भारतीय अर्थव्यवस्था में बुज़ुर्गों को सक्रिय प्रतिभागियों में किस प्रकार बदला जा सकता है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत की कुल जनसंख्या का लगभग पाँचवाँ (20%) हिस्सा वर्ष 2050 तक वृद्ध लोगों का होगा.
अपने नागरिकों के जीवन में सुधार लाने के विषय में भारत की प्रगति को ‘जन्म के समय जीवन प्रत्याशा’ (Life Expectancy at Birth) में वृद्धि के आँकड़े के आलोक में आँका जा सकता है। UNDESA के अनुसार वर्ष 2010-15 तक भारत में जीवन प्रत्याशा (67.5 वर्ष) 70.5 वर्ष के वैश्विक औसत के लगभग करीब पहुँच चुकी थी।
जीवन प्रत्याशा में वृद्धि के परिणामस्वरूप भारत में वृद्ध लोगों की संख्या वर्ष 2050 तक 300 मिलियन (कुल जनसंख्या का ~20%) तक पहुँच जाने की उम्मीद है।
बढ़ती वृद्ध आबादी की चुनौतियाँ भारत के समक्ष मौजूद एक बड़ी समस्या है, जबकि भारत अन्य विकास चुनौतियों को भी अभी पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं कर सका है। इस संदर्भ में भारत को आर्थिक और सामाजिक रूप से आगे बढ़ने के लिये अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।
भारत में वृद्ध आबादी
- जीवन प्रत्याशा में वृद्धि के निहितार्थ: भारत में जीवन प्रत्याशा 50 (वर्ष 1970-75) से बढ़कर लगभग 70 वर्ष (वर्ष 2014-18) हो गई है, जिसके परिणामस्वरूप वृद्धों (>60 वर्ष की आयु) की संख्या पहले ही 137 मिलियन तक पहुँच चुकी है और वर्ष 2031 तक 40% वृद्धि के साथ इसके 195 मिलियन और वर्ष 2050 तक 300 मिलियन होने की उम्मीद है।
- बढ़ती वृद्ध आबादी और मानव संसाधन के रूप में उनका अल्प-उपयोग: यद्यपि एक दृष्टिकोण के तहत उन्हें आश्रितों के रूप में देखता है, एक दूसरा दृष्टिकोण उन्हें एक संभावनाशील संपत्ति के रूप में देखता है जो अनुभवी, ज्ञान-संपन्न लोगों का एक विशाल संसाधन है।
- समुदायों के जीवन में वृद्धों को एकीकृत करना सामाजिक स्थितियों में सुधार हेतु महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकता है।
- वृद्ध आबादी और अर्थव्यवस्था: बुज़ुर्ग लोग अपने व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन का अपार अनुभव रखते हैं, जिसका व्यापक रूप से एक बेहतर भविष्य के लिये सदुपयोग किया जा सकता है।
- अर्थव्यवस्था में सक्रिय योगदानकर्त्ताओं के रूप में बुज़ुर्गों को शामिल करना भारत को बेहतर भविष्य के लिये तैयार करेगा।
- ‘सिल्वर इकॉनमी’ का बढ़ता महत्त्व: सिल्वर इकॉनमी (Silver economy) वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन, वितरण और खपत की एक ऐसी प्रणाली है, जिसका उद्देश्य वृद्ध और वृद्धावस्था की ओर बढ़ते लोगों की क्रय क्षमता का उपयोग करना और उनके उपभोग, जीवन और स्वास्थ्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करना है।
- ‘सिल्वर इकॉनमी’ के प्रोत्साहन के लिये ‘सीनियर केयर एजिंग ग्रोथ इंजन’ (SAGE) पहल और ’SACRED’ पोर्टल जैसी कुछ विशेष पहलों की शुरुआत की गई है।
बुज़ुर्गों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के मार्ग की चुनौतियाँ
