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कथक सम्राट बृज मोहन मिश्र से कैसे बने बिरजू महाराज? - श्रीनारद मीडिया

कथक सम्राट बृज मोहन मिश्र से कैसे बने बिरजू महाराज?

कथक सम्राट बृज मोहन मिश्र से कैसे बने बिरजू महाराज?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

दुनिया भर में अपने कथक नृत्य से हर किसी को कायल कर देने वाले पंडित बिरजू महाराज अब नहीं रहे। रविवार को नृत्य दुनिया के मशहूर 83 वर्षीय बिरजू महाराज की हार्ट अटैक से मौत हो गई। उनके निधन पर संगीत जगत में शोक की लहर है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शोक व्यक्त किया है।‌ आठ वर्ष पूर्व बिरजू महराज ने एक खास साक्षात्‍कार में अपने जीवन के अनछुए पहलुओं के बारे में बताया था। आज जब वह हमारे बीच नहीं है तो यह जरूरी है कि हम अपने यूजर्स को उनके खास पहलुओं के बारे में बताएं।

1- आप बृज मोहन मिश्र से बिरजू महाराज कैसे बन गए ? इस सवाल के जबाव में उन्‍होंने कहा था कि यह संगीत घराने की परंपरा है। एक नाम संस्कार से मिला और एक कर्म से मिला। संस्कार का नाम समय के साथ दब गया और कर्म का नाम कर्म की गति के साथ आगे बढ़ गया। अब तो बृज मोहन मिश्र जानने वाले ही थोड़े से लोग बचे हैं। मैंने अपने बहुत कम उम्र में कैरियर की शुरुआत की। उस वक्त मैं मात्र छह साल का था, मेरी नृत्य कला को देख बड़े बुजुर्गो ने प्यार से बिरजू कहना शुरू कर दिया और समय के साथ यह नाम रूढ़ हो गया।

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2- आपको कथक नृत्य की शिक्षा कहां से मिली ? इसके उत्‍तर में उन्‍होंने कहा था कि यह तो विरासत में मिली है। यह कई पीढि़यों से चला आ रहा एक कर्म है, एक तपस्या है। यह हमारी वंश परंपरा है। हमारे वंशज तो राज दरबार से जुड़े लोग थे। हम कह सकते हैं कि हम लोग दरबारी लोग थे। पहले हिंदू राजा के दरबार में हमारे पूर्वज कथा सुनाया करते थे, बाद में मुगलिया काल तक आते-आते यह कथा की विधा कथक नृत्य में तब्दील हो गई।

3- कथक नृत्‍य के क्षेत्र में आपने अपना गुरु किसे बनाया ? इस पर उन्‍होंने कहा था कि मैंने कथक की तकनीकी शिक्षा पिता और चाचा से ग्रहण की। चाचा लच्छू महाराज जी अपने समय के एक बड़े कलाकार थे। उन्होंने बालीवुड में बड़ी फिल्मों जैसे पाकीजा, तीसरी कसम, मुगल-ए-आजम आदि फिल्मों में नृत्य का निर्देशन किया। मीना कुमारी और मधुबाला उनकी शागिर्द रहीं। हमारे पिता श्री दुर्गा प्रसाद मिश्र जी रामपुर राजा के दरबार में थे। उनसे काफी कुछ सीखने को मिला। हमने छह वर्ष की उम्र से रामपुर दरबार में नृत्य किया। हालांकि पिता ने बहुत कम उम्र में साथ छोड़ दिया और फिर जीवन में संघर्ष का एक नया दौर शुरू हुआ।

4- पिता के नहीं रहने पर कथक का सिलसिला कैसे आगे बढ़ा ? इस प्रश्‍न के उत्‍तर में उन्‍होंने कहा था कि यह हमारे लिए और परिवार के लिए संघर्ष का दौर था। बहुत मुश्किलों का समय था। बहुत छोटी उम्र में हमने न केवल एक पिता खोया, बल्कि एक गुरु भी खो दिया था। किसी तरह जीवन खिसक रहा था। 14 वर्ष की उम्र में मुझे मंडी हाउस स्थित कथक केंद्र में नौकरी मिल गई। इसके बाद जीवन धीर-धीरे पटरी पर लौटने लगा।

