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धर्मनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा पश्चिमी मॉडल से कैसे भिन्न है? - श्रीनारद मीडिया

धर्मनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा पश्चिमी मॉडल से कैसे भिन्न है?

धर्मनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा पश्चिमी मॉडल से कैसे भिन्न है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

तमिलनाडु सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका के प्रत्युत्तर में कहा है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म का प्रचार करने का अधिकार प्रदान करता है।

  • याचिकाकर्त्ता ने याचिका में मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर तमिलनाडु में जबरन धर्मांतरण करने की घटनाओं के बारे में शिकायत की थी।

मामला:

  • याचिकाकर्त्ता ने NIA (राष्ट्रीय जाँच एजेंसी)/CBI (केंद्रीय जाँच ब्यूरो) द्वारा तमिलनाडु में एक 17 वर्षीय लड़की की मृत्यु के “मूल कारण” की जाँच करने की मांग की, याचिकाकर्त्ता का आरोप है कि लड़की को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने के लिये मजबूर किया गया था। याचिका में तर्क दिया गया था कि जबरन या धोखे से धर्मांतरण मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
  • तमिलनाडु सरकार ने इसका जवाब देते हुए कहा है कि मिशनरियों (प्रचारकों) द्वारा ईसाई धर्म का प्रसार करने को अवैध रूप से नहीं देखा जा सकता है क्योंकि संविधान प्रत्येक नागरिक को अनुच्छेद 25 के तहत अपने धर्म का प्रचार करने का अधिकार प्रदान करता है।
    • यदि उनका अपने धर्म के प्रसार का कार्य सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के विपरीत है और संविधान के भाग III के अन्य प्रावधानों के खिलाफ है तो इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिये।

धर्म की स्वतंत्रता:

  • परिचय:
    • प्रत्येक नागरिक को अधिकार है कि वह अपनी पसंद के धर्म का प्रचार-प्रसार, अभ्यास करने के लिये स्वतंत्र है।
      • यह सरकार के हस्तक्षेप के भय के बिना सभी को अपने धर्म का प्रचार करने के अधिकार का अवसर प्रदान करता है।
      • लेकिन साथ ही राज्य द्वारा यह अपेक्षा की जाती है कि वह देश के अधिकार क्षेत्र के भीतर सौहार्दपूर्ण ढंग से इसका अभ्यास करे।
  • आवश्यकता:
    • भारत विभिन्न धर्मों का पालन करने वाले और विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों का देश है। प्यू रिसर्च सेंटर के वर्ष 2021 के आँकड़ों के अनुसार, 4,641,403 लोग ऐसे हैं जो छह प्रमुख धर्मों- हिंदू धर्म, जैन धर्म, इस्लाम, बौद्ध धर्म, सिख धर्म और ईसाई धर्म के अलावा अन्य धर्मों का पालन करते हैं।
    • इसलिये इतनी विविधतापूर्ण आबादी के साथ विभिन्न धर्मों और विश्वासों का पालन करते हुए प्रत्येक धर्म की आस्था के संबंध में अधिकारों की रक्षा और उन्हें सुरक्षित करना आवश्यक हो जाता है।
  • धर्मनिरपेक्षता:
    • 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को जोड़ा गया। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होने के नाते इसका कोई राज्य धर्म नहीं है जिसका अर्थ है कि यह किसी विशेष धर्म का पालन नहीं करता है।
      • अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य (1975) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ न तो ईश्वर विरोधी है और न ही ईश्वर समर्थक। यह सिर्फ यह सुनिश्चित करता है कि राज्य के मामलों में ईश्वर की अवधारणा को समाप्त करते हुए धर्म के आधार पर किसी को अलग नहीं किया जाए।
  • धर्म की स्वतंत्रता से संबंधित कुछ प्रावधान:
    • अनुच्छेद 25: यह धार्मिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देता है, जिसमें किसी धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने का अधिकार शामिल है।
    • अनुच्छेद 26: यह धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता देता है।
    • अनुच्छेद 27: यह किसी धर्म विशेष के प्रचार के लिये करों के भुगतान के रूप में स्वतंत्रता निर्धारित करता है।
    • अनुच्छेद 28: यह कुछ शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा अथवा धार्मिक पूजा में उपस्थिति होने की स्वतंत्रता देता है।

धर्मनिरपेक्षता, भारत बनाम संयुक्त राष्ट्र:

  • भारत धर्म के प्रति ‘तटस्थता’ और ‘सकारात्मक भूमिका’ की अवधारणा का अनुसरण करता है। राज्य धार्मिक सुधार लागू कर सकता है, अल्पसंख्यकों की रक्षा कर सकता है तथा धार्मिक मामलों पर नीतियों का निर्माण कर सकता है।
  • अमेरिका धर्म के मामलों में ‘अहस्तक्षेप’ के सिद्धांत का पालन करता है। राज्य धार्मिक मामलों में कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है।

धर्म की स्वतंत्रता पर प्रमुख न्यायिक घोषणाएँ:

  • बिजोय इमैनुएल और अन्य बनाम केरल राज्य (1986):
    • इस मामले में यहोवा के साक्षी संप्रदाय के तीन बच्चों को स्कूल से निलंबित कर दिया गया था क्योंकि उन्होंने यह दावा करते हुए राष्ट्रगान गाने से इनकार कर दिया कि यह उनके विश्वास के सिद्धांतों के खिलाफ है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह निष्कासन मौलिक अधिकारों और धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।
  • आचार्य जगदीश्वरानंद बनाम पुलिस आयुक्त, कलकत्ता (1983):
    • न्यायालय के निर्णय के अनुसार, आनंद मार्ग कोई अलग धर्म नहीं बल्कि एक धार्मिक संप्रदाय है और सार्वजनिक सड़कों पर तांडव का प्रदर्शन आनंद मार्ग का एक आवश्यक अभ्यास नहीं है।
  • एम. इस्माइल फारूकी बनाम भारत संघ (1994):
    • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, मस्जिद इस्लाम की एक आवश्यक प्रथा नहीं है, अतः एक मुसलमान खुले स्थान पर कहीं भी नमाज (प्रार्थना) कर सकता है।
  • राजा बिराकिशोर बनाम उड़ीसा राज्य (1964):
    • इसमें जगन्नाथ मंदिर अधिनियम, 1954 की वैधता को चुनौती दी गई थी क्योंकि इसने पुरी मंदिर के मामलों के प्रबंधन के प्रावधानों को इस आधार पर अधिनियमित किया था कि यह अनुच्छेद 26 का उल्लंघन था। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम केवल सेवा पूजा के धर्मनिरपेक्ष पहलू को विनियमित करता है, अतः यह अनुच्छेद 26 का उल्लंघन नहीं है।

नोट:

 

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