इंदिरा गांधी ने भूगोल को वैश्विक स्तर पर मान्यता दिलाई,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
पाकिस्तान की 56 प्रतिशत आबादी पूर्वी पाकिस्तान में रहती थी, जो बांग्ला भाषा बोलती थी। जबकि पश्चिमी पाकिस्तान में पंजाबी, सिंधी, बलूची, पश्तो समेत अन्य स्थानीय भाषाओं को बोलने वाले लोग रहते थे। भारत से पलायन कर पाकिस्तान पहुंचे मुस्लिम भी यहीं रहते थे, जिन्हें शरणार्थी कहा जाता था।
56% आबादी की भाषा को नहीं मिली तवज्जो
गौर करने वाली बात यह है कि पश्चिमी पाकिस्तान में बांग्ला भाषा बोलने वाले लोग न के बराबर थे। इस बारे में डच प्रोफेसर विलियम वॉन शिंडल ने अपनी किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ बांग्लादेश’ में लिखा है,’ पश्चिमी पाकिस्तान में रहने वाले पश्चिमी पंजाब के मुसलमान ही देश के लिए अच्छे-बुरे सभी फैसले करते थे। देश की बागडोर इन्हीं के हाथों में थी। इनका मानना था कि बांग्ला भाषा पर हिंदुओं का असर है। इसलिए बांग्ला भाषा में कोई राजकीय कामकाज नहीं हो सकता।’
बांग्ला भाषा को लेकर हुआ आंदोलन, कई छात्रों को गंवानी पड़ी जान
किसी की भी भाषा को दबाने का मतलब होता है कि आप उसकी संस्कृति मिटा रहे हैं। पाकिस्तान में ऐसा ही हुआ। 1952 में बांग्ला भाषा को लेकर आंदोलन हुआ, जिसमें कई छात्रों को अपनी जान गंवानी पड़ी। ये तो सिर्फ शुरुआत थी।भाषा के अलावा आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर पूर्वी पाकिस्तानियों के प्रति बेहद दोयम दर्जे का रवैया अपनाया जाता था। पूर्वी पाकिस्तानियों के खिलाफ अपमानजनक शब्द इस्तेमाल किए जाते। उनको कमजोर और हीन माना जाता। पुलिस के पास अपनी व्यथा लेकर जाते तो पुलिस भी उन पर ही जुर्म ढहाती थी।हालात ये थे कि शासन और प्रशासन उनकी सुन नहीं रहा था। लोगों में गुस्सा भरता गया। अपने अधिकारों की मांग करते उन्होंने स्वतंत्र राष्ट्र की मांग शुरू कर दी। इसके लिए एक सेना भी बनी, जिसका नाम रखा गया- मुक्ति वाहिनी। इसी का परिणाम था- 1971 का वाॅर और बांग्लादेश के तौर पर नया राष्ट्र का जन्म।
आवाज उठाने वाले पर मुकदमा
पूर्वी पाकिस्तान की राजनीतिक पार्टी अवामी लीग के प्रमुख शेख मुजीबुर्रहमान ने पूर्वी प्रांत के प्रति राजनीतिक असमानता और आर्थिक भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। 1965 की जंग के बाद लाहौर में शेख मुजीबुर रहमान ने कहा कि दोनों प्रांतों के आर्थिक विकास में एकरूपता लाने के लिए भी प्रांतीय स्वायत्तता जरूरी है। शेख मुजीबुर रहमान के सुझाव को न सिर्फ नजरअंदाज किया गया, बल्कि 1968 में ‘अगरतला षडयंत्र’ के तहत उन पर केस दर्ज किया गया। आरोप लगा था कि वह भारत के साथ मिलकर पूर्वी पाकिस्तान को तोड़ने की साजिश कर रहे हैं।
भारी बहुमत से जीत के बाद भी नहीं सौंपी सत्ता
1970 में तानाशाह जनरल याह्या खान के समय पाकिस्तान में आम चुनाव हुए। शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान की 162 में से 160 सीटें जीतीं। वहीं, पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को पश्चिमी पाकिस्तान की 138 सीट में से महज 81 सीटों पर जीत मिली। इस चुनाव में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने पूर्वी पाकिस्तान में अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा किया था, जबकि शेख मुजीबुर्हमान ने पश्चिमी पाकिस्तान में भी कई जगहों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। चुनाव में भारी बहुमत मिलने के बावजूद सैन्य सरकार ने सत्ता नहीं सौंपी।
ढाका में सामूहिक हत्या
पाकिस्तानी सेना ने 25 मार्च को पूर्वी प्रांत में ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू कर दिया। ढाका में आवामी लीग के नेताओं, समर्थकों और पूर्वी पाकिस्तान में अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रहे लोगों का नरसंहार किया गया। जब पानी सिर से ऊपर हुआ तो 26 मार्च 1971 शेख मुजीबुर रहमान और अन्य नेताओं ने बांग्लादेश को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया।
लाखों लोग पूर्वी पाकिस्तान से भागकर भारत आए, जिससे भारत पर भारी दबाव पड़ा। इस पूरे घटनाक्रम पर भारत की नजर थी। भारत सरकार के पास इस बारे में कोई सूचना नहीं थी कि ऑपरेशन सर्चलाइट के बाद शेख मुजीबुर्रहमान जिंदा भी हैं या नहीं।
