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ऊधम सिंह ने कैसे लिया जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला? - श्रीनारद मीडिया

ऊधम सिंह ने कैसे लिया जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला?

ऊधम सिंह ने कैसे लिया जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

उधम ने इसके लिए पूरी योजना बनाई और लंदन पहुंचने में कामयाब हुए. वहां वे गुप्त रूप से सक्रिय हो गए. अपनी बारीकी से जांच-परख और जानकारी जमा करने के के बाद उन्होंने एक बंदूक का इंतज़ाम किया. जिसके बाद, उन्हें ‘डायर’ के एक समारोह में भाग लेने की ख़बर लगी. लिहाज़ा, वह पहले से ही कैक्सटन हॉल में जाकर आम लोगों के साथ बैठ गए. तभी ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की बैठक शुरू हुई. जिसमें तमाम अधिकारियों के साथ ‘डायर’ भी मौजूद था.

बैठक के बाद जैसे ही ‘डायर’ सभी को संबोधित करने के लिए मंच पर आया, उधम ने उनपर बंदूक से हमला कर दिया और वह मर गया. इस हमले के बाद उधम सिंह वहां से भागे नहीं, बल्कि वहीं खड़े रहे. इसके बाद अंग्रेज़ अफ़सरों ने उन्हें गिरफ़्तार किया और जेल भेज दिया.

उन्हें वहां फांसी की सज़ा सुनाई गई और 31 जुलाई 1940 में उधम सिंह ने फांसी को गले लगा लिया.

मृतसर के जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल, 1919 में हुए क्रूरतम नरसंहार का वह हाहाकारी दृश्य मानो उस सिख युवक के मन-मस्तिष्क में बरगद की जड़ों जैसा पैठता चला गया था। बड़ी बात यह कि इस नौजवान ने क्षोभ के इस विस्तार को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया, उल्टे प्रबल प्रतिशोध की इन ज्वालाओं को जिद व जुनून की खाद-पानी देकर जतन से पाला-पोसा।

बदले की आग से सुलगते विप्लवी वीर के कलेजे को ठंडक पहुंची पूरे 21 साल बाद जब 13 मार्च, 1940 को सात समंदर पार लंदन पहुंचकर इस जीवट सेनानी ने जलियांवाला बाग नरमेध के अपराधी आततायी ब्रिटिश जनरल ओ. डायर के सीने को बारूदी अंगारों से छलनी कर डाला। इस ऐतिहासिक घटना की बरसी पर आइए इस शौर्यगाथा को फिर सुनते-सुनाते हैैं, मां भारती के इस अमर सपूत के नमन में सिर झुकाते हैैं।

साथ ही, पलटते हैैं इतिहास के उन पृष्ठों को जो आज भी साक्षी हैैं कि क्रांतिवीर ऊधम ने विषपायी भगवान शिव की नगरी काशी के स्वातंत्र्य सेनानियों के साथ मिल-बैठकर ही लंदन जाकर डायर के वध की योजना बनाई। इसके पूर्व काशी के अपने पथ-प्रदर्शक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बाबू बालमुकुंद सिंह के साथ प्रयाग घाट पहुंचकर जलियांवाला बाग में उत्सर्ग हुए हुतात्मा का तर्पण किया। केश कटाकर अपनी सिख पहचान मिटाई। नए नाम राम मोहम्मद सिंह के साथ गंगाजल हाथ में लेकर डायर वध की शपथ उठाई।

दिवंगत स्वतंत्रता सेनानी बालमुकुंद के पौत्र तथा बनारस में ऊधम सिंह की शेष स्मृतियों की रखवाली कर रहे बाबू उदय सिंह बताते हैैं- ’13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग में जब डायर के हुक्म से निरीह नागरिकों पर गोलीबारी हुई तो नौजवान ऊधम वैशाखी मनाने में जुटे लोगों को पानी पिलाने की सेवा कर रहे थे। हत्याकांड के तुरंत बाद पूरे शहर में मार्शल ला लागू कर दिया गया। लिहाजा वह पूरी रात ऊधम ने उस मरघटी मैदान में ही बिताई। घायलों को पानी पिलाते हुए बिछड़ों को एक-दूसरे से मिलाते हुए। यही वह कारण था जिसने वीर ऊधम को अंदर तक हिला दिया।

दिलो-दिमाग में चल रही घनघोर आंधियों ने उन्हें बावरा बना दिया। विक्षिप्तों की तरह प्रतिशोध की आग में जलते शहर-शहर भटकते ऊधम को अंतत: एक निष्कर्ष के साथ ठहराव मिला काशी में।

नवंबर, 1919 में यहां पहुंचे ऊधम की संयोगवश पहली भेंट हुई बाबू बालमुकुंद सिंह से। उन्होंने ऊधम की व्यथा को एक उद्देश्य से जोड़ा इस वायदे के साथ कि जिस दिन वे डायर को मारेंगे, तमाम सरकारी बंदिशों को तोड़ बनारस वाले उनके नाम पर एक दीप जरूर जलाएंगे। 13 मार्च, 1940 को जब बेतार के तार से डायर की मौत की खबर बनारस आई तो निषेधाज्ञाओं का उल्लंघन करते हुए बाबू बालमुकुंद सिंह ने गिरजाघर चौराहे पर एक अकेला दीप जलाकर मौन के सिंहनाद के बीच ऊधम के नाम की दीपावली मनाई। बाद में उसी स्थान पर उन्होंने ऊधम सिंह की प्रतिमा का निर्माण कराया, जो आज काशी की धरोहर है। 31 जुलाई, 1940 को लंदन के पेंटनविला जेल में जब ऊधम को फांसी दी गई तो बालमुकुंद ने गिरफ्तारी की आशंका से बेखौफ उसी जगह पहुंचकर ऊधम सिंह अमर रहें का नारा लगाया और पूरे मोहल्ले ने उनके स्वर में स्वर मिलाया।

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