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सनातन परंपरा में मानवीय कर्तव्यों से जोड़ती है रक्षाबन्धन. - श्रीनारद मीडिया

सनातन परंपरा में मानवीय कर्तव्यों से जोड़ती है रक्षाबन्धन.

सनातन परंपरा में मानवीय कर्तव्यों से जोड़ती है रक्षाबन्धन.

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स्वधर्म की यात्रा है रक्षाबंधन का पर्व

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय संस्कृति में विश्वास का बंधन अमूल्य माना गया है। रक्षाबंधन का पावन पर्व इसी विश्वास का प्रतीक है। हिंदू संस्कृति में ‘सूत्रÓ अविच्छिन्नता का प्रतीक माना गया है। ऋषि मनीषा कहती है कि जिस तरह सूत्र (धागा) बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर एक माला के रूप में एकाकार बनता है, ठीक उसी तरह रक्षासूत्र में निहित विश्वास व्यक्ति को मानवीय कर्तव्यों से जुड़े रहने की प्रेरणा देता है। पवित्र स्नेह का बंधन और रक्षा का संकल्प। यही है श्रावणी पर्व रक्षाबंधन का मूल तत्व दर्शन। मानवीय रिश्तों में नवीन ऊर्जा का संचार करने वाले इस पावन पर्व से जुड़े पौराणिक उद्धरण न सिर्फ इस पुरातन पर्व की महत्ता को उजागर करते हैं, अपितु मूल्यहीनता के वर्तमान दौर में भी इस सूत्र को धारण करने वाले व्यक्ति के भीतर कर्तव्यबोध भी जाग्रत करते हैं।

सर्वप्रथम मां लक्ष्मी ने दानवराज बलि को रक्षासूत्र बांधा था। यह प्रसंग भगवान विष्णु के वामन अवतार से जुड़ा है। कथा है कि भगवान विष्णु के परम भक्त दानवराज बलि के तप बल से जब देवराज इंद्र का सिंहासन डोलने लगा तो वे देवताओं के साथ भगवान विष्णु के पास गये और उनसे रक्षा की गुहार लगायी। श्रीहरि ने वामन बटुक का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा में तीन पग भूमि के बदले तीनों लोक मांग लिये।

एक पग में स्वर्ग और दूसरे पग में पृथ्वी को नापने के बाद अब तीसरा पग वे कहां रखें; प्रभु की लीला को समझ चुके बलि ने तत्क्षण अपना शीश उनके चरणों में प्रस्तुत कर दिया। भक्तवत्सल प्रभु ने बलि की इस सदाशयता पर रीझ कर उनके निवेदन पर पाताललोक में उनके साथ रहना स्वीकार लिया। जब माता लक्ष्मी को इस बात की जानकारी हुई तो उन्होंने बलि को रक्षासूत्र बांध उन्हें अपना भाई बनाकर उपहार में अपने पति विष्णु को वापस मांग लिया।

बलि को सूत्र बंधन की वह तिथि श्रावण मास की पूर्णिमा थी। भविष्य पुराण में वर्णित पर्व से जुड़े एक अन्य लोकप्रिय कथानक के अनुसार एक बार देवताओं और दैत्यों में 12 वर्षों तक घनघोर युद्ध चला परंतु कोई भी पक्ष विजयी नहीं हुआ। तब देवगुरु बृहस्पति के सुझाव पर इंद्र की पत्नी महारानी शची ने श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन अनुष्ठान पूर्वक रक्षासूत्र तैयार कर स्वास्ति वाचन के साथ इंद्र की कलाई में बांधा।

उस रक्षासूत्र ने इंद्र को विजयश्री दिलायी। वही रक्षासूत्र आज भी बोला जाता है- येन बद्धोबली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। दानवेन्द्रो मा चल मा चल।। अर्थात दानवों के महाबली राजा बलि जिस सूत्र से बंधे थे, उसी से तुम्हें बांधती हूं। हे रक्षासूत्र! तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो। महाभारत युग की श्रीकृष्ण व दौपदी के जीवन से जुड़ी एक घटना भी इस पर्व से जुड़ी है। सुदर्शन चक्र से शिशुपाल के वध के बाद जब श्रीकृष्ण की तर्जनी में चोट आ गयी तो द्रौपदी ने अपनी साड़ी का आंचल फाड़कर उनकी अंगुली पर पट्टी बांधी थी। वह तिथि भी श्रावणी पूर्णिमा थी। द्रौपदी के चीर-हरण के समय उनकी लाज बचाकर श्रीकृष्ण ने इसी सूत्र बंधन का धर्म निभाया था।

रक्षाबंधन हमारे जीवन में स्वतंत्रता के शिखर की यात्रा है। भारतीय जीवन में पूर्ण निर्णय की व्यवस्था का आधार ही स्वतंत्रता है। वैदिक ऋषियों ने इसी स्वतंत्र व्यवस्था के कारण दर्शन, धर्म, कला और विज्ञान के शिखर को स्पर्श किया था। उत्सव और त्योहार ने समाज को स्वावलंबन की सीख दी और आत्मिक आजादी का जयघोष किया। आजादी के संघर्ष के दौरान भी इसी कारण कहा गया कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

हमारी स्वतंत्रता संकुचन का नहीं, बल्कि अनंत तक विस्तार करने का साधन रहा है। चेतना की स्वतंत्रता व्यक्ति को मोक्ष की ओर ले जाती है, समाज के उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है और राष्ट्र का वैभव शिखर को छूता है। भारतीय सभ्यता के इस सनातन भाव को रक्षाबंधन ने सदैव ही प्रगाढ़ किया है। आजादी का अर्थ होता है-व्यक्ति की गरिमा, उसका मूल्य और व्यक्तित्व का अनंत विस्तार। जब एक आदमी अपनी स्वयं की स्वतंत्रता की घोषणा करता है तो वह समाज के स्वावलंबन और स्वधर्म की रक्षा का भी द्योतक होता है। व्यक्ति की आत्मिक स्वतंत्रता को रक्षाबंधन अर्थपूर्ण बनाता है।

