकाशित की। पुस्तिका के माध्यम से उन्होंने प्रश्न उठाया कि भारत की कोई गौरव पताका क्यों नहीं है। उन्होंने कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से लेकर उस समय के वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच यह पुस्तिका वितरित कर राष्ट्रध्वज की आवश्यकता और महत्व को एक चर्चा और मंथन के विषय के रूप में स्थापित किया। यही चर्चा आगे चलकर तिरंगे के निर्माण का आधार बनी।
तीन घंटे में बना दिया राष्ट्रध्वज
गोपीकृष्ण बातचीत कहते हैं कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन वर्ष 1921 में विजयवाड़ा में हुआ। वहां पहुंचने पर महात्मा गांधी को याद आया कि वहीं के रहने वाले पिंगली वेंकैया ने राष्ट्रध्वज के बारे में दक्षिण अफ्रीका में उनसे आग्रह किया था। इस बीच, स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत भारत का प्रतीक ध्वज होने की अनिवार्यता के बारे में अभियान चलाने के कारण वेंकैया कांग्रेस नेताओं के बीच चर्चित हो चुके थे। उस समय आंध्र प्रदेश के मछलीपट्टनम के एक कालेज में शिक्षण कर रहे वेंकैया तत्काल गांधी जी के बुलावे पर कांग्रेस के अधिवेशन स्थल पर आए और मात्र तीन घंटे में अपने चित्रकार दोस्त की सहायता से भारत के राष्ट्रध्वज का डिजाइन तैयार कर दिया। महात्मा गांधी ने यंग इंडिया के एक लेख में इस प्रकरण की चर्चा की है।
साहस और समृद्धि के प्रतीक लाल और हरा रंग
गोपीकृष्ण बताते हैं कि 31 मार्च 1921 को गांधी जी को सौंपी गई प्रारंभिक डिजाइन में केवल लाल और हरे रंग की पट्टी थी। इन दोनों रंगों के पीछे वेंकैय्या की भावना हरे रंग को समृद्धि और लाल रंग को आजादी की लड़ाई के प्रतीक के रूप में चित्रित करने की थी। बाद में शांति और अहिंसा के प्रतीक के रूप में सफेद पट्टी जोड़ने का सुझाव मिला। जिस पर वेंकैया ने सबसे ऊपर पतली सफेद पट्टी, बीच में हरी पट्टी और सबसे नीचे लाल पट्टी रखकर तिरंगे को आकार दिया।
इसे देखने के बाद महात्मा गांधी ने सफेद पट्टी की चौड़ाई भी बढ़ाकर लाल और हरी के बराबर करने के लिए कहा। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने सफेद, हरा और लाल रंगों की पट्टी को क्रमश: ईसाई, इस्लाम और हिंदू धर्म के प्रतीक के रूप में भी व्याख्या की। गोपीकृष्ण कहते हैं कि वेंकैया की ऐसी कोई मंशा नहीं थी।
बाद वेंकैया ने ध्वज में चरखे को भी स्थान देकर नया डिजाइन तैयार किया, लेकिन उस समय तक देर हो चुकी थी। कांग्रेस के विजयवाड़ा अधिवेशन में राष्ट्रध्वज के चयन का प्रस्ताव पेश नहीं किया जा सका। बाद में लाल रंग को केसरिया कर सफेद पट्टी को बीच में किया गया। वर्ष 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पहली बार यह तिरंगा झंडा फहराया गया। बाद में चरखे के स्थान पर अशोक स्तंभ पर बने चक्र को रखा गया।
छह भाषाओं के ज्ञाता
नाना की समृद्ध शैक्षिक व सांस्कृतिक विरासत से अभिभूत गोपीकॉष्ण बताते हैं कि पिंगली वेंकैंया छह भाषाओं के ज्ञाता थे। हिंदी, संस्कृत, तेलुगु, उर्दू, जापानी और अंग्रेजी भाषाओं में वह सिद्धहस्त थे। उनके व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण गुण जिज्ञासु होना था। वह नई चीजों को जानने की ललक में एक स्थान से दूसरे स्थान तक घूमते रहते थे। इसी क्रम में उन्होंने श्रीलंका (तब सीलोन) में अर्थशास्त्र का अध्ययन किया। लाला हंसराज द्वारा संचालित लाहौर के डीएवी कालेज में उन्होंने प्रोफेसर गोथे से जापानी भाषा सीखी।
