डॉक्टरों के साथ हिंसा यदि जारी रही तो निजी डॉक्टर गंभीर मरीजों को मना करने लगेंगे.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
राजस्थान के दौसा जिले में एक महिला डॉक्टर द्वारा आत्महत्या की खबर हर किसी को झकझोर देने वाली है। इस असामयिक मृत्यु के पीछे कथित राजनीतिक दवाब, धमकियां, फिरौती और मानसिक हिंसा का सम्मिश्रण है। साथ ही, यह स्वास्थ्य तंत्र और लोगों के बीच टूटते विश्वास को भी रेखांकित करती है। याद रखने की बात है कि पिछले दो दशकों में भारत में स्वास्थ्यकर्मियों और डॉक्टरों के खिलाफ हिंसा के मामले नियमित रूप से बढ़े हैं और डॉक्टरों में आत्महत्या की दर अन्य लोगों से अधिक हो रही है।
हमें इस समस्या की जड़ में जाना होगा। देश में स्वास्थ्य सेवाओं पर अविश्वास और हिंसा के लिए कुछ हद तक उभरती हुई पूंजीवादी मानसिकता जिम्मेदार है। कमजोर सरकारी सेवाओं के चलते जब मरीज निजी क्षेत्र में इलाज के लिए जाता है, तो मरीज और डॉक्टर का सम्बन्ध क्रेता और विक्रेता में बदल जाता है। सच यह है कि बेहतरीन इलाज भी कुछ परिस्थितियों में काम नहीं करता। लेकिन बाजारवादी विचारधारा चमक-दमक वाले और महंगे अस्पतालों को अच्छे इलाज का पर्याय बनाने लगी है।
जब परिवार के सदस्य कहते हैं कि चाहे जितना पैसा खर्च हो जाए, मरीज बच जाना चाहिए तो कहीं न कहीं पूंजीवादी बात असर दिखा रही होती है, जिसमें लोग सोचते हैं कि पैसे से जीवन और मृत्यु को भी खरीदा जा सकता है। फिल्में कुछ हद तक समाज का आईना होती हैं। लेकिन पिछले एक दशक में अधिकतर हिंदी फिल्मों में डॉक्टर और नर्स को बहुत सतही तौर या तो ‘भगवान’ या फिर ‘शैतान’ या ‘लालची इंसान’ की बाइनरी में दिखाया जाने लगा है।
यह बात भुला दी जाती है कि इलाज तो मरीज के ठीक होने की प्रक्रिया का एक हिस्सा मात्र है। दरअसल, मरीज का ठीक होना कई बातों पर निर्भर करता है। जैसे, बीमारी की अवस्था क्या है, कितनी गंभीर है और मरीज का इम्यून सिस्टम कितना मजबूत है आदि। इलाज में जितनी भूमिका डॉक्टर की होती है, उतनी ही मरीज या उसके परिवार और अस्पतालों में उपलब्ध सुविधाओं की भी होती है। नेता अक्सर डॉक्टरों और निजी अस्पतालों पर उंगली उठाते हैं।
लेकिन बड़ा सवाल यह भी है कि अगर एक गरीब गर्भवती महिला प्रसव के लिए निजी अस्पताल को चुनती है तो क्या यह सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के कमजोर होने का सबूत नहीं है? भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में पिछले सात दशकों में काफी प्रगति हुई है, लेकिन सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं आज भी नाकाफी हैं और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पूरी तरह से सुचारु नहीं हैं। लोगों को जरूरत पड़ने पर निजी अस्पतालों, नर्सिंग होम और छोटे क्लिनिक पर जाकर इलाज कराना पड़ता है।
निजी अस्पताल और प्राइवेट प्रैक्टिस वाले डॉक्टर करीब दो-तिहाई स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करते हैं। अगर प्राइवेट क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं होंगी तो आज देश में स्वास्थ्य की उपलब्धता और बदतर हो जाएगी। यह इस बात की भी याद दिलाता है कि हर राज्य सरकार को स्वास्थ्य सेवाओं में अधिक निवेश करने की जरूरत है। फिर हमें समझने की जरूरत है कि कभी-कभी बेहतरीन स्वास्थ्य सेवाओं के बावजूद परिणाम आशानुरूप नहीं होते हैं।
स्मिता पाटिल एक जानी-मानी अभिनेत्री रही हैं। 31 साल की उम्र में 28 नवम्बर 1986 को उन्होंने बच्चे को जन्म दिया (आज के समय के अभिनेता प्रतीक बब्बर), लेकिन बेहतरीन अस्पताल होने के बावजूद प्रसूति में संक्रमण से 13 दिसंबर को उनका निधन हो गया। अस्पताल चाहे बड़ा हो या छोटा, कॉम्प्लिकेशंस हो सकते हैं। यह भी सच है कि डॉक्टर और स्वास्थ्य क्षेत्र पूरी तरह दूध के धुले नहीं।
कोविड के समय कई अस्पतालों द्वारा महंगा इलाज और एम्बुलेंस मालिकों द्वारा मनमानी कीमत वसूलना सुधार की जरूरत को रेखांकित करते हैं। मेडिकल नियामक काउंसिल डॉक्टरों पर निगरानी रखती है, उसे सुदृढ़ और निष्पक्ष होने की जरूरत है। स्वास्थ्य सेवाओं में लोगों का विश्वास बनाए रखना निहायत जरूरी है। हर असामयिक मृत्यु दुखद है, लेकिन जिन परिस्थितियों ने डॉ. अर्चना शर्मा को आत्महत्या के लिए मजबूर किया, वह पूरे समाज की विफलता है।
अगर डॉक्टरों और स्वास्थ्य सेवाओं पर हिंसा-प्रताड़ना जारी रही तो निजी डॉक्टर गंभीर बीमारी वाले मरीज को मना करने लगेंगे। छोटे क्लिनिक बंद होने के कगार पर आ जाएंगे, सिर्फ बड़े और महंगे अस्पताल रह जाएंगे, और इसमें सबसे अधिक नुकसान आम आदमी का होगा। अस्पताल में हर मृत्यु चिकित्सकीय लापरवाही से नहीं होती है। चिकित्सा जगत में भले बुराइयां हों, पर जब मरीज सामने होता है तो हर डॉक्टर उसे बचाने का प्रयास करता है। यह मानवीय पहलू अभी जिंदा है।
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