भारत को तुर्की के साथ द्विपक्षीय संलग्नता के लिये तैयार रहना चाहिये,क्यों?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
धर्म, क्षेत्र या धर्मनिरपेक्ष विचारधाराओं पर आधारित अंतर्राष्ट्रीयतावाद (Internationalism) को हमेशा से सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद की ओर से विरोध का सामना करना पड़ा है। हालाँकि, क्षेत्रवाद, अंतर्राष्ट्रीयतावाद के साथ-साथ धार्मिक और जातीय एकजुटता के ये आह्वान प्रायः राष्ट्रीय हित को बढ़ावा देने हेतु एक साधन के रूप में ही काम करते हैं।
वर्तमान में, राष्ट्रीय हित के लिये अंतर्राष्ट्रीय कार्ड खेलने का सबसे उपयुक्त उदाहरण तुर्की के राष्ट्रपति ‘रेसेप तईप एर्दोआन’ पेश कर रहे हैं, जो अपने आधुनिक राष्ट्र को उसके अतीत के इस्लामी और सैन्य गौरव की छाप के साथ एक नया रूप देना चाहते हैं।
चूँकि चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सहयोगी के रूप में तुर्की की उपस्थिति धीरे-धीरे अरब जगत में और भारत के पड़ोस में प्रभावशाली बनती जा रही है,ऐसे में भारत के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपने हित के लिये दृष्टिकोण में बदलाव लाते हुए तुर्की को एक संभावित सहयोगी के रूप में देखना शुरू करे।
तुर्की के प्रभाव का विस्तार
- अखिल-तुर्कवाद की उत्पत्ति: अखिल-तुर्कवाद (Pan-Turkism) की विचारधारा की उत्पत्ति 19वीं शताब्दी के मध्य में हुई जब रूस में तुर्क लोगों को एकजुट करने के अभियानों ने ज़ोर पकड़ा।
- इसका भौगोलिक दायरा अंततः बहुत व्यापक हो गया, जिसमें ‘बाल्कन से लेकर चीन की दीवार तक’ विस्तृत भूभाग की तुर्की मूल की आबादी शामिल गई।
- हालाँकि, 20वीं सदी में तुर्क लोगों के दूसरे राज्यों में एकीकरण के साथ तुर्की के पतन की शुरुआत हो गई।
- तुर्की का बढ़ता प्रभाव:
- आर्थिक प्रभाव: मध्य एशिया में लगभग 5,000 तुर्की कंपनियाँ कार्यरत हैं। इस क्षेत्र के साथ तुर्की का वार्षिक व्यापार लगभग 10 बिलियन डॉलर का है।
- तुर्की ने मध्य एशिया और उससे आगे चीन, जॉर्जिया और अज़रबैजान तक परिवहन गलियारे के निर्माण में भी उल्लेखनीय प्रगति की है।
- तुर्की की सशस्त्र शक्ति: तुर्की ने इस भूभाग में अपनी सैन्य शक्ति के प्रक्षेपण के साथ शेष विश्व को स्तब्ध कर दिया है। आर्मेनिया-अज़रबैजान संघर्ष में तुर्की के सैन्य हस्तक्षेप ने युद्ध को निर्णायक रूप से अज़रबैजान के पक्ष में झुका दिया था।
- भू-राजनीतिक प्रभाव: चीन की आर्थिक शक्ति और रूसी सैन्य शक्ति की छाया में रहने वाले मध्य एशियाई राज्यों के लिये तुर्की आर्थिक विविधीकरण और अधिक रणनीतिक स्वायत्तता का अवसर प्रदान करता है।
- अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों के साथ तुर्की के अच्छे संबंधों ने अंकारा को संघर्षरत दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के बीच स्वयं को मध्यस्थ के रूप में प्रस्तुत कर सकने का अवसर दिया है।
- तुर्की का ‘हार्ट ऑफ एशिया’ सम्मेलन या ‘इस्तांबुल प्रक्रिया’ पिछले कुछ वर्षों से अफगान सुलह के प्रयास के लिये एक प्रमुख राजनयिक साधन रहा है।
- तुर्की की महत्त्वाकांक्षा: तुर्की नाटो (NATO) का सदस्य है, लेकिन इस तथ्य के बावजूद रूस के साथ रणनीतिक संपर्क स्थापित करने से उसने परहेज़ नहीं किया है।
- शिनजियांग में तुर्की मूल के ‘उइगर’ आबादी का चीन द्वारा दमन किये जाने की तुर्की की आलोचना के बावजूद, अंकारा का बीजिंग के साथ गहन आर्थिक गठबंधन है।
- इसके अलावा, इस्लामी दुनिया के नेतृत्व की महत्त्वाकांक्षा रखने के बावजूद तुर्की ने इज़राइल के साथ अपना राजनयिक संबंध तोड़ने का कोई प्रयास नहीं किया है।
- आर्थिक प्रभाव: मध्य एशिया में लगभग 5,000 तुर्की कंपनियाँ कार्यरत हैं। इस क्षेत्र के साथ तुर्की का वार्षिक व्यापार लगभग 10 बिलियन डॉलर का है।
