तीन वर्षो में लगभग 72 हजार पैदल राहगीरों ने गंवाई जान.

तीन वर्षो में लगभग 72 हजार पैदल राहगीरों ने गंवाई जान.

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

पिछले तीन वर्षो के दौरान देशभर में सड़क हादसों में लगभग 72 हजार पैदल राहगीरों ने अपनी जान गंवाई है। इसमें ध्यान देने वाली बात यह भी है कि वर्ष 2020-21 में देशभर में कई माह कोविड महामारी के कारण लाकडाउन लगा हुआ था, जिस दौरान सड़कों पर वाहनों की संख्या अपेक्षाकृत बहुत कम थी। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में सालाना करीब साढ़े चार लाख सड़क दुर्घटनाएं होती हैं, जिनमें लगभग डेढ़ लाख लोगों की मौत होती है।

एक चिंताजनक तथ्य यह भी है कि विश्व में सड़क दुर्घटनाओं में घायल होने वाले लोगों में सबसे ज्यादा भारत के होते हैं। भारत में समग्र विश्व का केवल एक प्रतिशत वाहन है, जबकि सड़क दुर्घटनाओं में दुनियाभर में होने वाली मौतों में भारत का हिस्सा लगभग 11 प्रतिशत है।

सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रलय द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया है कि भारत में सड़क दुर्घटनाओं से 1,47,114 करोड़ रुपये की आर्थिक क्षति होती है, जो जीडीपी के 0.77 प्रतिशत के बराबर है। इस मंत्रलय के अनुसार, सड़क दुर्घटनाओं का शिकार लोगों में 76.2 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनकी उम्र 18 से 45 साल के बीच है यानी ये युवा और कामकाजी आयु वर्ग के लोग हैं।

रिपोर्ट के अनुसार साल 2018 में अधिकतर दुर्घटना के मामले दोपहिया वाहनों से हुए जिसका मुख्य कारण बिना परवाह किए ओवर स्पीडिंग, सड़कों और राजमार्गो पर तेज और जोखिम भरे स्टंट, स्ट्रीट रेस आदि रहे, लेकिन बात अगर पैदल चलने वालों की मौत और उसके कारणों तक सीमित रहते हुए करें तो अभी तक राष्ट्रीय राजमार्गो पर पैदल चालकों की मौतें क्यों होती हैं, इस बारे में कोई पुख्ता अध्ययन रिपोर्ट अब तक सामने नहीं आई है।

इस बारे में आम धारणा यह है कि पैदल यात्रियों की सड़कों पर मौत होने के पीछे उनका सड़क पर चलने के लिए तय मानदंडों का पालन नहीं करने अथवा पैदल सड़क पार करने की कोशिश के दौरान तेज रफ्तार वाहनों के कारण होती है। इन्हीं शोधों और अवधारणा को मानते हुए सड़क दुर्घटनाओं को रोकने और जीवन बचाने के लिए 17 जून 2015 को पैदल यात्रियों के लिए सरकार ने एक दिशा-निर्देश जारी किया था। साथ ही संसद द्वारा पारित मोटर वाहन (संशोधित) अधिनियम 2019 जो कि सड़क सुरक्षा पर केंद्रित है,

उसमें अन्य बातों के साथ यातायात उल्लंघन के लिए दंड में वृद्धि, इलेक्ट्रानिक निगरानी एवं किशोर ड्राइविंग के लिए बढ़ा हुआ दंड शामिल है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सड़क सुरक्षा के नियमों का उल्लंघन अपने आप में एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन बात जब पैदल यात्रियों की है तो इसको यहीं तक सीमित नहीं किया जा सकता है। सड़कों की बनावट और उन पर पैदल यात्रियों के लिए तय सुविधाएं भी एक महत्वपूर्ण पहलू है।

इस जानकारी के बावजूद कि सड़क पार करने की कोशिश के दौरान तेज रफ्तार वाहनों की वजह से पैदल यात्रियों के साथ दुर्घटनाओं की काफी आशंकाएं होती हैं, इसे रोकने या कम करने के लिए पैदल यात्रियों के सड़क पार करने के लिए जेब्रा क्रासिंग, फुट ओवरब्रिज या अंडरपास जैसी सुविधाएं किसी भी शहर में या क्षेत्र में पर्याप्त या समुचित नहीं हैं।

आम तौर पर यह एक धारणा बन गई है कि सड़कें वाहनों के परिचालन के लिए हैं, चाहे वे चार पहिये वाले हों या दो पहिये वाले उनका ही सड़कों पर पहला हक है। यह बात केवल शहरों के बाहर लंबी दूरी की यात्र के लिए हाइवे या एक्सप्रेसवे के लिए ही लागू नहीं है, बल्कि शहरों के अंदर भी पैदल यात्रियों के लिए गाड़ियों को ध्यान में रख कर बनाई गई सड़कों के दोनों ओर बची जगह ही है, जो जरूरी नहीं कि सही तरह से फुटपाथ के रूप में भी बनी हो।

सांसद और विधायक कोष से कंक्रीट सड़कों, गलियों में ज्यादातर में फुटपाथ की सुविधाएं नहीं के बराबर हैं। शहरों की योजनाओं में गाड़ियों के आवागमन की सुविधा पहले पायदान पर और पैदल यात्रियों की सुविधा निचले स्थान पर जाने लगी है। विगत कुछ दशकों में यही सोच गलियों (जिनमें फुटपाथ का होना संभव ही नहीं या कहें कि जो सही मायने में पैदल के लिए ही है) के लिए भी बन गई है और यह सोच केवल शहरों तक नहीं, बल्कि गांवों में भी वाहनों की निरंतर बढ़ती संख्या और सड़कों का जाल बिछने के कारण वहां भी बढ़ने लगी है।

वर्ष 2019 में पूरे देश में लगभग 30 करोड़ मोटर वाहन थे यानी वाहन नहीं रखने वालों की संख्या वाहन स्वामियों से कई गुना अधिक है। वैसे भी आजकल शहरों और यहां तक कि गांवों में भी यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है कि घर के आसपास से सामान लेने या छोटी दूरी के लिए भी लोग वाहन होने पर पैदल नहीं जाते हैं।

ऐसे में यह एक विडंबना की स्थिति है कि एक तरफ जहां पैदल चलना स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से अच्छा माना जाता है और शहरों में प्रदूषण की बढ़ती समस्या के समाधान के लिए लोगों से यह अपील और उम्मीद की जा रही है कि वे अपनी जीवनशैली में बदलाव लाते हुए निजी वाहनों का इस्तेमाल कम करें। वहीं दूसरी ओर पैदल यात्रियों से यह उम्मीद की जाती है कि सड़कों पर वह स्वयं अपनी सुरक्षा का ध्यान रखें।

पैदल चलना पर्यावरण और स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा है जैसी बातों के हम हिमायती रहे हैं, परंतु इसका व्यावहारिक पहलू यह है कि जाने अनजाने हम एक ऐसी वाहन संस्कृति का शिकार हो रहे हैं, जो हमारे सोच, हमें प्रदान की जाने वाली सुविधाएं और नियम सभी कुछ वाहनों को ही ध्यान में रखकर बनाए जा रहे हैं। कोरोना महामारी के कारण पिछले लगभग दो वर्षो में दुनिया ने कई सामान्य समझी जाने वाली आदतों, व्यवहार और कार्यो पर पुनर्विचार किया और हमें ऐसी कई चीजें ध्यान में आईं जिन्हें बदलने की आवश्यकता थी और फिर उनमें बदलाव की कोशिश हो रही है।

 

Leave a Reply

error: Content is protected !!