- बदलती स्वास्थ्य देखभाल आवश्यकताएँ: एक ऐसी जनसांख्यिकीय में, जहाँ वृद्ध आबादी की वृद्धि दर युवा आबादी की तुलना में कहीं अधिक है, सबसे बड़ी चुनौती बुज़ुर्गों को गुणवत्तापूर्ण, सस्ती और सुलभ स्वास्थ्य एवं देखभाल सेवाएँ प्रदान करना है।
- उन्हें घर पर उपलब्ध विभिन्न विशिष्ट चिकित्सा सेवाओं की आवश्यकता हैं जिनमें टेली या होम कंसल्टेशन, फिज़ियोथेरेपी एवं पुनर्वास सेवाएँ, मानसिक स्वास्थ्य परामर्श व उपचार के साथ-साथ फार्मास्यूटिकल एवं डायग्नोस्टिक सेवाएँ शामिल हैं।
- भारत का न्यून HAQ स्कोर: स्वास्थ्य सेवा सुलभता और गुणवत्ता सूचकांक (Healthcare Access and Quality Index- HAQ) 2016 के अनुसार भारत 41.2 के स्कोर के साथ अभी भी 54 अंक के वैश्विक औसत से काफी नीचे है और 195 देशों की सूची में 145वाँ स्थान ही प्राप्त कर सका है।
- छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में HAQ स्कोर की स्थिति और भी बदतर है जहाँ बुनियादी गुणवत्तायुक्त स्वास्थ्य देखभाल सेवाएँ बेहद अपर्याप्त हैं।
- सामाजिक समस्याएँ: पारिवारिक उपेक्षा, निम्न शिक्षा स्तर, सामाजिक-सांस्कृतिक धारणाएँ एवं कलंक, संस्थागत स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर कम भरोसे जैसे कारक बुजुर्गों के लिये परिदृश्य को और कठिन बना देते हैं।
- सुविधाओं तक पहुँच में असमानता बुज़ुर्गों के लिये समस्याओं को और बढ़ा देती है, जो पहले से ही शारीरिक, आर्थिक और कई बार मनोवैज्ञानिक रूप से इन सेवाओं को समझ सकने और ऐसी सुविधाओं का लाभ उठा सकने में अक्षम होते हैं। परिणामस्वरूप उनमें से अधिकांश लोगों को उपेक्षित जीवन जीने को बाध्य रहना पड़ता है।
- स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और अनुत्पादकता का दुष्चक्र: वृद्ध आबादी का एक बड़ा भाग निम्न सामाजिक-आर्थिक स्तर से संबद्ध है।
- आजीविका कमा सकने की उनकी असमर्थता के कारण बदतर स्वास्थ्य और स्वास्थ्य की अवहनीय लागत का दुष्चक्र और तीव्र हो जाता है।
- नतीजतन, वे न केवल आर्थिक रूप से अनुत्पादक बने रहते हैं बल्कि यह उनकी मानसिक एवं भावनात्मक समस्याओं में भी योगदान करता है।
- कल्याण योजनाओं की अपर्याप्तता: आयुष्मान भारत और विभिन्न सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा योजनाओं के बावजूद नीति आयोग की एक रिपोर्ट से ज्ञात होता है कि 400 मिलियन भारतीयों को उनके स्वास्थ्य व्यय के लिये कोई वित्तीय कवर प्राप्त नहीं है।
- केंद्र और राज्य स्तर पर पेंशन योजनाओं की मौजूदगी के बावजूद कुछ राज्यों में 350 रुपए से 400 रुपए प्रति माह तक की मामूली राशि ही प्रदान की जाती है और यह भी सार्वभौमिक रूप से प्रदान नहीं की जाती।
- अर्थव्यवस्था में वृद्धों के समावेशन की चुनौतियाँ: अर्थव्यवस्था में वृद्धों को सक्रिय भागीदार के रूप में शामिल करने के लिये उन्हें फिर से कुशलता प्रदान करने (Reskilling) और नवीनतम तकनीकों से अवगत कराने की आवश्यकता होगी, ताकि उन्हें वर्तमान ‘टेक-सैवी’ पीढ़ी के समान तैयार किया जा सके।
- व्यापक पैमाने पर बुजुर्ग आबादी की ‘रिस्कीलिंग’ के लिये उपयुक्त प्रौद्योगिकी, मानव संसाधन और अन्य सुविधाएँ सुनिश्चित करना चुनौतीपूर्ण है।
आगे की राह
