कैसे भारत के लोककंठ में समा गई चरखे की लय पर गांधी के गीत?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सत्याग्रह आंदोलन ने महात्मा गांधी को भारतीय जनमानस में बापू की प्रतिष्ठा दी। बापू अर्थात पिता। जिस प्रकार पिता से मन की पीड़ा कही जाती है और पिता से ही संकट में रक्षा की प्रार्थना की जाती है, ऐसी ही अशेष प्रार्थनाएं गांधी गीतों के रूप में आज भी भारत के लोककंठ में समाई हुई हैं।  महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर मालिनी अवस्थी बता रही हैं कि बापू के आह्वान और स्वराज आंदोलन का समाज में कितना व्यापक प्रभाव पड़ा, इसका अंदाजा लोकगीतों से ही होता है…

‘इक ठे रहले गांधी बाबा भारत माई के ललना

सत्याग्रह के भरलें हुंकार रे चंपारन में’

स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव की इस बेला में महात्मा गांधी के बलिदान दिवस पर आज जब उन्हें याद कर रही हूं तो सहसा ही दिमाग में कौंध उठता है चंपारण का नाम, जहां से उन्होंने भारत में सत्याग्रह की पहली विजय का शंख फूंका और भारतीय लोकमानस के हृदयदेश में ठीक उसी प्रकार प्रतिष्ठित हो गए जैसे भगवान राम और श्रीकृष्ण! पहली बार किसी ने दमित, शोषित व अपमानित निरीह किसानों के लिए ब्रिटिश सरकार से मोर्चा लिया था। सत्याग्रह आंदोलन ने महात्मा गांधी को घर-घर का बापू बना दिया। एक लोकगीत का भाव—

‘अवतार महात्मा गांधी कै

भारत कै भार उतारै कां

सिरी राम मारे रावण कां

सिरी किसन मारे कंसा का

गांधी जी जग मां परगट भये

अन्यायी राज हटावै का।’

आज भी भारत की गांवों-गलियों में गूंजते इन लोकगीतों में महात्मा गांधी का जनमानस पर व्यापक प्रभाव दिखता है तो मन लोकचेतना की प्रभावमयी शक्ति के आगे नतमस्तक और चकित हो जाता है। उस एक आंदोलन के बाद गांधी सबके अपने हो चुके थे। -‘ गांधी तेरो सुराज सपनवा हरि मोर पूरा करिहे न। ’ शहीद दिवस भारत माता के लिए सर्वस्व न्योछावर कर देने वाले महात्मा गांधी को कृतज्ञतापूर्वक नमन करने का दिन है।

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जन-जन तक पहुंची गाथाएं : जब भी भारत की स्वाधीनता की गाथा गाई जाएगी, उनमें शहीदों की गाथाएं अवश्य गाई जाएंगी। आज हम वीर भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद की बात करते हैं, लेकिन आप सोचिए कि इनकी कथाएं हमें कैसे मालूम हैं? जब देश पराधीन था, उस समय भी राणा प्रताप सिंह, वीर शिवाजी की गाथाएं गांव-गांव में गाई-सुनाई जाती थीं।

बच्चा-बच्चा इन लोकगीतों को गाता था। तब जनसंचार के माध्यम ज्यादा विकसित नहीं थे। उस स्थिति में भी स्वाधीनता के नायकों की गाथाएं गांव-गांव में सुनाई जाती रहीं, इसका कारण भारतीय लोक है। भारतीय लोककलाओं ने इन नायकों की कहानियों को जन-जन तक पहुंचाया और भारतीयों की पहले से प्रखर राजनीतिक चेतना को और प्रखर किया।

‘कितने वीर झूले भारत में झुलनवा

झुलाइस बेईमान झूलना

कितने वीर झूले भारत में झुलनवा

झुलाइस बेईमान झूलना

झूले वीर भगत सिंह , झूले चंद्रशेखर आजाद

इलाहाबाद, कंपनीबाग के दरमियनवा

झुलाइस बेईमान झूलना

कितने वीर झूले भारत में झुलनवा

झुलाइस बेईमान झूलना’।

लोकचेतना में पहुंचे आंदोलन : एक ओर जहां देश की स्वाधीनता के लिए मर-मिट जाने वाले रणबांकुरों ने देश में स्वाधीनता की अलख जगाई हुई थी तो वहीं महात्मा गांधी के रूप में देश को ऐसा नायक मिला जिनकी छत्रछाया में संपूर्ण देश एक हो गया। महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत संगठित होकर देश को दमनकारी अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने की दिशा की ओर बढ़ा।

असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह, विदेशी वस्त्रों की होली, अंग्रेजों भारत छोड़ो जैसे सभी आंदोलनों को गति प्रदान करने में भारत की लोकचेतना का कितना बड़ा हाथ है, इसका अनुमान इन गीतों को सुनकर ही होता है। स्त्री सशक्तीकरण की शानदार मिसाल हैं ये गीत। बृज का एक रसिया देखिए और समझिए कि जिसमें पत्नी पति से क्या कहती है-

