भारत ने लोकतंत्र की प्राचीन एवं पारंपरिक व्यवस्था को समझने हेतु ध्यान आकृष्ट किया है।
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
गत माह संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि हमारे यहां लोकतंत्र की एक महान परंपरा रही है और यह हजारों वर्षों पुरानी है। उनके द्वारा यह भी कहा गया कि भारत लोकतंत्र की जननी है। उनके इस वक्तव्य ने शैक्षिक एवं राजनीतिक पटल पर एक नई चर्चा को जन्म दिया। इस चर्चा ने भारत में चले आ रहे लोकतंत्र की प्राचीन एवं पारंपरिक व्यवस्था को समझने हेतु ध्यान आकृष्ट किया है।
प्रधानमंत्री के वक्तव्य पर कुछ लोगों ने हैरानी जताई तो कुछ ने कटाक्ष किया। यह और कुछ नहीं अज्ञान का परिचायक है। इससे पता चलता है कि लोग अपने देश की समृद्ध विरासत के बारे में कितना कम जानते हैं। आज जब आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है, तब हजारों साल पुरानी समृद्ध विरासत का भी स्मरण किया जाना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि भारत महज 75 साल पुराना राष्ट्र नहीं है।
हमें यह समझना होगा कि भारत का लोकतंत्र एक मानवीय संस्था है, जो मनुष्य को मनुष्य के रूप में महत्व पर आधारित एक ऐसा जीवन मार्ग है, जिसका उद्देश्य सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक जीवन के सभी पक्षों का समावेशी एवं समानतापूर्ण समाज की स्थापना सुनिश्चित करना है। पश्चिमी समाज मैग्नाकार्टा लोकतंत्र और अधिकारों की अवधारणा से जुड़ा है। ऐसा माना जाता है कि लोकतंत्र की संकल्पना मैग्नाकार्टा के माध्यम से ही विकसित हुई, लेकिन यह तथ्य भ्रामक है। भारत में कई सदियों पहले से ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लोकतांत्रिक परंपरा की शुरुआत हो गई थी।
प्राचीन भारत में सबसे पहला गणराज्य वैशाली था। ऐतिहासिक प्रमाणों के मुताबिक, वैशाली में ही दुनिया का पहला गणराज्य स्थापित हुआ। आज लोकतांत्रिक देशों में उच्च सदन और निम्न सदन की जो प्रणाली है, वह भी वैशाली गणराज्य में थी। वहां उस समय छोटी-छोटी समितियां थीं, जो जनता के लिए नियम और नीतियां बनाती थीं। वैशाली वज्जी महाजनपद की राजधानी थी। वैशाली में गणतंत्र की स्थापना लिच्छवियों ने की थी। लिच्छवियों का संबंध हिमालयन आदिवासी लिच्छ से था। लिच्छवियों ने वैशाली गणराज्य इसलिए स्थापित किया था, ताकि बाहरी आक्रमणकारियों से बचा जा सके। कालांतर में वैशाली एक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा और वहां एक नई प्रणाली विकसित हुई, जिसे हम गणतंत्र कहते हैं। इसे ही दुनिया के ज्यादातर देशों ने अपनाया। आज भारत हो या यूरोप या फिर अमेरिका, सब वैसी ही प्रणाली को मानते हैं, जैसी आज से 2500 साल पहले वैशाली में शुरू हुई थी।
मैग्नाकार्टा से भी कई वर्ष पूर्व भारतीय दार्शनिक, समाज सुधारक एवं लिंगायत संप्रदाय के संस्थापक गुरु बसवेश्वर द्वारा ‘अनुभव मंडप’ की स्थापना की गई थी। यह सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा के लिए एक सामान्य मंच उपलब्ध कराता था। इसे भारत की पहली संसद माना जाता है, जहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया जाता था।
