भाषा किसी समुदाय के अतीत, वर्तमान और भविष्य के लिए महत्वपूर्ण है,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत को विविधताओं का देश कहने के पीछे पानी और वाणी की प्रकृति है. एक कहावत है कि ‘कोस-कोस पर पानी बदले, तीन कोस पर बानी. पर भारत की वाणी की प्रकृति वाली सांस्कृतिक विविधता खतरे में है. ‘तीन कोस पर वाणी’ बदलने की प्रवृत्ति विलुप्त होने के कगार पर है. यूनेस्को ने तो वर्ष 2019 में ही ‘इंटरेक्टिव एटलस ऑफ द वर्ल्ड्स लैंग्वेजेज इन डेंजर’ में भारत की भाषाओं को पहला स्थान देकर इस भयावहता को उजागर कर दिया था. परंतु स्थिति कहीं अधिक भयावह है. भारत सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार, 1961 की जनगणना के आधार पर यहां 1652 भाषाएं बोली जाती हैं, जबकि एक रिपोर्ट के अनुसार फिलहाल 1365 मातृभाषाएं हैं.
यूनेस्को के मुताबिक भारत की लगभग 170 भाषाएं संकट में हैं, जिनमें से आधे से अधिक उत्तर-पूर्व के प्रदेशों की भाषाएं हैं, जहां अंग्रेजी ने स्थानीय भाषाओं पर आधिपत्य स्थापित कर लिया है. मुख्यतः बिहार और झारखंड की कई प्राचीन व शास्त्रीय भाषाएं संकट में हैं. झारखंड की प्राचीन जनजातीय भाषाओं में संथाली के अतिरिक्त कोरवा, आसुरी व बिरहौरी यूनेस्को के विलुप्त होने वाली भाषाओं में शामिल हैं. मांझी, कुड़माली, मुसासा, बिरहोर, चेरो, बिरजिया, तुरी, जो कभी बिहार में बोली जाती थीं, आज इसका नाम कमोबेश भुला दिया गया है.
उल्लेखनीय है कि बिहार या उत्तर भारत की भाषाओं का क्षरण केवल बिहार के लिए ही चिंता का विषय नहीं है, अपितु यह संपूर्ण भारत के लिए विचारणीय है. क्योंकि प्राचीन भारत का स्वर्णिम इतिहास बिहार की धुरी पर स्थापित है. जिसे मगध या अन्य महाजनपद के नाम से जाना जाता था. भारत का स्वर्णिम काल खंड हो या विभिन्न महान पंथों, धर्मों का उद्गम या नव परिवर्तन, सबके केंद्र में बिहार प्रमुखता से व्याप्त है. बिहार की अन्य प्रमुख भाषाओं में शामिल मैथिली, भोजपुरी, मागधी, अंगिका व बज्जिका में से मागधी, अंगिका व बज्जिका अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं.
यूनेस्को ने भाषाओं को खतरे में रखने का जो मानदंड तय किया है, उस पर ये तीनों प्राचीन भाषाएं खतरे में हैं. मागधी, जो प्राचीन काल में मगध साम्राज्य की भाषा थी, उसने अपने शास्त्रीयता को लगभग खो दिया है. बज्जिका की प्राचीनता एवं गरिमा वैशाली गणतंत्र के साथ जुड़ी हुई है. वहीं अंगिका भाषा शब्द अंग से बना है, जो प्राचीन महाजनपद होता था. अंगिका की अपनी लिपि भी थी. जबकि भोजपुरी को बोलने वालों कि संख्या भारत की समृद्ध भाषाओं- बांग्ला, गुजराती, मराठी आदि बोलने वालों से कम नहीं है. पर इसमें निबद्ध साहित्य प्रचुर मात्रा में नहीं है. इसी कारण भोजपुरी लोकप्रिय होने के बाद भी शास्त्रीय भाषा नहीं बन पा रही है. बिहार की इन तमाम भाषाओं में मैथिली हर पैमाने पर श्रेष्ठ है. इसके बाद भी इसने अपनी लिपि मिथिलाक्षर का वजूद खो दिया है.
उल्लेखनीय है कि भाषा किसी समुदाय के अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. किसी भाषा का समृद्ध होना उस समुदाय या क्षेत्र के उस समय की बौद्धिक, सामाजिक, राजनीतिक समृद्धि को दर्शाता है. अतीत के लिहाज से जब किसी भी समुदाय की भाषा को नहीं जाना जाता है, तो उस समुदाय के बारे में सही जानकारी भी नहीं मिल पाती है. आज भी सैंधव घाटी की लिपि को पूर्णतया नहीं पढ़ा जा सका है, जिसके चलते उस कालखंड की सही-सही जानकारी अब तक स्पष्ट नहीं हो पायी है. जबकि वैदिक कालखंड की संस्कृति स्मृति में रह जाने, वाणी में प्रयोग होने से आज भी अविस्मरणीय है.
मातृभाषा का विलुप्त होना एक भाषा का विलुप्त होना भर नहीं होता है. भाषा विविधता और सांस्कृतिक विविधता अक्सर परस्पर जुड़ी होती हैं और भाषा की मृत्यु के साथ एक संस्कृति/ उपसंस्कृति भी विलुप्त हो जाती है. एक भाषा की मृत्यु के साथ हम इसकी गुप्त प्रथाएं, मौजूदा साहित्य, पर्यावरण ज्ञान, पैतृक दुनिया के विचारों के भविष्य की व्याख्या और सांस्कृतिक विरासत को खो देते हैं.
यूनेस्को के पूर्व महानिदेशक कोइचिरो की टिप्पणी है कि ‘एक भाषा की मृत्यु अमूर्त संस्कृति के कई रूपों को लुप्त होने की ओर ले जाती है. परंपराओं की अमूल्य विरासत और मौखिक अभिव्यक्त इतिहास को नुकसान होता है. कविताओं और किवदंतियों से लेकर कहावतों और चुटकुलों तक को नुकसान होता है. भाषाएं मानवता की जैव-विविधता की समझ के लिए भी आवश्यक हैं, क्योंकि वे बहुत कुछ संचारित करती हैं, प्रकृति और ब्रह्मांड के बारे में ज्ञान भी.’ कोइचिरो की टिप्पणी भारत के संदर्भ में बहुत प्रासंगिक हैं.
भारत में भाषाओं के संरक्षण के लिए संविधान में प्रावधान है. भाषाओं को सांविधानिक मान्यता देकर संरक्षण भी दिया गया है. राज्य स्तर पर भी भाषाओं के संरक्षण के लिए अकादमी और आयोग का गठन किया जाता रहा है. पर यूनेस्को और भारत सरकार के आंकड़ों की मानें, तो भाषाओं के संरक्षण हेतु किये गये प्रयास नाकाफी हैं. भारत की सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत को केवल 24,821 लोग ही मातृभाषा बताते हैं. भारत की संस्कृति में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले संस्कृत का यह आंकड़ा दुखदायी है.
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