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वैदिक युग भी भारत के समृद्धि के सुंदर प्रमाण है कैसे ? - श्रीनारद मीडिया

वैदिक युग भी भारत के समृद्धि के सुंदर प्रमाण है कैसे ?

# वैदिक युग भी भारत के समृद्धि के सुंदर प्रमाण है कैसे ?

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शिक्षा और शिक्षकों के अज्ञात शत्रु पर विशेष रिपोर्ट

 

श्रीनारद मीडिया, मनोज तिवारी, छपरा (बिहार):

भारतीय समाज की जनचेतना पूर्ण रूप से वर्णित 2350 -1750 हड़प्पा सभ्यता काल को यदि समझा जाय तो इस काल में लोगों के रहन-सहन, सामाजिक स्थिति, व्यवसाय, मकानों की बनावट, शहरीकरण का मजबूत आधार, चिकित्सा और शिक्षा, व्यवस्था एक मजबूत और सुदृढ़ समाज को इंगित करती हैं। यह काल इन सबके विकास के साथ सुंदर भविष्य का चित्र उपस्थित करता है।

वैदिक युग भी भारत के समृद्धि के सुंदर प्रमाण हैं। विभिन्न प्रकार के साहित्यों, संस्कारों और भारतीयों के विकास का विवरण इस काल में प्राप्त होता है। भारतीय साहित्य, शिक्षा और संस्कृति आदि के विकास में यह काल मील का पत्थर रहा है।

400-600 ई.पू.के भारतीय धार्मिक आंदोलनों से यह ज्ञात होता है कि यहां की शिक्षा व्यवस्था उन्नत थी। महजनपदों, बिहार में मगध, मौर्य, गुप्त राजाओं दक्षिण भारत के संत राज घराने आदि और सभी राजाओं महाराजाओं, ऋषि मुनियों ने भी यहां की शिक्षा व्यवस्था को मजबूत स्थिति प्रदान की।

भारत में जब से बाहरी आक्रमणकारियों गजनवी और अंग्रेजी शासन आदि ने धावा बोल भारतीय जनता को लूटना प्रारंभ किया मेरा मानना है कि तब से भारतीयों में शिक्षा और संस्कृति का ह्रास होता गया। सबसे अधिक ह्रास का काल यही रहा है और भारतीय शिक्षा और शिक्षकों का विकास दूर होता गया। अंग्रेजों के करतूतों ने भारतीयों को शिक्षा से ज्यादा दूर किया।

इतिहास में वर्णित सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि 16 शताब्दी से 19 वीं शताब्दी के भारत से धन की लूट और इससे विदेशी देशों की बढ़ती समृद्धि ने भी भारतीय शिक्षा और शिक्षकों को रसातल में पहुंचा दिया। इसका सबसे बुरा प्रभाव घरेलू उघोग-धंधों और शिक्षा पर रहा।

अंग्रेजी हुकूमत की भारत को स्वतंत्र कर देने की घोषणा तक के काल में भारत को खूब लूटा गया अब-तक भारत और भारतीय पूर्णतः गरीब और लाचार बन गए थे। इस प्रकार के धन निष्कासन की ओर लोगों का ध्यान खींचने का प्रथम प्रयास राष्ट्रवादी नेता दादा भाई नौरोजी ने 1867 में किया था और इस धन के निष्कासन को “अनिष्टों का अनिष्ट” कहा था। आज यहीं अनिष्टों का अनिष्ट देश को खोखला कर रहा है।

गरीबी और लाचारी में लोगों के सामने बहुतेरे कठिन समस्याओं का उदय होता है।
अंग्रेजों के समय के धनिक और व्यापारी लोगों भारतीय उघोगपतियों ने भी अपने कल-कारखानों के विकास के लिए भारतीय शिक्षा और शिक्षकों को पानी से बाहर निकाले गए छटपटाती मछली की तरह छोड़ दिया।

प्रमाणिक रूप से कह सकते हैं कि इन धनिकों, व्यापारियों, उघोगपतियों ने भारतीय शिक्षा प्रणाली को विकसित करने का कार्य स्वतंत्र भारत की सरकारों के बाहुओं के बल से भी बाहर कर दिया है। आज भी सारे उघोगपति अंग्रेजों की तरह देश व श्रमिकों का शोषण कर सिर्फ लाभ ही लाभ कमाना चाहते हैं।

इस प्रकार आज विडंबना है कि लोकतांत्रिक स्वतंत्र भारत में भी किसी भी नियम, विकास और पार्टी, व्यक्ति, सरकार के पास शायद एक सुनिश्चित बौद्धिक क्षमता का विकास संभव नहीं हो पा रहा है; ताकि भारत में शिक्षा का सार्वभौमिक विकास हो और सभी तरह की व्याप्त सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक बुराईयों का नाश हो जाए, लोगों में खुशहाली आए।

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