बौद्ध परंपरा में विद्यमान संघ की संकल्पना भी शासन करने की एक सभा के रूप में विकसित की गई थी। इसमें किसी भी निर्णय के लिए मत का प्रयोग किया जाना अनिवार्य था। तब विश्व के किसी भी भाग में यह परंपरा देखने को नहीं मिलती थी। इसी क्रम में एक और उदाहरण है तमिलनाडु का। यहां एक छोटा सा शहर है उत्तरामेरूर। यह चेन्नई से लगभग 90 किलोमीटर दूर है। उत्तरामेरूर के बैकुंठ पेरुमल मंदिर की दीवारों पर एक शिलालेख है। यह शासन की एक बहुत विस्तृत लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक जीता जागता उदाहरण है। अकादमिक उद्देश्यों के लिए आप इसे अर्ध-लोकतांत्रिक कह सकते हैं, लेकिन इस प्रक्रिया को समुदाय द्वारा लोकतांत्रिक रूप से स्वीकार किया गया था।
तमिलनाडु में दसवीं सदी के प्रारंभ में परंथका चोल प्रथम चोल राजा था। उत्तरामेरूर के ग्रामीणों ने यह तय करने के लिए एक प्रणाली को लागू करने का फैसला किया कि उनके प्रतिनिधि कौन हो सकते हैं? यह चुनाव प्रक्रिया साल में एक बार आयोजित की जाती थी। पूरे क्षेत्र को 30 हिस्सों में व्यवस्थित किया गया था। तीन समितियों के लिए चुनाव होते थे। खातों को सत्यापित करने के लिए एक प्रकार के लेखाकार की व्यवस्था थी।
निर्वाचित उम्मीदवार को वापस बुलाने के लिए नियमों का एक समुच्चय निर्धारित था। गौर करने वाली बात यह है कि नैतिकता को सुनिश्चित करने हेतु ईमानदारी, सत्यनिष्ठा एवं मूल्यों से ओतप्रोत उम्मीदवारों का चयन किया जाता था। यह एक लिखित संविधान था। गांव होने के कारण इसका दायरा छोटा हो सकता है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पहलू स्वशासन की व्यवस्था थी। प्रत्येक समिति का कामकाज काफी विस्तृत था, जिसमें न्यायिक, वाणिज्यिक, कृषि, सिंचाई और परिवहन कार्य शामिल थे।
लोकतंत्र जीवन को समुचित ढंग से संचालित करने का एक तरीका है। वर्तमान में लोकतंत्र की प्रकृति में बदलाव आ रहा है। यह शासन व्यवस्था के विशेष स्वरूप तक सीमित न होकर व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के सभी पक्षों को संबोधित करने का एक पर्याय हो गया है। इस संकल्पना में भागीदारी, प्रतिनिधित्व, जवाबदेही, जनसामान्य की सहमति, बंधुता का आदर्श और आत्मविकास सन्निहित है।
भारत में मौजूद शासन प्रणाली की त्रिस्तरीय संरचना है, जिसमें विकेंद्रीकरण की प्रासंगिकता महत्वपूर्ण है। इसी भावना के साथ भारत में सदियों से चली आ रही लोकतंत्रत्मक व्यवस्था भावी वैश्विक समाज के लिए प्रेरणादायक है। जो लोकतांत्रिक व्यवस्था उपहारस्वरूप हमारे पूर्वजों ने हमें दी, उसे सहेजना और भावी पीढ़ी तक संप्रेषित करना समस्त भारतीय समाज और उसके नागरिकों का दायित्व है।
- यह भी पढ़े…….
- शराबी पति ने दहेज की मांग के लिए पत्नी से की मारपीट, पुलिस में की शिकायत
- क्यों कम हो रहा है बिजली उत्पादन?
- अष्टलक्ष्मी: प्रगति की सर्वोत्तम राह पर पूर्वोत्तर- बी. एल. वर्मा.
- मशरक थाना परिसर में दुर्गा पूजा को लेकर शांति समिति की हुई बैठक