रक्षा सूत्र के रूप में राखी बांधकर रक्षा का केवल वचन नही नहीं दिया जाता है, बल्कि प्रेम, समर्पण, निष्ठा और संकल्प के साथ हृदय को जोडऩे का भी वचन दिया जाता है। यह परम स्वतंत्रता का आधार है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि – मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव-अर्थात यह सूत्र अविच्छिन्नता का प्रतीक है।

यह सूत्र यानी धागा बिखरे हुए मोतियों को, लोगों को और उनके संबंधों को अपने में पिरोकर एक रूप में एकाकार बनाता है। यह रक्षा सूत्र लोगों को जोडऩे का उपक्रम है। सबसे पहले जब इस सृष्टि में नैतिक मूल्यों का ह्रïास होने लगा तो प्रजापति ब्रह्मा भगवान शिव को इस पवित्र धागे से जोड़ते हैं, ताकि शिव गुणों को धरती पर भेजा जा सके। इससे लोगों के नकारात्मक विचारों को खत्म कर दुख एवं पीड़ा से निजात दिलाई जा सकती है। स्वतंत्रता से स्वधर्म की यात्रा का भविष्य पुराण में एक आख्यान है। इंद्र की पत्नी शचि ने वैदिक मंत्रों से अभिमंत्रित एक रक्षासूत्र बनाया, जिसे गुरु बृहस्पति ने इंद्र के हाथों में बांध कर उन्हें अभय बना दिया था। इस रक्षा सू़त्र के बल से ही इंद्र ने असुरों को परास्त किया था।

यह स्वावलंबन से स्वधर्म की यात्रा है। भविष्य पुराण में कहा गया है- सर्व रोगापशमर्न सर्वाशुभ विनाशनम। सकृत्कृते नाब्दमेकं येन रक्षा कृता भवेत।। अर्थात इस सावन पूर्णिमा को धारण किया हुआ रक्षासूत्र संपूर्ण रोगों तथा अशुभ कार्यों का विनाशक है। रक्षाबंधन का पर्व राजा बलि, भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी से भी जुड़ा है। राजा बलि को दिये गए वचन के अनुसार, भगवान विष्णु पाताल लोक में चले गये तो माता लक्ष्मी चिंतित हो गयीं। उन्होंने सावन की पूर्णिमा की तिथि को राजा बलि की कलाई पर पवित्र धागा बांधा और उसके मंगल की कामना की। इससे प्रभावित बलि ने माता लक्ष्मी की रक्षा का वचन दिया। तत्पश्चात माता ने भगवान विष्णु को वापस वैकुंठ भेजने आग्रह किया, जिसे बलि ने स्वीकार कर लिया। राजा बलि का यह धर्म कार्य समाज में स्वावलंबन का उत्कृष्ट उदाहरण है।

रक्षाबंधन अब केवल भाई एवं बहन का त्योहार बन कर रह गया है, जबकि इसका महत्व रक्षा कवच की तरह रहा है। इसे किसी की रक्षा हेतु या समाज, देश की प्रतिष्ठा के लिए बांधता रहा है। बाद में इस कार्य को ब्राह्मण समाज ने स्वीकार कर लिया। इस बंधन के साथ कर्तव्य बोध का आभास और व्यक्ति के दृढ़ प्रतिज्ञ बने रहने का भाव छिपा है। बचपन में ब्राह्मण ही रक्षासूत्र को बांधते थे।

तब समूह में ब्राह्मण की टोली निकलती थी। इसमें बच्चे, युवा एवं बुजुर्ग ब्राह्मण हुआ करते थे। वे कच्चे सूत को कलाई पर बांधते समय मंत्रों का उच्चारण करते- मेन बद्धो बली राजा, दानवेंद्रों महाबल:। तेनत्वां प्रतिबधनामि रक्षे! मा चल मा चल।। अर्थात् जिस प्रायोजन से रक्षासूत्र से दानवों का सम्राट महाबली राजा बांधा गया था, उसी प्रायोजन से हे रक्षासूत्र ! आज मैं तुझे बांधता हूं।

अत: तू भी अपने निश्चित उद्देश्य से विचलित न होना! दृढ़ रहना। भारतीय परंपरा में गुरु और शिष्य के बीच अटूट संबंध का साक्षी रहा है रक्षा बंधन। प्राचीन काल में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात आशीर्वाद स्वरूप गुरु अपने शिष्य को रक्षा सूत्र बांधते थे और कामना करते थे कि वे अपने ज्ञान का समुचित उपयोग करेंगे।

रक्षाबंधन के बारे में श्रीमद्भागवत और महाभारत में भी उल्लेख है। युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि सभी संकट से पार कैसे पा सकता हूं तो उन्होंने सैनिकों की रक्षा के लिए राखी का त्योहार मनाने का सलाह दी। द्रौपदी द्वारा श्रीकृष्ण को और कुंती द्वारा अभिमन्यु को राखी बांधने का उल्लेख महाभारत में है।

सन 1905 में लार्ड कर्जन ने बंगभंग किया, तो देश में स्वदेशी आंदोलन शुरू हो गया। बंग भंग की घोषणा के दिन रक्षा बंधन की योजना बनी और लोग गंगा स्नान के बाद नारा लगाना शुरू किया- सप्त कोटि लोकेर करुणताइ निते प्रतिशोध मनेर मतन करलि, आमि स्वजने राखी बंधन।।

 

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