अपने ही खोदे गड्ढे में कैसे गिर जाता है पाकिस्तान?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
“जो कोई भी राक्षसों से लड़ता है, उसे ध्यान रखना चाहिए कि इस प्रक्रिया में वो खुद ही राक्षस न बन जाए। आप अगर लंबे समय तक खाई को घूरेंगे तो खाई भी आपको घूरने लगेगी।” जर्मन दार्शनिक नीत्शे का एक क्योट है। डेढ़ सौ साल पहले कही गई ये बात अब हमारे पड़ोस में साकार हो रही है। पाकिस्तान तालिबान को घूर रहा है, लेकिन क्यों ?
नए सेना प्रमुख के आते ही पाकिस्तान में कत्ल-ए-आम शुरू हो गया। आसिम मुनीर के कुर्सी संभालते ही टीटीपी ने सरकार के साथ सीजफायर समझौता तोड़ दिया। जिसका खामियाजा पूरे पाकिस्तान को भुगतना पड़ा। नाराज तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने मुनीर के कुर्सी संभालने के 24 घंटे के अंदर ही क्वेटा में आर्मी पर आत्मघाती हमला किया था।
हमलों का सिलसिला अबतक जारी है। इसके बाद पूरे पाकिस्तान में खलबली मच गई। पाकिस्तान सरकार और सेना से नाराज टीटीपी फिर से सक्रिय हो गया है और ताबड़तोड़ हमले के आदेश दिए हैं। टीटीपी को पाकिस्तान तालिबान के नाम से भी जाना जाता है। टीटीपी इस साल अब तक चीन से चार आत्मघाटी हमले कर चुका है। जिसमें से अकेले दो हमले उत्तरी वजीरिस्तान में हुए थे।
अफगानिस्तान और पाकिस्तान की तालिबानी हुकूमत के बीच के रिश्ते अब तक के सबसे खराब दौर में जा पहुंचे हैं। बीते दो महीने से दोनों देशों की सीमा यानी डूरंड लाइन पर फायरिंग की कई घटनाएं हो चुकी है। जिनमें कई पाकिस्तानी सैनिक और स्थानीय नागरिकों की मौत हो चुकी है। इसी बीच टीटीपी और बीएलए ने भी पाकिस्तान के खिलाफ जंग छेड़ रखी है। बस इसी वजह के चलते पाकिस्तान की फौज और वहां की सरकार बौखलाई हुई है।
पाकिस्तान में लगातार हो रहे हमलों के बाद मंत्री राणा सन्नाउल्लाह ने चेतावनी देते हुए कहा कि पाकिस्तान टीटीपी के ठिकानों पर मिलिट्री ऑपरेशन चला सकता है। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के पूर्व चीफ जावेद असार काजी ने एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में बताया है कि टीटीपी पाकिस्तान पर आखिर हमले क्यों कर रहा है। उन्होंने कहा कि मैं समझता हूं कि पाकिस्तान ने तालिबानी सरकार को मान्यता देने से इनकार कर दिया था
इसलिए अफगानी तालिबान पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए टीटीपी की मदद कर रहा है। हालांकि आईएसआई के पूर्व चीफ के दावे हवा-हवाई ही साबित होते हैं क्योंकि आपको याद होगा जब तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया था तो उस वक्त पाकिस्तानी हुकूमत ने इसे गुलामी की बेड़ियों से आजादी बताया था।
काफी दिलचस्प रहा है इतिहास
अफगान तालिबान का इतिहास बेहद क्रूर और खूंखार है। जहां तक बात टीटीपी की करें तो इसका वजूद पाकिस्तान के चलते ही बना है। लेकिन जिस आतंकी संगठन को पाकिस्तान ने पाला अब वो इतना खूंखार हो गया कि वो न तो आईएसआई की सुनता है और न ही रावलपिंडी में बैठे किसी जनरल की। पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम में अफगानिस्तान का बॉर्डर लगता है जो वजीरिस्तान कहलाता है।