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5- आपको किस उम्र में ख्याति मिली, यूं कहा जाए कि आपके नृत्य को पहचान कब मिली? छह साल की उम्र में मैंने घरेलू और बैठकों में कथक करना शुरू कर दिया था। उस जमाने में कलकत्ता [अब, कोलकाता] में मनमतुनाथ घोष के यहां बड़ी कांफ्रेंस हुआ करती थी। यहां देश के श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित कलाकारों का जमावाड़ा लगा करता था। यहां हमारे पिता और चाचा नृत्य कर चुके थे। 14 वर्ष की उम्र में मुझे भी यहां नृत्य के प्रदर्शन का मौका मिला। यहां के प्रदर्शन ने एक ही रात में मुझे हीरो बना दिया। इस प्रदर्शन की धूम मुंबई तक पहुंची। यह कार्यक्रम हमारे लिए जिंदगी का एक निर्णायक मोड़ था।

6- दरबारी संस्कृति में कथक के विकास को क्या गति मिली ? इस सवाल के जवाब में उन्‍होंने कहा था, देखिए, मेरे पूर्वज दरबारी थे। वह नवाब वाजिद अली के दरबार में रहा करते थे। मैं दावे से कह सकता हूं कि इस युग में कथक के विकास को एक नई गति मिली। कथक को राज्य यानी सुल्तान या बादशाह का संरक्षण प्राप्त था।

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7- इन छह दशकों में कथक शैली में किस तरह का बदलाव आया है? इसके उत्‍तर मेंबिरजू महराज ने कहा था कि मैं तो अच्छा बदलाव महसूस करता हूं। तकनीकी विकास से निश्चित रूप से नृत्य कला और भी संपन्न हुई है। शास्त्रीय नृत्य के प्रति लोगों का रुझान और तेजी से बढ़ा है। इसमें नित नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। हां, आज दरकार इस बात की है इसका इस्तेमाल बहुत संभलकर व सावधानी से किया जाए। हमें नृत्य या संगीत की मूल भावना से छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए।

8- प्रस्तुति या प्रभाव में गायन या नृत्य में कौन सी विधा ज्यादा शक्तिशाली है? इस सवाल पर उन्‍होंने कहा था कि गायन और नृत्य दोनों संगीत की दो अलग-अलग विधा भले हो पर इसकी आत्मा एक है। इसका रस एक है। यह एक तत्व है। अगर दर्शन में समझाएं, तो यह द्वैत नहीं, अद्वैत दर्शन है। सच यह है कि जो संगीत जानता है वह इस रस को समझता है। यह संगीत चाहे गले से सुर के रूप में प्रस्फुटित हो या फिर शरीर के किसी अंग में थिरके, उसे संगीत के तत्व को समझने वाला जरूर महसूस करता है। मेरा मानना है कि असल कलाकार तो वही है, जो इस आत्मा की आवाज को सुने।

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9- गुरु-शिष्य की परंपरा में एक बड़ी गिरावट आई है, आप सहमत हैं? इसके उत्‍तर में उन्‍होंने कहा था कि जी बिल्कुल गिरावट आई है। गुरु-शिष्य परंपरा में भी बाजारवाद हावी है। अब न उस तरह के गुरु हैं और न ही शिष्य। कोई कामचलाऊ गुरु है तो कोई कॉर्मिशयल गुरु है, जबकि गुरु-शिष्य परंपरा में आत्मा का मिलन होना अत्यंत जरूरी है। यही तत्व इसे आगे तक ले जाता है।

10- बिरजू बनने के लिए क्या करना पड़ता है? इस सवाल के उत्‍तर में कथक शिरोमणि ने कहा था कि बिरजू कभी गति की ओर नहीं भागा। वह कर्म करता रहा और संगीत के प्रति साधना करता रहा। गुरु के प्रति अगाध आस्था थी। गुरु ने जो भी सिखाया उसका निष्ठुरता के साथ अभ्यास करता रहा। समय के साथ उसके समर्थकों ने उसे आंखों में बिठाया और बिरजू महाराज बना दिया। 27 वर्ष की अवस्था में अकादमी पुरस्कार मिला। 1984 में पद्म विभूषण सम्मान से तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने सम्मानित किया था।

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