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धरती पर कार्बन उत्सर्जन व उसके दुष्प्रभावों को कम किया जा सकता है,कैसे?

धरती पर कार्बन उत्सर्जन व उसके दुष्प्रभावों को कम किया जा सकता है,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) की एक हालिया रिपोर्ट में यह चिंता जताई गई है कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती किए बिना ग्लोबल वार्मिग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना पहुंच से बाहर है। इस काम के लिए ऊर्जा क्षेत्र में बड़े बदलाव की आवश्यकता है और जीवाश्म ईंधन के उपयोग में भारी कमी लानी होगी। हालांकि एक कड़वा सच यह भी है कि तमाम वैज्ञानिक प्रमाणों के बावजूद न तो जीवाश्म ईंधन कंपनियों और सरकारों की जवाबदेही तय हो पा रही है, और न ही उनके खिलाफ कोई खास निषेधात्मक कार्रवाई की जाती है।

इसी उदासीनता के चलते आइपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट की तीसरी किस्त बताती है कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अब शायद आखिरी मौका ही बचा है और इस मौके का फायदा अगले आठ वर्षो में ही उठाया जा सकता है। इस काम के लिए इस दशक के अंत तक उत्सर्जन को कम से कम आधा करने के लिए नीतियों और उपायों को तेजी से लागू करना पड़ेगा।

इस रिपोर्ट में विज्ञानियों ने बताया है कि दुनिया अपने जलवायु लक्ष्यों को कैसे पूरा कर सकती है। रिपोर्ट से यह स्पष्ट है कि 2050 तक ‘नेट जीरो’ तक पहुंचना दुनिया को सबसे खराब स्थिति से बचने में मदद करेगा। हालांकि रिपोर्ट यह भी कहती है कि मौजूदा हालात ऐसे हैं कि 1.5 या दो डिग्री तो दूर, हम 2.7 डिग्री की तापमान वृद्धि की ओर अग्रसर हैं। एक और महत्वपूर्ण बात जो यह रिपोर्ट सामने लाती है कि नेट जीरो के नाम पर अमूमन पौधरोपण या कार्बन ओफसेटिंग कि बातें की जाती हैं। मगर असल जरूरत है कार्बन उत्सर्जन को ही पूरी तरह से कम किया जाए। यह जानना महत्वपूर्ण है कि इस रिपोर्ट में क्या खास संदेश हैं।

पहला, स्वच्छ और अक्षय ऊर्जा की ताकत और भंडारण से चलने वाली एक वैश्विक ऊर्जा व्यवस्था दुनिया के देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक बेहतरीन मौका देगी। जिन देशों में बेहतर कार्बन नीतियां अपनाई गईं वहां उत्सर्जन में गिरावट देखी जा रही है। अक्षय ऊर्जा में भारी प्रगति हुई है। वर्ष 2020 में 280 गीगावाट नई क्षमता जोड़ी गई, जो इसके पिछले वर्ष की तुलना में 45 गीगावाट अधिक है और 1999 के बाद से साल-दर-साल सबसे बड़ी वृद्धि है। साथ ही, उसकी लागत में तेजी से गिरावट जारी है।

दूसरा, दुनिया को जीवाश्म ईंधन के बुनियादी ढांचे को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना शुरू करना चाहिए। मौजूदा बुनियादी ढांचा अकेले ही 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य तक पहुंचना असंभव बना देगा। अगर कोई नया जीवाश्म ईंधन विस्तार न भी किया जाए, फिर भी मौजूदा ढांचे की वजह से 2025 तक वैश्विक उत्सर्जन 22 प्रतिशत अधिक होगा और 2030 तक 66 प्रतिशत अधिक होगा। साथ ही, मौजूदा ढांचे के चलते दुनिया में 846 गीगा टन कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन होना तय है। फिलहाल हालात ऐसे हैं कि कोयले में नए निवेश न करने के साथ ही कोयले से चलने वाले सभी बिजली संयंत्रों को वर्ष 2040 तक बंद करने की आवश्यकता है। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का कहना है कि जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए 2040 तक वैश्विक ऊर्जा क्षेत्र का ‘नेट जीरो’ होना जरूरी है।