इतिहासकार श्रीनाथ राघवन ने अपनी पुस्तक ‘ए ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ द क्रिएशन ऑफ बांग्लादेश’ में लिखा है – ढाका में नरसंहार और स्वाधीनता के एलान के बाद भारत में इंदिरा गांधी भावी रणनीति पर काम कर रही थीं। उनका मानना था कि इस मुद्दे पर सतर्कता से आगे बढ़ना होगा, क्योंकि पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र का सदस्य है। ऐसे में पाकिस्तान के आंतरिक मामले में भारत के हस्तक्षेप को अंतरराष्ट्रीय समुदाय सही नहीं समझेगा।
अवामी लीग के वरिष्ठ नेता इंडिया बॉर्डर पहुंचे; BSF से मांगी मदद
अवामी लीग के एक वरिष्ठ नेता ताजुद्दीन अहमद बैरिस्टर अमीर-उल-इस्लाम के साथ फरीदपुर और कुष्टिया के रास्ते 30 मार्च, 1971 की शाम को पश्चिम बंगाल से लगी पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पर पहुंचे। यहां बीएसएफ की बंगाल फ्रंटियर के महानिरीक्षक (आईजी) गोलोक मजूमदार से मिले। BSF पहले से अवामी लीग के नेताओं के बारे में खुफिया सूचनाएं जुटा रही थी।
अमीर-उल-इस्लाम ने अपनी किताब मुक्तियुद्धेर स्मृति (मुक्ति युद्ध की यादें) लिखी। इसमें लिखा- गोलोक ताजुद्दीन अहमद और मुझे कार में बिठाकर कलकत्ता एयरपोर्ट ले गए। उनसे पूछताछ की। ताजुद्दीन अहमद चाहते थे कि बीएसएफ बांग्लादेश की सेना यानी मुक्ति वाहिनी को हथियार देकर उनकी मदद करे।
BSF के अधिकारी जानते थे कि वे अकेले इतना बड़ा फैसला नहीं ले सकते हैं। इसलिए बीएसएफ के तत्कालीन महानिदेशक के.एफ.रुस्तमजी ने ताजुद्दीन की मुलाकात इंदिरा गांधी से कराई। हालांकि, इस मुलाकात से पहले तमाम तरह की जांच-पड़ताल, बैकग्राउंड वेरिफिकेशन किया गया।
इंदिरा गांधी ने दिया मदद का भरोसा
श्रीनाथ राघवन ने ‘ए ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ द क्रिएशन ऑफ बांग्लादेश’ में लिखा- ताजुद्दीन संग इंदिरा गांधी बैक टू बैक दो दिन मीटिंग की। इस दौरान इंदिरा ने बांग्लादेश की स्वाधीनता को स्वीकृति देने पर कुछ भी स्पष्ट नहीं किया। हां सीमा पर बांग्लादेशी सैनिकों की मदद करने का भरोसा जरूर दिया, लेकिन कितनी और कैसे मदद होगी, इस पर भी कुछ नहीं कहा। इस पर फैसला करने के लिए इंदिरा ने एक कमेटी का गठन किया।
हर दिन बांग्लादेश से दिल-दहला देने वाली खबरें आ रही थीं। हालत बद से बदतर हो चुके थे। भारत में भी विपक्षी नेताओं के सब्र का बांध टूट चुका था। दूसरी ओर इंदिरा गांधी सेना प्रमुखों संग बैठक कर सलाह-मशविरा करने में लगी थी।
भारतीय सेना की ओर से मदद और बांग्लादेश के सैनिकों को ट्रेनिंग दी जाने लगी। तब लगा कि मुक्ति वाहिनी अपने दम भी पश्चिमी पाकिस्तान से निपट लेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। नवंबर तक भारत में पूर्वी पाकिस्तान से जान बचाकर भागे लोगों की संख्या एक करोड़ के पार पहुंच गई। पूरी दुनिया इस पर खामोश थी, ऐसे में भारत के पास पाकिस्तान से पूर्वी सीमा पर युद्ध करने के अलावा कोई ऑप्शन नहीं बचा।
3 दिसंबर 1971 को भारत सैनिक पाकिस्तानी सेना की बर्बरता को रोकने के लिए मैदान में कूद गए। भारत-पाकिस्तान के बीच तीनों मोर्चों पर जंग चली। 13 दिन के भीतर पाकिस्तानी सेना को घुटने टेकने पड़े। इस लड़ाई में पाकिस्तान के 93 हजार से अधिक सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया और बांग्लादेश के रूप में नए राष्ट्र का जन्म हुआ।
इतिहासकार बताते हैं कि इंदिरा गांधी ने इस पूरे घटनाक्रम न सिर्फ सक्रिय भूमिका निभाई,बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समर्थन जुटाने के लिए कुशल कूटनीति का प्रदर्शन किया।अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ जैसे देशों से कूटनीतिक वार्ता की। अमेरिका उस समय पाकिस्तान का समर्थन कर रहा था। तब इंदिरा ने सोवियत संघ के साथ ‘भारत-सोवियत मैत्री संधि’ पर हस्ताक्षर करके अपने पक्ष को मजबूत किया।दूसरी ओर भारतीय सेना को उन्होंने युद्ध के लिए पूरी स्वतंत्रता और संसाधन उपलब्ध कराए। पूर्वी पाकिस्तान से लाखों शरणार्थी भारत आ रहे थे। इंदिरा ने उनके लिए सहायता का प्रबंधन किया और अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस संकट को उजागर किया।
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व व नेतृत्व भारतीय राजनीति और समाज में एक नए रूप में उभरा। इंदिरा गांधी की लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई। उन्हें जनता और विरोधी दोनों के बीच व्यापक प्रशंसा मिली। यह न केवल भारत की बड़ी सैन्य जीत थी, बल्कि इंदिरा गांधी के नेतृत्व को वैश्विक स्तर पर मान्यता दिलाने वाली घटना भी थी। इस जंग के बाद उनकी छवि आयरन लेडी की बन गई।