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स्वतंत्रता के मनीषियों ने नैतिक मूल्यों को जीवन में उतारा था,कैसे? - श्रीनारद मीडिया

स्वतंत्रता के मनीषियों ने नैतिक मूल्यों को जीवन में उतारा था,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आजादी का अमृत वर्ष (15 अगस्त) पूरा हुआ। अब अमृत काल है। जब मुल्क आजाद हुआ, तब महात्मा गांधी ने एक महान और भिन्न भारत की परिकल्पना की थी। उनकी एक कसौटी थी, साधन और साध्य में एकता। साध्य था आजाद होना व नैतिक मूल्यों के साथ महान भारत की पुनर्स्थापना। आजादी के मनीषियों ने अपने जीवन में इन्हें उतारा था। इसे समझने के असंख्य प्रसंग हैं।

कई बार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे महामना मालवीय खुद कठिनाइयों में पढ़े थे। पर दुनिया को शिक्षा की रौशनी से आलोकित किया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना (1916) के समय उन्होंने कहा, आजाद मुल्क में शिक्षा का उद्देश्य महज टेक्नोक्रेट-ब्यूरोक्रेट पैदा करना नहीं है, बल्कि चरित्र, इंटेग्रिटी और मूल्यों के साथ इंसान को गढ़ना है। उन्होंने साफ-साफ कहा, बिना मूल्यों के शिक्षा अर्थहीन है। पर क्या उनका जीवन-संदेश आज समाज को स्मरण है?

मालवीयजी बीएचयू में ही रहते थे। उनके घर में दो रसोईघर थे। एक में घर-परिवार के सदस्यों का खाना बनता। दूसरे में मालवीयजी और उनके अतिथियों का। दोनों के खर्च की व्यवस्था अलग थी। घर के लोग श्रम से जो अर्जित करते, उससे घर की रसोई चलती। एक दिन मालवीयजी के पोते को सुबह परीक्षा देने के लिए जाना था। घर की रसोई में नाश्ता तैयार नहीं था। मालवीयजी के महाराज ने उनसे पूछा, क्या मैं आपकी रसोई से पोते को नाश्ता करा दूं? मालवीयजी ने मना कर दिया।

कहा, मेरी रसोई में दान से अन्न आता है। तुम (घर के लोग) देश या समाज की सेवा में नहीं हो। इसलिए दान (मुफ्त) का राशन तुम्हारे लिए वर्जित है। पोता बगै़र नाश्ता किए ही परीक्षा देने गया। यानी सहज भाव में मनुष्य जो अपने पुरुषार्थ, श्रम और पसीने से कमाए, उस पर ही उसका हक है। आजादी के नायकों का इस नैतिक जीवन का सपना था। जीवन में उदात्त मूल्य चाहने का लक्ष्य (साध्य) कभी गलत साधन अपनाकर अर्जित नहीं होता। इस संदर्भ में महाभारत का प्रसंग है।

भीष्म पितामह शरशैया पर हैं। रोजाना शाम में प्रवचन करते हैं। सब सुनने जाते हैं। पर द्रौपदी नहीं जातीं। एक दिन कृष्ण ने द्रौपदी से कहा, तुम भी आज चलो। वे अनमने भाव से गईं। उस दिन पितामह बता रहे थे, जहां अन्याय हो, अत्याचार हो, वहां लोग मूकदर्शक रहें, तो उनकी वीरता, पुरुषार्थ, व्यक्तित्व कुंद होता है। अचानक द्रौपदी बोल पड़ीं, पितामह अनुमति हो तो कुछ पूछें? सभा सन्न। पितामह के उद्गार में कोई प्रश्न नहीं करता था।

द्रौपदी ने कहा, पितामह आज आप नीति-अनीति, पौरुष-पुरुषार्थ, सबका मर्म बता रहे हैं। पर जिस दिन मेरा चीरहरण हो रहा था, आप क्यों मौन रहे? पितामह ने कहा, बेटी तुमने सही पूछा। आज इसका कारण समझ सकता हूं। शरशैया पर हूं। मेरे रक्त में अब किसी के अन्न का प्रवाह नहीं है। अनीति से अर्जित दुर्योधन का अन्न खाता था। उस अन्न से बने रक्त ने मेरे विचारों, चिंतन-पद्धति, सोचने के तौर-तरीके को दूषित कर दिया था।

महाभारत के ‘अनुशासन पर्व’ में भीष्म, युधिष्ठिर को धन, तप, धर्म और दान के बारे में बतलाते हैं- ‘अधर्ममूलैर्हि धनैस्तैर्न धर्मोऽथ कश्चन।’ (गलत तरीके से अर्जित धन से किए गए धर्म का कोई फल नहीं होता।) इसी प्रसंग में भीष्म सचेत करते हैं- ‘न वृथा साधयेद् धनम्।’ (व्यर्थ में धन संग्रह न करें।)

पसीने की कमाई या शुद्ध और नैतिक साधनों से अर्जित संपदा ही इंसान या समाज के लिए कल्याणकारी है। यही मानस, उपनिषदों का भी रहा है। गांधी की साधन-शुचिता का यही मूल था। मूल्यवान, संस्कारवान देश, व्यक्ति या समाज गलत साधन (बेईमानी, भ्रष्टाचार) अपनाकर महान मूल्यों (साध्य) को नहीं पा सकते। पहले गांवों का अपढ़ समाज गलत ढंग से अर्जित आय को नफरत की नजर से देखता था। स्वजन घर में इन चीजों के खिलाफ आवाज उठाते थे।

आजादी के अमृत काल में मूल्यों, साधन-शुचिता और महान साध्यों (लक्ष्यों) की कसौटी पर समाज कहां खड़ा है? प्रधानमंत्री ने लाल किले से अत्यंत महत्व के साथ भ्रष्टाचार के प्रति नफरत की बात दोहराई है। जरूरत है कि यह घर-घर गूंजे। आजादी के अमृत काल में मूल्यों, साधन-शुचिता और महान साध्यों की कसौटी पर समाज कहां खड़ा है? प्रधानमंत्री ने लाल किले से भ्रष्टाचार के प्रति नफरत की बात दोहराई है। जरूरत है कि यह घर-घर गूंजे।

 

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