तीसरा, विज्ञानियों का कहना है कि महत्वाकांक्षी पेरिस तापमान लक्ष्यों को पूरा करना संभव है, लेकिन इसके लिए आवश्यकता होगी बढ़े हुए वित्तीय निवेश की। पेरिस के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मीथेन और अन्य अल्पकालिक गैसों सहित ग्रीनहाउस गैसों की पूरी सीरीज में तेजी से शमन की आवश्यकता है। जलवायु शमन के लिए तमाम देशों द्वारा वादा की गई धनराशि पेरिस में वादा किए गए प्रति वर्ष 100 अरब डालर से काफी कम है। इसमें वृद्धि होनी चाहिए।

चौथा, जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए वातावरण से कार्बन डाइआक्साइड को खत्म करना होगा। यही वजह है कि आइपीसीसी के नेट जीरो पाथवे तीव्र और गहन उत्सर्जन कटौती पर जोर देते हैं। अधिकांश मौजूदा कार्बन निष्कासन प्रौद्योगिकियां अभी भी या तो अत्यधिक अविश्वसनीय हैं, या फिर जैव विविधता और खाद्य सुरक्षा से समझौता करने पर सफल होते हैं। बात अगर केवल पौधरोपण के माध्यम से 2050 तक नेट जीरो तक पहुंचने की हो तो कम से कम 1.6 अरब हेक्टेयर जमीन की जरूरत होगी। फिलहाल उत्सर्जन में कटौती का कोई विकल्प नहीं, इसलिए कार्बन खत्म करने की बात करने पर कार्बन उत्सर्जन को रोकने पर ही ध्यान देना होगा, क्योंकि कार्बन हटाने की मौजूदा प्रौद्योगिकी ऐसी नहीं जो जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने में मददगार सिद्ध हों।

पांचवा, वर्तमान में हम ग्लोबल वार्मिग को 1.5 डिग्री सेल्सियस या दो डिग्री सेल्सियस तक भी सीमित करने से बहुत दूर हैं। मौजूदा नीतियां सफल भी होती हैं तो वे हमें सदी के अंत तक 2.7 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक वार्मिग की ओर ले जाएंगी। पेरिस समझौते को पूरा करने के लिए हमें और अधिक काम करना होगा। विश्व के सबसे अमीर 10 प्रतिशत देश ही दुनिया के कुल उत्सर्जन के आधे के लिए जिम्मेदार हैं, जबकि शेष 90 प्रतिशत देशों का हिस्सा आधा ही है।

नीतिगत निर्णय लेने वालों को वार्मिग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए हर संभव प्रयास करने की आवश्यकता है। ध्यान रहे कि 2030 तक उत्सर्जन में कटौती में देरी करने से 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य पहुंच से बाहर हो जाएगा और इस कारण से हमारी धरती को व्यापक नुकसान की आशंका गहरा गई है। ऐसे में अगले आठ साल बेहद महत्वपूर्ण हैं और इसमें अंतरराष्ट्रीय सहयोग किस प्रकार होगा इसी से हमारा भविष्य निर्धारित होगा।

भारत की वर्तमान स्थिति

भारत मोटे तौर पर ग्रीन हाउस गैसों के कुल वैश्विक उत्सर्जन में से 6.8 प्रतिशत का हिस्सेदार है। वर्ष 1990 से 2018 के बीच भारत के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 172 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2013 से 2018 के बीच देश में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन भी 17 प्रतिशत बढ़ा है। हालांकि अभी भी भारत का उत्सर्जन स्तर जी 20 देशों के औसत स्तर से बहुत नीचे है। देश में ऊर्जा क्षेत्र अब भी ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जनकारी क्षेत्र है। भारत की कुल ऊर्जा आपूर्ति में जीवाश्म ईंधन आधारित प्लांट्स का योगदान 74 प्रतिशत, जबकि अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी 11 प्रतिशत है। देश की नीतियां वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के अनुरूप फिलहाल नहीं हैं। इसके लिए भारत को 2030 तक उत्सर्जन को 160 करोड़ टन कार्बन डाइआक्साइड के बराबर रखना होगा।

कारगर कदम उठा रही सरकार

भारत सरकार का लक्ष्य वर्ष 2027 तक 275 गीगावाट तथा 2030 तक 450 गीगावाट अक्षय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का है। अगस्त 2021 तक भारत में 100 गीगावाट स्थापित अक्षय ऊर्जा क्षमता थी। इस दिशा में तेजी से कार्य प्रगति पर है। भारतीय रेलवे वर्ष 2023 तक अपने पूरे नेटवर्क के विद्युतीकरण की योजना बना रही है और वह वर्ष 2030 तक नेट शून्य कार्बन उत्सर्जक बनने की राह पर आगे बढ़ रही है। पेट्रोल में 20 प्रतिशत एथेनाल मिलाने संबंधी वर्ष 2030 तक के लिए निर्धारित लक्ष्य को अब 2025 तक के लिए कर दिया गया है। कार्बन प्राइसिंग में सरकार ने 400 रुपये प्रति टन की दर से कोयला उत्पादन पर जीएसटी मुआवजा उपकर की शुरुआत की है। इस सभी प्रयासों से हमारा देश कार्बन से मुक्ति की राह पर अग्रसर तो है, परंतु पूरी दुनिया में इस दिशा में तेजी लाने से ही बात बनेगी।

