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तुम्हे याद करते करते ,जायेगी रैन सारी......................... - श्रीनारद मीडिया

तुम्हे याद करते करते ,जायेगी रैन सारी…………………….

तुम्हे याद करते करते ,जायेगी रैन सारी…………………….

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priyranjan singh
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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय सिनेमा के इतिहास में यदि किसी गीत को कामुकता का भाव समेटे हुए उत्कृष्टतम गीत कहा जाए, तो वह “आम्रपाली” फिल्म का यह अमर गीत ही होगा.
यह गीत अपनी सोलो परफॉर्मेंस और अभिनेत्री वैजयंती माला जी की अनुपम अभिनय क्षमता के कारण विशिष्ट हो जाता है। उन्होंने अपने एकल प्रदर्शन से रुपहले परदे पर अनगिनत भावों की अनूठी छटा बिखेरी है।

ये एक सामंती शोषण से ग्रसित समाज में नगरवधू का तमगा लिए एक बेजोड़ कलाकार और एक नर्तकी के मनोभावों को दर्शाता गीत है.जिसमे वो अपने नगरवधू के सामाजिक स्टेटस से बाहर निकल एक आम स्त्री की तरह अपनी मनोव्यथा को व्यक्त करने के लिए व्याकुल है। वो स्त्रैण इच्छाएं जिनमे प्रेम ,कामुकता और अपने प्रियतम के सानिध्य पाने की दबी छुपी लालसा है।

गीत का आरम्भ वैजयंती माला जी के “विचित्र-वीणा” वाद्य यंत्र के तारों को छेड़ते अपनी कामनाओं को व्यक्त करने की झिझक भरी कोशिश से होता है।
यह दृश्य मानो किसी स्त्री के अंतरंग क्षणों की झलक है, जिसमें वह अपने प्रेम को छिपाने का असफल प्रयास करती है।
ये सीन कुछ ऐसा ही ही जिसमे कोई स्त्री किसी से अंतरंग क्षणों में कुछ भी पहल करने से पहले इधर उधर देखते हुए अपनी प्रेम पहल को छुपाने की नाकाम कोशिश करती हो। उसके बाद धीरे से उनके अधरों से शब्द छलकने लगते हैं –