‘ये रसिया गा गाकर सुनावो

गांधी का पैगाम सुनावो

करो नमक तैयार

प्रीतम चलूं तुम्हारे संग

जंग में पकड़ूंगी तलवार।’

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चरखा बना प्रभावी संदेश : आज स्त्री सशक्तीकरण की इतनी बातें होती हैं और नारे लगाए जाते हैं, लेकिन यह कितने कमाल की बात है कि आज से 100 वर्ष पूर्व बापू ने नारी शिक्षा, नारी अधिकार और नारी स्वावलंबन का इतना प्रभावी संदेश दिया कि लोकगीतों में जा समाए और उनका चरखा स्वाभिमान का प्रतीक बन गया। चरखा चलाना मानो समाज का धर्म ही बन गया-

‘अब हम कातब चरखवा,

पिया मति जाहु बिदेसवा।

मिलिहै एही से सुराजवा,

पिया मति जाहु बिदेसवा।।

गांधी के मानो सनेसवा

कहवारे गांधी जी कि चरखा चलावहु

एही से हटिहे कलेसवा।

पिया मति जाहु बिदेसवा।।’

बापू ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई तो इसका समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा और स्वदेशी अपनाने की मुहिम ने लोकगीतों से गति पाई। उस समय एक गीत तो ऐसा चला जिसका चौतरफा प्रभाव देख अंग्रेजों ने उसे प्रतिबंधित कर दिया। उस गीत में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करती हुई एक स्त्री के बोलों का सुंदर वर्णन है-

‘है हुक्म गांधी का चरखा चलाइए

करघे पर बैठकर कपड़ा बनाइए

करो स्वदेशी पर तन-मन निसार’

एक और उदाहरण कि,

‘अपने हाथे चरखा चलउबै, हमार कोऊ का करिहैं,

गांधी बाबा से लगन लगउबै, हमार कोऊ का करिहैं।।

सासू ननद चाहे मारैं गरियावैं,

चरखा कातब नाहीं छोड़बै, हमार कोऊ का करिहैं।।’

यहां गांव की एक स्त्री कहती है कि अपने हाथ से चरखा चलाऊंगी, गांधी बाबा से लगन लगाऊंगी, सास-ननद चाहे गाली दें, चरखा कातना नहीं छोडूंगी।

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पवित्र लोकसत्ता को स्वीकार्यता : लोकगीतों की खोज की यात्रा में एक बार गोरखपुर में ऐसा गीत सुना, जिसमें सरलमना ग्रामवासियों ने धनलोलुप अंग्रेजों की नीयत पर सवाल उठाते हुए उन्हें अपने देश लौट जाने की चेतावनी दी है। यह गीत स्पष्ट प्रमाण है कि भारत में तब तक महात्मा गांधी की लोकसत्ता पवित्र मानी जा चुकी थी-

‘जइसन खरा रुपैया चांदी का

वइसन राज महात्मा गांधी का

चेतो रे चेतो फिरंगिया

ई त राज महात्मा गांधी का

पैसा के लोभी फिरंगिया

धुवां मा गाड़ी उड़ाए लिए जाए।’

ऐसी एक और कहावत भी तब तक घर-घर में चल निकली थी-

‘एक चवन्नी चांदी की

जय बोल महात्मा गांधी की।।’

नहीं मिला उचित सम्मान : बापू के आह्वान और स्वराज आंदोलन का समाज में कितना व्यापक प्रभाव पड़ा, इसका अंदाजा लोकगीतों से ही होता है जिनमें स्त्रियां उन्हें देश का तारनहार मानकर सहायता के लिए गुहारती दिखाई देती हैं। हमारे जो बड़े-बड़े कवि, साहित्यकार और रचनाकार थे और जिन्होंने देश के लिए, देश की स्वाधीनता के लिए लिखा तो हमने उनकी कविताओं को उचित सम्मान दिया और उनकी रचनाओं को पाठ्यक्रमों में शामिल किया।

यही सही था और उचित भी, लेकिन बड़ा दुख होता है जब दूसरी ओर अशेष अनजाने लोकगीत और लोकविधाओं में पिरोए हुए क्रांति के गीत, स्वाधीनता के गीत, अमर नायकों की गाथाएं आल्हा-बिरहा-पवारा के रूप में गाए-सुनाए गए परंतु उनका मूल्यांकन आज तक नहीं किया गया। हमने कभी इनके इनके रचनाकारों को तलाशने की कोशिश नहीं की। उन्हें उचित मान-सम्मान देने की कोशिश नहीं की।

