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सरकार कैसे सुलझाएगी जातीय गणना की गुत्थी? - श्रीनारद मीडिया

सरकार कैसे सुलझाएगी जातीय गणना की गुत्थी?

सरकार कैसे सुलझाएगी जातीय गणना की गुत्थी?

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

वर्ष 2021 की लंबित जनगणना शुरू करने के पहले सरकार के सामने जातीय जनगणना की गुत्थी सुलझाने की सबसे बड़ी चुनौती होगी। कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों के साथ-साथ जदयू जैसे अहम सहयोगी दल भी जातीय जनगणना की मांग कर रहे हैं।भाजपा ने बार-बार साफ किया है कि वह जातीय जनगणना के खिलाफ नहीं है। मगर सरकार के सामने सबसे बड़ा सवाल है कि जातीय जनगणना कैसे कराई जाए?

विपक्षी दलों से संपर्क कर सकती सरकार

2011 में संप्रग की मनमोहन सरकार द्वारा कराई गई जातीय जनगणना के अनुभव अच्छे नहीं है। ऐसे में रास्ता सुझाने के लिए सरकार इस मुद्दे पर विपक्ष समेत सभी दलों से संपर्क कर सकती है। इसमें एक सुझाव सर्वदलीय समिति गठित करने का भी आ रहा है। सरकार के लिए सबसे बड़ी समस्या यह है कि जातियों की गणना कैसे कराई जाए?

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ओबीसी जातियों को खोजने में आ रही दिक्कत

2011 के जनगणना के दौरान सामाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना के आंकड़े जुटाने के लिए लोगों को अपनी-अपनी जाति बताने का अवसर दिया गया था। लोगों ने अपनी-अपनी जातियां बताई, उसके अनुसार 2011 में 46.80 लाख से अधिक जातियां थी। जबकि 1931 की जनगणना में सिर्फ 4147 जातियां दर्ज की गई थी। इतनी बड़ी संख्या में जातियों में से ओबीसी जातियों का ढूंढना संभव नहीं था।
पहले मनमोहन सिंह सरकार और बाद में मोदी सरकार ने इनमें से ओबीसी जातियों को ढूंढने की कोशिश की, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। आखिरकार जातीय जनगणना के इन आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं करने का फैसला किया गया। जाहिर है नए सिरे जातीय जनगणना कराने की स्थिति में ओबीसी जातियों की स्पष्ट पहचान का फार्मूला निकालना जरूरी है।

सरनेम से भी नहीं हो पा रही पहचान

उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार पूरे देश में जातियों की अलग-अलग पहचान के लिए कोई भी फॉर्मूला सटीक नहीं है। जातियों की पहचान के लिए सरनेम को सबसे बेहतर तरीका माना जाता है। मगर समस्या यह है कि कई लोगों ने अपना सरनेम अपने गांव के नाम पर रख लिया है। जैसे अकाली दल नेता सुखबीर सिंह बादल या भाजपा नेता पुरुषोत्तम रुपाला। सुखबीर सिंह जट सिख हैं और बादल उनके गांव का नाम है। इसी तरह से पुरूषोत्तम कड़वा पटेल हैं और रूपाला उनके गांव का नाम है।

यूपी में भी सरनेम वाली कठिनाई

इसी तरह से बिहार और उत्तर प्रदेश की भूमिहार जाति सिंह, शर्मा, मिश्र, सिंन्हा समेत कई सरनेम लगाते हैं। जाहिर है सरनेम के आधार पर उनकी जाति का निर्धारण नहीं किया जा सकता है। यहीं नहीं, 2011 की जाति जनगणना के दौरान सिर्फ महाराष्ट्र में 10 करोड़ लोगों में से 1.10 करोड़ यानी 11 फीसद लोगों ने अपनी कोई जाति नहीं बताई थी। इनमें बड़ी संख्या में ओबीसी जातियों के लोग भी हो सकते हैं।

समस्या खड़ी कर सकता जाति निर्धारण का विकल्प

जाति जनगणना की इस विसंगति को दूर करने के लिए एक विकल्प के रूप में लोगों को खुद अपनी जाति जनगणना के दौरान बताने का मौका देने का तर्क दिया जा रहा है। लेकिन ओबीसी में आना किसी व्यक्ति को कई सरकारी लाभों का हकदार बना देता है। ऐसे में हर व्यक्ति खुद को ओबीसी बताने की कोशिश करेगा। जाहिर है लोगों को खुद अपनी जाति निर्धारित करने का विकल्प देने से नई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी।

1931 में हुई थी आखिरी जातीय जनगणना

एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि जाति जनगणना का मांग करना आसान है, लेकिन सचमुच में इसे कराना उतना ही मुश्किल है। ऐसे में जातीय जनगणना की मांग करने वाले नेताओं और दलों को इसका रास्ता सुझाने की जिम्मेदारी सौंपना बेहतर होगा।
दरअसल, अभी तक जनगणना के साथ-साथ सिर्फ अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की गणना होती रही है। देश में जातीय जनगणना अंतिम बार 1931 में हुई थी। ओबीसी को मिल रहा मौजूदा आरक्षण 1931 की जातीय जनगणना के आधार पर ही है।

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