विश्व विजय पर निकला सिकंदर हो या मुगल बादशाह औरंगजेब अपने अभियान में सभी शासकों ने इस इलाके को नजरअंदाज किया और इसकी वजह ऊंची पहाड़, घने जंगल, धधकते रेगिस्तान और तपा देने वाली गर्मी। गर्मियों में चलती लू और जाड़ों में हड्डियां कंपा देने वाली ठंड। अंग्रेज जब 1890 में इस इलाके में पहुंचे तो एक ब्रिटिश एडमिनिस्ट्रेटर ने वजीरिस्तान के लिए कहा था-
ये नेचर का बनाया हुआ एक फोट्रेस है जिसकी हिफाजत पहाड़ किया करते हैं। इस इलाके की पहचान है यहां के कबीले। जिन्होंने न जाने कितनी दफा आक्रमणकारी सेनाओं को लोहे के चने चबवाएं।
अफगानिस्तान में तालिबान राज ने टीटीपी को किया मजबूत
अफगान तालिबान के साथ पुराने संबंध रखने वाला टीटीपी काबुल पर इस्लामित अमीरात के कब्जे के बाद पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम आदिवासी इलाकों (पहले एफएटीए, लेकिन अब खैबर पख्तूनख्वा प्रांत का हिस्सा) में एक बार फिर सक्रिय हो उठा। जबकि पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान सहित पाकिस्तान में कुछ लोगों ने अमेरिका पर इस्लाम की जीत के रूप में अफगान तालिबान की जीत की सराहना की थी।
दो महीने पहले कार्यालय से सेवानिवृत्त हुए पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा ने उस समय चेतावनी दी थी कि अफगान तालिबान और पाकिस्तान का पुराना दुश्मन टीटीपी “एक ही सिक्के के दो पहलू” हैं। उस समय चिंता का विषय अफगानिस्तान के नए शासकों द्वारा काबुल की जेलों से बड़ी संख्या में टीटीपी कैदियों की रिहाई थी।
इन घटनाओं से उत्साहित होकर टीटीपी के नेताओं ने घोषणा की कि अफगानिस्तान में तालिबान की जीत पाकिस्तान में होरवा का रोल मॉड साबित होगी। उसने पाकिस्तानी क्षेत्र के अंदर अपने हमलों क फिर से सक्रिए कर दिया। उन्होंने केपी प्रांत के आदिवासी हिस्सों में भी खुद को स्थापित करना शुरू कर दिया, पुरुषों से कहा गया कि वे अपनी दाढ़ी न काटें और क्षेत्र के निवासियों से एक तरह के “कर” के रूप में पैसे वसूलें।
शांति स्थापित करने पर पाकिस्तान ने ध्यान किया केंद्रित
लंबे समय से पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान की प्रतिवर्त नीति पाकिस्तानी तालिबान से लड़ने के बजाय उसके साथ शांति स्थापित करने की रही है। पाकिस्तानी सेना और इस नीति के आलोचकों ने कहा कि बल अपनी लड़ाइयों को आतंकी समूहों को आउटसोर्स करने और अपने स्वयं के व्यवसायों में व्यस्त रहने के लिए इतना अभ्यस्त हो गया था कि यह अब लड़ने वाली सेना नहीं रही। अपने हिस्से के लिए, पाकिस्तानी सेना चिंतित थी कि इसे “अपने ही लोगों से लड़ने” के रूप में लेबल नहीं किया जाना चाहिए।
2007 में इस्लामाबाद में लाल मस्जिद पर पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ द्वारा आदेशित कमांडो हमले से सेना ने यह सबक लिया था, जिसकी पाकिस्तान में व्यापक रूप से आलोचना हुई थी, और जिसके कारण टीटीपी का निर्माण हुआ था। दिसंबर 2014 में पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल में टीटीपी द्वारा 132 छात्रों और 17 शिक्षकों की हत्या के बाद पाकिस्तानी सेना का सबसे गंभीर ऑपरेशन शुरू हुआ। उस समय टीटीपी के कई नेता और कैडर अफगानिस्तान भाग गए थे।
2021 में पाक सेना फिर से शांति के दांव पर लग गई