बीते दो हजार वर्षो के इतिहास की तुलना में पिछले कुछ दशकों में धरती का तापमान बहुत तेजी से बढ़ा है। इसके लिए मानवीय गतिविधियों में निरंतर वृद्धि के कारण होने वाला ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन जिम्मेदार है। वर्ष 2010 से 2019 के बीच औसत वार्षिक वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन मानव इतिहास में अपने उच्चतम स्तर पर था। हालिया जारी इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) की रिपोर्ट में विज्ञानियों ने आगाह किया है कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए हमें अपने उत्सर्जन को शून्य स्तर पर लाना ही होगा। पर्यावरण संबंधी यह रिपोर्ट इस बात की गंभीर चेतावनी है कि जलवायु प्रणाली के साथ हो रहे खतरनाक मानवजनित हस्तक्षेप को रोकने के लिए हमें अभी भी बहुत कुछ करना शेष है।

रिपोर्ट सुझाव देती है कि हम विकास और जलवायु संबंधी कार्रवाई के प्रति अपने दृष्टिकोण को व्यापक बनाएं। जलवायु और विकास को अलग-अलग मुद्दों के रूप में नहीं देखा जा सकता। हमें यह समझना होगा कि विकास संबंधी निर्णय जलवायु से जुड़े निर्णय हैं, और जलवायु से जुड़े निर्णय विकास संबंधी निर्णय हैं। लेकिन जलवायु और विकास को एक साथ लाना चुनौतीपूर्ण है और इसके बेहतर संभावित परिणाम होंगे, जैसे रोजगार में परिवर्तन और नवोदित विकासशील उद्योगों के क्षेत्र में नए अवसर का सृजित होना।

इसीलिए आईपीसीसी की रिपोर्ट विकास के साथ ही जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के लिए ठोस दृष्टिकोण और विकल्पों की व्याख्या करती है। यह रिपोर्ट विभिन्न देशों द्वारा जलवायु नीति-निर्माण के प्रति अपनाए जाने वाले दृष्टिकोण पर भी पुनर्विचार करने का सुझाव देती है। विशिष्ट नीतियों की तुलना में एक ‘पालिसी पैकेज’ नीति रोजगार सृजन को प्रोत्साहित करते और समता को बढ़ावा देते हुए कम कार्बन वाले परिवहन और हरित बिजली जैसे परिवर्तनों को बेहतर ढंग से समर्थन दे पाएगी।

आईपीसीसी की पिछली संबंधित रिपोर्टो की तुलना में यह रिपोर्ट अंतरराष्ट्रीय और घरेलू स्तर पर समता और न्याय पर अधिक स्पष्ट रूप से ध्यान देती है। रिपोर्ट यह मानती है कि समय के साथ देशों की पृथक जिम्मेदारियों की समझ में परिवर्तन और विभिन्न देशों के उचित योगदान का आकलन करने में आने वाली चुनौतियों के बावजूद संयुक्त राष्ट्र जलवायु वार्ता में समता एक केंद्रीय कारक बना हुआ है। साथ ही देशों के भीतर उत्सर्जन और प्रभावों के वितरण पर ध्यान भी सामाजिक एकजुटता और जलवायु संबंधी उपायों की स्वीकार्यता को प्रभावित करता है।

हालांकि अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर खबरें मिश्रित हैं। यद्यपि इस तथ्य से संबंधित तमाम साक्ष्य वर्तमान में उपलब्ध हैं कि वर्ष 2015 के पेरिस समझौते जैसे अंतरराष्ट्रीय समझौते राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारण, नीति विकास और क्रियान्वयन एवं समर्थन की पारदर्शिता बढ़ाने की दिशा में काम कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद समर्थन की उपलब्धता में भारी कमियां हैं जो विकासशील देशों के लिए वर्तमान प्रतिबद्धताओं को लागू करने और समय के साथ अधिक महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय योगदानों का सामना करने को लगातार चुनौतीपूर्ण बनाएगा।

 

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