भूगर्भशास्त्री के रूप में भारत के हीरों और रत्न पत्थरों पर पिंगली वेंकैया ने पुस्तक भी लिखी। ज्ञान अर्जन और उसे दूसरों के साथ बांटने की कला से भी वह बखूबी परिचित थे। यही कारण है कि उन्होंने कंबोडिया के लिए कपास की हाइब्रिड वैरायटी विकसित की, जिसे वेंकैया काटन कहा जाता है। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने और राष्ट्रध्वज तैयार करने बावजूद स्वतंत्रता के बाद पिंगली वेंकैया ने कभी सत्ता के निकट जाने की लालसा नहीं रखी। अपने घर-परिवार के साथ ही सिमटे रहे।
जन्म – 02 अगस्त, 1878
मृत्यु: 04 जुलाई, 1963
नहीं मिला समुचित श्रेय
सत्ता की चाकरी नहीं करने वाले राष्ट्रनायक किस तरह इतिहास के हाशिये पर जाते हैं, पिंगली वेंकैया इसके बड़े उदाहरण हैं। गोपीकृष्ण कहते हैं कि कांग्रेस के बड़े नेता पट्टाभि सीतारमैया और पिंगली वेंकैया मित्र थे। पट्टाभि ने ही कांग्रेस का आधिकारिक इतिहास लिखा है। उसमें उन्होंने भारत के राष्टध्वज के आकार लेने की कहानी चंद पंक्तियों में लिखी है। जिसमें ध्वज को आकार देने वाले पिंगली वेंकैया को केवल इतना कहकर उल्लेख किया है कि आंध्र प्रदेश के एक लड़के ने तिरंगे का डिजाइन तैयार किया था।
गांधीजी ने पिंगली वेंकैया का किया था जिक्र
मित्र होने के बाद भी उन्होंने इतिहास में पिंगली वेंकैया के नाम तक का जिक्र करना उचित नहीं समझा, वह भी तब जब पट्टाभि सीतारमैया भी उसी आंध्र प्रदेश के थे जहां पिंगली का जन्म हुआ था। अगर गांधीजी ने यंग इंडिया में पिंगली वेंकैया का तिरंगे के रचनाकार के रूप में उल्लेख नहीं किया होता तो शायद इस महान देशभक्त की स्मृतियां जनता के मानस पटल से मिट चुकी होतीं।
राष्ट्र के प्रति समर्पण
पिंगली वेंकैया के व्यक्तित्व से जुड़े किस्से बताते हुए उनके बड़े नाती वासुदेव नरसिम्हन ने बताया कि राष्ट्र के प्रति निष्काम समर्पण की वेंकैया की पराकाष्ठा यह थी कि देश की स्वतंत्रता के बाद उन्होंने किसी भी राजनीतिक दल या सत्ता केंद्र से दूरी बनाकर रखी। बुजुर्ग हो जाने के बाद अपने पैतृक गांव की झोपड़ी में अंतिम समय काटा। अंतिम दिनों में स्थानीय लोग चुपके से उनके स्वजन की अनाज और खाद्य सामग्री देकर सहायता कर दिया करते थे। वेंकैया के निधन के समय दस वर्ष के रहे नरसिम्हन ने कहा कि यदि नानाजी को यह पता चल गया होता तो उन्होंने यह सहायता लेने से भी इन्कार कर दिया होता।
हीरे की पितृ चट्टान खोजने में भी अहम योगदान
विश्व में हीरे की खोज में उसकी पितृ चट्टान की जानकारी एक अबूझ पहेली की तरह रही है। अधिकतर स्थानों पर संयोग से ही हीरे के भंडार का पता चला है। भारत में भी हीरे की खोज दक्षिण अफ्रीका में जिन चट्टानों में हीरा पाया जाता है, उन्हीं को आधार मानकर की जाती रही। इस कारण यहां अधिक सफलता नहीं मिलती थी।
नरसिम्हन बताते हैं कि तीस वर्ष के अध्ययन के बाद पिंगली वेंकैया ने पाया कि अफ्रीकी देशों और भारत में हीरे की पितृ चट्टान में अंतर है। आंध्र प्रदेश के अंनतपुर और कुरनूल जिले में हीरे की पैतृक चट्टान ग्रेनाइट है। अलग-अलग स्थान के मुताबिक हीरे की स्रोत चट्टानों की प्रकृति भी बदलती रहती है। गर्व से नरसिम्हन कहते हैं कि पिंगली वेंकैया के निष्कर्ष से उस समय हीरे की खोज में काफी मदद मिली। वेंकैया ने मद्रास प्रेसीडेंसी कालेज से माइनिंग और जियोलाजी में डिप्लोमा किया था। मछलीपट्टनम शहर के एक कालेज में उन्होंने इसका अध्यापन भी किया।
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