मैं नेता हूं, और मैं सेवा करने आया हूं,क्या यह जुमला हैं?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
झूठ। छल। कपट। अवसरवादिता। बेईमानी। धोखेबाजी। आजकल देश की युवा आबादी इन शब्दों का इस्तेमाल नेता और राजनीति के लिए करती है। ये एक कड़वा सच है और इसके लिए युवाओं को दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता। राजनीतिक दलों के नुमाइंदे जिस तरह से सत्ता, पद, पैसे और पावर के लालच में इधर से उधर हो रहे हैं, उसे देखकर युवाओं का सियासी लोगों के प्रति ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करना स्वाभाविक ही है।
अतीत की राजनीति में कई किरदार ऐसे रहे हैं जो देश के युवाओं के लिए मिसाल थे। लेकिन आज रंग बदलते नेता और भरोसा खोती राजनीति में सियासत का सम्मान करने वाले सारे शब्द किसी कोने में दबे-कुचले पड़े नजर आते हैं। लालच के कंबल में दुबककर दल बदलते नेता बेशर्मी के साथ मतदाता को छल रहे हैं। दलबदल का ये मौसम अब बारह महीने चलने लगा है।
हाल ही में जितिन प्रसाद कांग्रेस छोड़ भाजपा में आ गए। बिहार में चाचा-भतीजे के बीच तोड़फोड़ की सियासत चल ही रही है। बंगाल में मुकुल राय का ड्रामा सबने देखा है। 4 साल पहले उन्हें भाजपा में भविष्य दिखा तो इधर आ गए, चुनाव बाद ममता में भविष्य दिखा तो फिर ममता के पाले में कूद गए। बंगाल में तो ये खेला अभी और चलने वाला है।
राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड, बिहार में दलबदलुओं के कारण सत्ताएं बदलते देख चुके हैं। गुजरात में थोक में कांग्रेस के नेताओं की आस्था बदलते भी देश ने देखा है। एडीआर की रिपोर्ट की मानें तो 2016 से 2020 के बीच कांग्रेस के 170 विधायकों ने दल बदला। वहीं भाजपा के 18 विधायकों ने भी पार्टी बदल ली। इन 4 वर्षों में चुनाव लड़ने वाले 405 में से 182 विधायक अपनी पार्टियां छोड़कर भाजपा में शामिल हुए। जबकि 38 विधायकों ने कांग्रेस ज्वाइन की।
भाजपा आज दलबदलू नेताओं का पसंदीदा पर्यटन स्थल बनी हुई है। लेकिन भाजपा को ये सोचना चाहिए कि जो विधायक और सांसद आज आपके लिए बिकने को तैयार हैं, वो कल आपके खिलाफ भी बिकने को तैयार होंगे। सत्ता हथियाने का ये खेल अतीत में कांग्रेस ने भी खूब खेला है। दलबदलुओं के बाजार की सिकंदर तो कांग्रेस ही रही है।
1967 से 1971 का दौर ही देश की राजनीति में आयाराम-गयाराम की संस्कृति का जन्मदाता रहा है। 1967 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस ने जब 16 में से 8 राज्यों में बहुमत खो दिया था और 7 राज्यों में सरकार भी नहीं बना पाई थी तब 142 सांसदों और 1969 विधायकों ने दलबदल किया था। और सौदेबाजी के रूप में इनमें से 212 को मंत्री पद दिया गया था।
एक मतदाता मन में कई उम्मीदें लेकर वोट डालने जाता है। वो अपना, परिवार का भविष्य एक वोट में तलाशता है। उसे उम्मीद रहती है कि वो जिसे चुन रहा है वो उसकी जिंदगी को संवारेगा। लेकिन होता इसके उलट है। सत्ता किसी की भी हो, राजनीतिक दल और नेता कभी इन दलबदलुओं के खिलाफ कदम नहीं बढ़ाएंगे। इसलिए यदि अपने भरोसे, उम्मीदों की लाज रखनी है, तो मतदाताओं को ही इन बदबदलुओं का बहिष्कार करना चाहिए। वरना ये अपने फायदे के लिए हमें लूटते रहेंगे और हम हमेशा की तरह लुटते रहेंगे।
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