अफगानिस्तान की धरती पर टीटीपी के सुरक्षित ठिकाने पाकिस्तान और भारत समर्थक अशरफ गनी सरकार के बीच विवाद का विषय बने रहे। लेकिन अगस्त 2021 में गनी सरकार के निर्वासन के बाद अफगानिस्तान में तालिबान राज की वापसी हो गई। बता दें कि अफ़ग़ान तालिबान की जीत का श्रेय कुछ हद तक पाकिस्तान को भी दिया जाता है। उस दौरान तालिबान के साथ बड़ी संख्या में पाकिस्तानी इसके लिए खुद की पीठ थपथपा रहे थे। सितंबर 2021 से जैसे ही टीटीपी ने पाकिस्तान में अपना युद्ध अभियान तेज किया, पाकिस्तानी सेना ने शांति स्थापित करने की पहल शुरू कर दी।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान हमेशा टीटीपी से बात करने और “तालिबान जीवन के तरीके” को समझने के पक्षधर रहे थे। आईएसआई बॉस और कोर कमांडर पेशावर लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद ने वार्ता का नेतृत्व किया। पाकिस्तानी सेना चाहती थी कि टीटीपी हिंसा को रोके और मुख्यधारा में आए। लेकिन टीटीपी की मुख्य मांग केपी प्रांत से एफएटीए क्षेत्रों को अलग करना था। हालांकि जून 2022 में एक युद्धविराम घोषित किया गया।
पिछले साल 29 नवंबर को जब पाकिस्तान के नए सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर ने सत्ता संभाली, तो टीटीपी ने घोषणा की कि वे युद्धविराम समाप्त कर रहे हैं। तब से टीटीपी द्वारा हमलों में तेज वृद्धि हुई है, जिसमें इस्लामाबाद में आत्मघाती बम विस्फोट भी शामिल है, जो 2014 के बाद से राजधानी में इस तरह की पहली घटना है।
अफगान तालिबान के साथ पाकिस्तान का व्यवहार ऑफ-स्क्रिप्ट हो गया
पाकिस्तान के दृष्टिकोण से अफगानिस्तान में तालिबान की जीत का सबसे संतोषजनक परिणाम भारत को दरकिनार करना था, जिसके पास बुनियादी ढांचा विकसित करने और देश को अन्य सहायता प्रदान करने के लिए दो दशक का समय था। लेकिन डूरंड रेखा पर अपने मतभेदों को लेकर दोनों पक्ष अलग हो गए।
अफ़गानों ने इसे कभी भी पाकिस्तान के साथ एक अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में स्वीकार नहीं किया। इसके अलावा जुलाई 2022 में काबुल में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा अल-कायदा प्रमुख अयमान अल-जवाहिरी की हत्या ने दोनों पक्षों के बीच तनाव में योगदान दिया है, इस घटना में पाकिस्तान सुरक्षा प्रतिष्ठान की भूमिका के बारे में सवाल उठाया है।
अच्छा और बुरा तालिबान
पंद्रह साल पहले पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान ने “अच्छे” और “बुरे” तालिबान की संज्ञा दुनिया के सामने रखी थी। अच्छे तालिबान अफगान तालिबान और अन्य समूह थे, जिनमें सुन्नी चरमपंथी समूह शामिल थे और व्यापक अर्थों में जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा सहित क्षेत्र में पाकिस्तान के हितों की सेवा करने वाले समूह शामिल थे। जबकि टीटीपी को बुरे तालिबान की श्रेणी में रखा गया। जिसके पीछे की वजह पाकिस्तान, उसके नागरिकों और सुरक्षा बलों और अन्य राज्य के प्रतीकों जैसे कि बुनियादी ढांचे को निशाना बनाना था। अब अच्छा तालिबान और बुरा तालिबान एक ही तरफ हैं। पाकिस्तान अपने ही बनाए हुए विरोधाभास में फंसता नजर आ रहा है।
भारत तक पैर फैलाने के खतरनाक इरादे
खोरासान डायरी ने कहा कि पाकिस्तान के भविष्य के हालात बहुत ही खराब दिखाई दे रहे हैं। अफगानिस्तान सीमा, खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान में हिंसा के साथ अस्थिरता बढ़ सकती है। इसके अलावा इस हिंसा की आग अब पाकिस्तान के शहरी इलाकों जैसे इस्लामाबाद तक फैल सकती है।
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