- तुर्की प्रभाव के विस्तार के कारण: पिछले तीन दशकों में, शिक्षा, संस्कृति और धर्म में कई ‘सॉफ्ट पावर’ पहलुओं ने मध्य एशिया में तुर्की की छवि को मज़बूत किया है और इस क्षेत्र के अभिजात वर्ग के साथ नए संबंधों का निर्माण किया है।
- वाणिज्य और सैन्य शक्ति जैसे ‘हार्ड पावर’ के क्षेत्रों में तुर्की की प्रगति और भी प्रभावशाली रही है।
भारत के लिये चुनौतियाँ
- भारत की यूरेशियाई नीति के लिये जटिलता: अखिल-तुर्कवाद के उदय का अफगानिस्तान, काकेशस क्षेत्र, मध्य एशिया और अधिक व्यापक रूप से भारत के यूरेशियाई पड़ोस के लिये उल्लेखनीय परिणाम आना तय है।
- अखिल-तुर्कवाद निश्चित रूप से यूरेशियाई भू-राजनीति में जटिलता की एक और परत जोड़ता है।
- वैश्विक राजनीति में अलग दृष्टिकोण: भारत की गुटनिरपेक्षता, जबकि तुर्की का विभिन्न धड़ों के साथ गठजोड़ और संरेखण द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के विश्व में दिल्ली और अंकारा के अलग-अलग अंतर्राष्ट्रीय झुकावों को प्रकट करता है।
- पूर्व-एर्दोअन युग में दिल्ली और अंकारा के बीच के साझा धर्मनिरपेक्ष मूल्य शीत युद्धकाल में दोनों देशों के बीच के रणनीतिक मतभेदों को दूर करने के लिये पर्याप्त साबित नहीं हुए।
- इसके अलावा, कश्मीर, पाकिस्तान और अफगानिस्तान को लेकर दिल्ली और अंकारा के बीच मौजूदा मतभेद वास्तविक और गंभीर है।
- अफगानिस्तान में तुर्की की बढ़ती भूमिका ने दिल्ली और अंकारा के बीच संबंधों को और अधिक प्रभावित किया है।
- पाकिस्तान-तुर्की के बढ़ते द्विपक्षीय संबंध: पाकिस्तान के साथ तुर्की के गहरे द्विपक्षीय सैन्य-सुरक्षा सहयोग ने दिल्ली के लिये अंकारा के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखना और भी कठिन बना दिया है।
- कश्मीर के सवाल पर तो तुर्की, पाकिस्तान का सबसे सक्रिय अंतर्राष्ट्रीय समर्थक ही बन गया है।
आगे की राह
- रणनीतिक संवादों को आगे बढ़ाना: वर्तमान राजनीतिक विचलन दोनों सरकारों और दोनों देशों के रणनीतिक समुदायों के बीच निरंतर संवाद को महत्त्वपूर्ण बना देता है।
- तुर्की से संलग्न होना अब भारत की विदेश और सुरक्षा नीति का एक महत्त्वपूर्ण अंग होना चाहिये।
- तुर्की की भू-राजनीति से सबक: तुर्की की अपनी भू-राजनीति एक महत्त्वपूर्ण सबक प्रदान करती है। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान के लिये तुर्की का स्थायी उत्साह उसे भारत के साथ कारोबार (आर्थिक और रणनीतिक) करने से विचलित नहीं करता है।
- भारत सऊदी अरब (जो स्वयं को अरब दुनिया का नेता मानता है) के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने के साथ-साथ दोनों पक्षों के साथ राजनयिक संबंध बनाए रखने के तुर्की के दृष्टिकोण को अपना सकता है।
- तुर्की की राजनीति का लाभ उठाना: कई अरब नेता तुर्की के राष्ट्रपति की नीतियों को अस्वीकार करते हैं जो उन्हें तुर्क साम्राज्यवाद की याद दिलाती है।
- वे तुर्की के राष्ट्रपति द्वारा उन समूहों के समर्थन से नाराज़ हैं, जो मध्य पूर्व में उदारवादी सरकारों को उखाड़ फेंकना चाहते हैं। यह यूरेशिया में भारतीय विदेश और सुरक्षा नीति के लिये कई नए अवसरों का निर्माण करता है।
निष्कर्ष
- स्वतंत्र भारत गुज़रते दशकों में तुर्की के साथ अच्छे संबंध विकसित करने के लिये संघर्षरत ही रहा है। लेकिन, दिल्ली में एक व्यवहार्य और वास्तविक दृष्टिकोण अब अंकारा के साथ नई संभावनाओं के अवसर प्रदान कर सकता है।
- जबकि तुर्की अफगानिस्तान में एक प्रमुख भूमिका निभाने के लिये तैयार है, भारत को जहाँ भी आवश्यक हो उसे सख्त चुनौती देने की ज़रूरत है, लेकिन इसके साथ ही, भारत को तुर्की के साथ अधिक गहन द्विपक्षीय संलग्नता के लिये भी तैयार रहना चाहिये।
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