- स्वास्थ्य संबंधी ‘एल्डरली-फर्स्ट’ दृष्टिकोण: कोविड-19 टीकाकरण रणनीति में वरिष्ठ नागरिकों को प्राथमिकता देने के दृष्टिकोण के कारण अक्तूबर 2021 तक बुज़ुर्ग आबादी के 73% से अधिक को कम-से-कम एक खुराक और लगभग 40% को दो खुराक प्रदान किये जा चुके हैं।
- जनसांख्यिकीय प्रवृत्तियों को देखते हुए भारत को अगले कुछ दशकों के लिये अपनी संपूर्ण स्वास्थ्य देखभाल नीति की पुनर्कल्पना करनी चाहिये, जहाँ वृद्ध आबादी को प्राथमिकता देने के दृष्टिकोण पर अमल किया जाए।
- चूँकि वरिष्ठ नागरिकों को स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं की सर्वाधिक विविध श्रेणी की आवश्यकता होती है, इसलिये उनके लिये पर्याप्त सेवाओं के सृजन से अन्य सभी आयु समूहों को भी लाभ प्राप्त होगा।
- सरकार की भूमिका: भारत को अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल व्यय में तेज़ी से वृद्धि करने की आवश्यकता है, जहाँ सुसज्जित एवं पर्याप्त कर्मियों की उपस्थिति वाली चिकित्सा देखभाल सुविधाओं और घरेलू स्वास्थ्य देखभाल व पुनर्वास सेवाओं के निर्माण में भारी निवेश किया जाए।
- साथ ही ‘राष्ट्रीय बुजुर्ग स्वास्थ्य देखभाल कार्यक्रम’ (NPHCE) जैसे कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में तेज़ी लाने की आवश्यकता है।
- आयुष्मान भारत और PM-JAY पारिस्थितिकी तंत्र को और अधिक विस्तारित किया जाना चाहिये और आर्थिक रूप से संवेदनशील वरिष्ठ नागरिकों के लिये सदृश, विशेष स्वास्थ्य देखभाल कवरेज योजनाओं एवं सेवाओं का सृजन किया जाना चाहिये।
- बुज़ुर्गों का सामाजिक-आर्थिक समावेशन: यूरोप की तरह, जहाँ बुजुर्गों की देखभाल करने और उन्हें संबंधित सुविधाएँ प्रदान करने के लिये छोटे समुदाय मौजूद हैं, भारत दूर-दराज के क्षेत्रों में बुज़ुर्गों की सहायता के लिये एक ‘युवा सेना’ का निर्माण कर सकता है।
- बुज़ुर्ग आबादी का आर्थिक और सामाजिक लाभ प्राप्त कर सकने का सर्वोत्कृष्ट तरीका यह होगा कि उन्हें शेष आबादी से पृथक न किया जाए बल्कि उन्हें मुख्यधारा आबादी में ही आत्मसात किया जाए।
- बुज़ुर्ग-समावेशी नीतियाँ, जो बुज़ुर्गों के बड़े वर्ग को कल्याणकारी योजनाओं के दायरे में लाती हैं, उन्हें अंतिम दूरी तक कवरेज सुनिश्चित कर सकने हेतु तैयार किया जाएगा।
- बुज़ुर्ग महिलाओं पर विशेष ध्यान: सामाजिक-आर्थिक उत्थान के संदर्भ में बुज़ुर्ग महिलाओं पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये, क्योंकि महिलाओं की आयु पुरुषों की तुलना में अधिक होती है।
- वृद्ध महिलाओं के लिये अवसरों की अनुपलब्धता उन्हें दूसरों पर निर्भर बना देगी, जिससे उनका अस्तित्व कई कमज़ोरियों का शिकार होगा।
निष्कर्ष
वास्तव में विकसित देश होने का प्रमाण इस बात में निहित है कि वह न केवल अपनी युवा आबादी का पालन-पोषण करता है बल्कि अपने वृद्धों की भी समान रूप से देखभाल करता है। ‘‘जनसांख्यिकीय लाभांश’’ को एक पूरी तरह से अलग दृष्टिकोण प्रदान करते हुए सामाजिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक विकास के लिये वृद्ध आबादी को एक विशाल संसाधन में बदलने हेतु आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिये।
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