तुम्हे याद करते करते ,जायेगी रैन सारी
तुम ले गए हो अपने संग नींद भी हमारी।
~~~
ये मुखड़ा गाते गाते वो शैय्या पर लेट जातीं हैं , और मुखड़ा खत्म होते ही वो धीरे धीरे अपने मनोभावों को खुलकर बोलने को तैयार दिखतीं हैं। इस गहन भावप्रकाश के साथ गीत आगे बढ़ता है, और उनका दुपट्टा धीरे से फिसल जाता है। उसके बाद पूरे सीन में सिर्फ उनके चेहरे को फोकस किया गया है।
लेकिन इसके ख़तम होते ही कैमरा उनकी सम्पूर्ण काया को सामने लाता है। जिसमे वो कामुक वस्त्रों में नज़र आतीं हैं। इसके बाद पूरे गीत में वैजयंतीमाला जी की खूबसूरती, शालीनता और नज़ाकत का बेजोड़ संगम देखने को मिलता है।

इस गाने की शुरुआत से ही वो बेहद सेंसुअल हैं, लेकिन उनकी कामुकता में एक “गरिमा” और शालीनता दिखाई देती है।
एक ऐसा अतुलनीय कामुक सौंदर्य, जो हृदय को छू ले और आत्मा को सुकून दे। ऐसा सौंदर्य जो की पवित्र कामेच्छाओं को वासना से स्पष्ट रूप से विभाजित करता प्रतीत होता है।

गीत के अन्तरे में चलते हुए उनके कूल्हों का धीमा हिलोर अद्भुत समा बांधता है. उनकी पोशाक उरोजों को एक्सपोज़ करती प्रतीत होती है लेकिन गीत देखते हुए आप उनके वस्त्रों और उनकी काया पर फोकस कर ही नहीं पाते , क्योंकि उनके फेस एक्सप्रेशन इस कामुकता को उर्घ्व-रेतस बना कर कामुकता के भावों को उनके चेहरे और आँखों में खींच कर उसे गहन प्रेम और विरह का रूप दे देतें हैं।
और फिर आप सिर्फ और सिर्फ उनके चहरे की सुंदरता में खो जाते हो।

प्रथम अन्तरा शुरू होने से पहले वो एक हल्की सी अंगड़ाई लेकर अपने बालों को खोलतीं हैं। और फिर अचानक से विशाल महल के भव्य शयनकक्ष के अकेलेपन के आनंद को महसूस करती हैं। फिर कवि शैलेंद्र के मार्फत आम्रपाली के मुँह से बोल झरतें हैं .

“मन है की जा बसा है अनजान एक नगर में – कुछ खोजता है पागल खोयी हुई डगर में “.
उसके बाद जब वैजयंती माला गाती हैं – “इतने बड़े महल में , घबराऊँ मैं बेचारी”

ये पंक्ति गाते समय उनकी अधरों की आकृति, उनकी आंखों का दर्द, और उनके चेहरे की मासूमियत दर्शकों को मूक कर देती है। अन्तरे की अंतिम पंक्ति में “घबराऊँ” मैं बेचारी कहते क्षण वो एक बच्चे सामान मुंह बनाकर अपनी नृत्यांगना नुमा विशाल पलकों की झपकी देकर अपने अधरों को नुकीला कर देती , यह नृत्यकला और अभिनय का अद्वितीय संगम है इसमें उन्होंने अपने अधरों को नुकीलेपन की शक्ल देकर जो व्यथा व्यक्त करि है वो अदा आज तक तमाम अभिनेत्रियां कॉपी करती रहीं हैं। ( मुमताज़ जी ,साधना जी और श्रीदेवी जी ने तो इसे अपना सिग्नेचर स्टाइल ही बना डाला था )

गीत के आखिरी अन्तरे में वो शैय्या पर वीणा के सहारे लेट जाती हैं , और फिर बेचैनी में शैय्या पर हाथ फेरते हुए गाती हैं –

“बिरहा की इस चिता से , तुम ही मुझे निकालो।
जो तुम न आ सको तो, मुझे स्वप्न में बुला लो”.

पूरे गीत में विचित्र-वीणा उनकी सखी उनकी हमराज बन जाती है।
इसके साथ उनके शयन कक्ष में विचित्र-वीणा उनके लिए एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव से बाहर आने का जरिया बनती है , जिसमे वो अपने अंतरंग पलों में “नगरवधू” के विचार से बाहर आकर एक नर्तकी एक फनकार या एक साधारण स्त्री के रूप में अपने को स्थापित करती नज़र आतीं हैं। आखिरी अन्तरा वो पूरा पूरा “वीणा” के ऊपर लेटकर ही गातीं हैं और और “बिरहा” के दुःख को व्यक्त करतीं हैं।

गीत में वाद्य यंत्र वीणा उनकी सखी उनके किसी अभिवावक जैसी प्रतीत होती है। ठीक वैसे ही जब आप किसी बड़े दुःख में हो और किसी दोस्त के सानिध्य में अपना दुःख रो-रोकर निकाल रहे हो।
गीत के अंत में वो थकी हुई प्रतीत होती हैं जो की एक प्रेयसी के द्वारा अपने प्रिय के लिए एक लम्बी प्रतीक्षा की परिणीति मालूम पड़ती है। अंत में वो मुखड़े को तीन बार दोहराती हैं – तुम्हे याद करते करते ,तुम्हे याद करते करते , तुम्हे याद करते करते।
और फिर वीणा पर ही सर टेककर गहन निंद्रा में चली जातीं हैं।
———————–
अभिनय का ऐसा जादू बिखरने की क्वालिटी सिर्फ उसी अभिनेत्री में हो सकती है जो किसी नृत्यकला में पारंगत हो।
हालाँकि तुलना करना गलत है , फिर भी वैजयंतीमाला जी को कभी भी नरगिस जी और मीना कुमारी जी के अभिनय क्षमता के समकक्ष नहीं माना गया.
फिर भी इस गीत को वैजयंती माला जी से बेहतर और कोई नहीं निभा सकता था। उनकी नृत्यकला में सिद्धहक्षता उन्हें इस गीत के कामुक भावों को व्यक्त करने में एक एक्स्ट्रा एज देती थी।
वहीदा रहमान जी भी क्लासिकल नृत्य में एक्सपर्ट थीं। लेकिन उनकी पर्सनैलिटी में एक गहन प्रत्यभिज्ञा एक सिम्पलिसिटी है। जो कामुकता के भावों को बाहर निकालने में असमर्थ प्रतीत होती है।
( ठीक यही अंतर् आप माधुरी दीक्षित और जूही चावला में भी देख सकते हो ).

लेकिन वैजयंती माला जी की अदा में एक कविता छुपी लगती है. और उनकी आँखें जैसे हर शब्द को कहानी में बदल देती हैं।वैजयंती माला जी की प्रतिभा इसमें है कि उन्होंने इस उत्तेजक और घोर कामुक भावों से भरे गीत को भी गरिमामय और काव्यमयी बना दिया।

ये एक कलाकार की महानता है की उत्तेजक कामुक वस्त्रों और असीम सुंदरता समाये किरदार में स्त्री की अपने प्रीतम से मिलन की बेचैनी को , उनकी अंतरंग इच्छाओं को उन्होंने इतनी शालीनता से इतने अतुलनीय असम्भव तौर पर शिष्ट तरीके से पेश किया है।
पूरे गीत में उनकी अदाओं में एक अनकही सी कामुकता है, जो पूरी तरह से मर्यादा, माधुर्य और विनम्रता से भरी हुई है।

वैजयंती माला जी उस वक़्त सिर्फ 30 बरस की थीं।

 

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