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समृद्ध थीं हमारी नीतियां : हमारे बारे में, हमारे देश की महिलाओं के बारे में अंग्रेजों ने पूरी दुनिया में यह झूठ फैलाया कि यहां के लोग असभ्य हैं, यहां की महिलाएं पर्दे में रहती हंै और कुछ कर नहीं सकतीं। उन्हीं स्त्रियों ने इसका महत्व समझा कि देश को स्वतंत्र कराने के लिए कौन से गीत गुनगुनाने होंगे और नई पीढ़ी तक पहुंचाने होंगे। किन स्वतंत्रता सेनानियों की अमर गाथाएं गानी होंगी, किन गीतों को गाकर युवाओं में राष्ट्रप्रेम जगाना होगा। इसे हमारे देश की स्त्रियों ने समझा।

यही कारण है कि तराइन का युद्ध, जो पृथ्वीराज चौहान ने लड़ा था, उसके आल्हा आज भी गाए जाते हैं। आप देखिए कि उस वक्त हमारी शासन नीति, राजनीति, लोकनीति और कूटनीति कितनी समृद्ध रही है। लोगों की राजनीतिक और कूटनीतिक समझ कितनी आगे थी, लेकिन जब ब्रिटिश शासन आता है तो उसके खिलाफ जिस प्रकार के घृणा का भाव जनमानस के भीतर दिखता है, उसको गीत के रूप में गाकर हमारे लोक कलाकारों ने हमारी स्वाधीनता की लड़ाई को मजबूत किया-

‘फिरंगिया से देसवा के बचाव रे भगवान

बोलिया तिरबीर बोले रे फिरंगिया

हमरी देसवा के बोलिया बचाव रे भगवान

फिरंगिया से देसवा के बचाव रे भगवान।’

अर्थात समाज को चिंता है कि ये जो फिरंगी आए हैं, वे हमारी बोली का नाश कर देंगे और बोली जब नष्ट हो जाएगी तो फिर हम भी कहां शेष रहेंगे।

अछूता नहीं रहा कोई वर्ग : तब का समाज सोच रहा था कि यदि हमारी बोली गई, वाणी गई तो हमारी संस्कृति भी गई और फिर हमारे पास कुछ भी शेष नहीं रह जाएगा। तब के लोग यह न केवल सोच रहे थे, बल्कि इसे बचाने के लिए प्रयत्नशील भी थे। यही कारण है कि देश को पराधीनता से मुक्त कराने में कलाकारों का बड़ा योगदान रहा। हालांकि खेद की बात है कि हम बहुत से क्रांतिकारियों, नेताओं का नाम लेते हैं, लेकिन कलाकारों का नाम नहीं लेते कि कैसे उन्होंने स्वाधीनता की लड़ाई में अपना योगदान किया। महात्मा गांधी का प्रभाव अत्यंत व्यापक था।

समाज का कोई भी वर्ग या क्षेत्र उनके प्रभाव से अछूता न रहा। उनका व्यक्तित्व इतना विराट था कि बड़ी-बड़ी गानेवालियां अंग्रेजों से लड़ने बाहर निकल आईं। प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर ने अपनी पुस्तक ‘ये कोठेवालियां’ में लिखा है कि काशी की प्रसिद्ध गायिका विद्याधरी बाई ने महात्मा गांधी से भेंट की और उसके बाद उन्होंने रवायत बना ली कि अपनी हर महफिल में या तो वंदेमातरम् सुनातीं या स्वाधीनता का कोई अन्य तराना। इसी के बाद एक बार बनारस में हुस्नाबाई की अध्यक्षता में अनेक नामी गायिकाओं ने एक सभा की जिसमें वे गहनों की जगह हाथ में लोहे के कंगन पहनकर आईं और उनके आह्वान पर यह अमर गीत रचा-

‘चुन चुन के फूल ले लो अरमान रह न जाए,’

ये हिंद का बगीचा गुलजार रह न जाए।

ये वो चमन नहीं है लेने से वो उजाड़

उल्फत का जिसमें कुछ भी एहसान रह ना जाए

भर दो जवान बंदों जेलों में चाहे भर दो

माता पे कोई होता कुर्बान न रह जाए।।’

आज भी हैं सांस्कृतिक गुलाम : हम भले ही राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हों, लेकिन आज भी अंग्रेजों के सांस्कृतिक गुलाम हैं। अनेक अवसरों पर हमारी मानसिक दासता हमें पीछे खींच लेती है। स्वतंत्रता के इस पवित्र अमृत महोत्सव में यह संकल्प हम सबको लेना ही चाहिए और लेना ही होगा कि अपनी संस्कृति और अपने लोक से जुड़ाव बनाएंगे, बना है तो बढ़ाएंगे और यदि बढ़ा हुआ है तो उसमें उत्तरोत्तर बढ़ोतरी करते जाएंगे और अपने साथ दूसरों को भी आगे लाएंगे।

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