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पुस्तक कितनी गिरहें खोली हैं मैंने विमर्श की गाथा है,कैसे? - श्रीनारद मीडिया

पुस्तक कितनी गिरहें खोली हैं मैंने विमर्श की गाथा है,कैसे?

पुस्तक कितनी गिरहें खोली हैं मैंने विमर्श की गाथा है,कैसे?

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 कितनी गिरहें खोली हैं मैंने, संपादक : रश्मि सिंह * विशाल पाण्डेय

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

‘कस्तूरी’ विविध विश्वविद्यालयों के शोधार्थियों, प्रवक्ताओं, मीडिया बंधुओं द्वारा सात शहरों में संचालित किया जा रहा है। हम मंचीय कार्यक्रम के अलावा कुछ ऑनलाइन श्रृंखला भी कर रहे हैं जिसमें महत्वपूर्ण हैं- ‘किताबें बोलती हैं’, ‘फ़िल्में जो सहेजनी है’, ‘कथा कहो दिव्य राधिका’, ‘साक्षात्कार’, ‘जीना इसी का नाम है’, ‘आमने सामने’, कलाकारों और साहित्यकारों की जयंती पर उनकी यात्रा पर केंद्रित कार्यक्रम ‘पं. चंद्रभान दूबे स्मृति छात्रवृत्ति एवं व्याख्यानमाला’, तेरा मेला पीछे छोटा राही चल अकेला’ (जीने की ओर) तथा ‘कस्तूरी कला उत्सव’।

इसके अतिरिक्त संस्था द्वारा समय-समय पर काव्य-पाठ, आलेख एवं भाषण की प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती है। पूरे वर्ष वर्ष इन कार्यक्रमों के माध्यम से हम समाज को समृद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं। विश्वभर के विद्वानों के साथ मिलकर हम एक सुंदर, समृद्ध दुनिया बनाने में प्रयासरत हैं। बीसवीं शताब्दी के सर्वाधिक चर्चित एवं प्रभावशाली कलारूप ‘सिनेमा’ ने समाज को जीवंत, गतिशील बनाया है। हिन्दी सिनेमा ने भारतीय समाज के आदर्श और यथार्थ को लोगों तक पहुँचाया है। हिन्दी सिनेमा जिस समाज का प्रतिनिधित्व कर रहा है, स्त्री उसी समाज की ‘अन्या’ है, ‘प्रोडक्ट’ है, ‘माल’ है। फिल्में स्त्री जीवन के घोर यथार्थ को बिना किसी लाग-लपेट के प्रस्तुत कर रही हैं।

‘आत्म’ की स्वीकार्यता के लिए संघर्ष करने वाली स्त्री आज भी हमारी ओर देख रही है। ‘फ़िल्में जो सहेजनी हैं’ श्रृंखला में शामिल फ़िल्में और उन फिल्मों पर हुई गंभीर परिचर्चा का संकलन है ‘कितनी गिरहें खोली हैं मैंने’ पुस्तक। फ़िल्मों पर हुई परिचर्चा से एक सौंदर्य की दृष्टि मिलती रही है। विगत शताब्दियों में हिंदी फ़िल्मकारों ने इसके लिए तरह-तरह के बिम्बों का प्रयोग किया है। फिर भी वह दो दबावों के कारण स्वयं को विवश और असहाय पाता है।

पहला दबाव वित्तीय है तो दूसरा अनुभूति से जुड़ा। इन दबावों से प्रभावित निर्माता और निर्देशक का प्रथम लक्ष्य होता स्त्री देह का यथासंभव प्रदर्शन ताकि पुरुष दर्शकों को कामासक्त आनंद की अनुभूति हो सके। वैश्वीकरण की प्रक्रिया के साथ यह दबाव बढ़ता ही जाएगा लेकिन फ़िल्मकारों को अपने प्रतिबद्ध दर्शकों की नैतिक चिंताओं का ख़्याल भी रखना पड़ेगा। अतएव वह स्त्री की मर्यादा और मान सम्मान को पूरी तरह से नजरंदाज नहीं कर सकता। ‘फिल्में जो सहेजनी हैं’ श्रृंखला के अन्तर्गत परिचर्चा केंद्रित फिल्मों की स्त्री संग-साथ की उम्मीद में है….

पुस्तक प्राप्ति हेतु अमेज़न लिंक :
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