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‘द कश्मीर फाइल्स’ की सफलता के मायने……

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

करीब 16 माह के अंतराल के बाद फेसबुक पर किसी मुद्दे पर लिखने बैठा हूं। बल्कि यूं कहूं कि लिखने को मजबूर हुआ हूं। ‘ द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म है ही ऐसी। इस फिल्म ने स्वतंत्र भारत में घटित इतिहास के सबसे क्रूरतम नरसंहार और विस्थापन की त्रासदी को जिस मुखरता से मानस चेतना के पटल पर दर्ज कराया है, उसके बाद लोगों का अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने से रोक नहीं पाना मुश्किल हो रहा है।

अभिव्यक्ति का आयाम विस्तृत है। इसे वेदना के रूप में सिनेमा हाल के अंदर दर्शकों की अश्रुधारा में, तो आक्रोश के रूप में बाहर गूंजते नारों में महसूस किया जा सकता है। सोशल मीडिया में भावनाओं का ज्वार फिल्म के पक्ष में उमड़े समर्थन के समुद्र में हिलोर मार रहा है। लोगों के इस भावनात्मक जुड़ाव ने कारोबारी सफलता के झंडे गाड़ दिए हैं। फिल्म को मिली रेटिंग और बाक्स ऑफिस कलेक्शन की दोहरी सफलता ने मूवी माफिया के होश उड़ा दिए हैं। याद रखिएगा, ‘द कश्मीर फाइल’ बॉलीवुड को नई दिशा में ले जाने का प्रस्थान केंद्र साबित होगा।

बॉलीवुड सदैव से कारोबारी सफलता के लिए ‘फार्मूले’ का मोहताज रहा है। किसी एक फिल्म की सफलता के बाद उसी कंटेट पर आधारित फिल्मों की भरमार आ जाती है। ‘द कश्मीर फाइल्स’ की सफलता ने फिल्मकारों को नई राह दिखा दी है। सोशल मीडिया में तो उन विषयों की ‘मांग सूची’ तैयार भी हो गई है जिन पर फिल्म निर्माण की जरूरत जताई जा रही हैं। जिसमें भी विवेक अग्निहोत्री जैसा जिगरा होगा, वो इन संवेदनशील मुद्दों पर फिल्म बनाने के लिए आगे आएगा। प्रेरित होने के लिए ‘कश्मीर फाइल्स’ की कारोबारी सफलता तो है ही।

इसे आप ‘द कश्मीर फाइल्स’ की विशिष्टता मानें या अतिरंजना लेकिन वास्तविकता यही है कि ये बैलेंसवादी रुख से मुक्त है। ये कथानक को ग्रे शेड में चित्रित करने की बजाए सीधे ब्लैक एंड व्हाइट नजरिए में बात करती है। कश्मीरी हिंदुओं पर हुई बर्बर क्रूरता के लिए ये फिल्म बिना किसी लाग-लपेट और किंतु-परंतु के सीधे तौर पर मजहबी आतंकवाद को जिम्मेदार ठहराती है। यही वजह है कि बाकी मुंबईया फिल्मों की तरह ‘द कश्मीर फाइल्स’ में पुष्कर नाथ की मदद के लिए कोई रहमदिल रहीम चाचा मार्का किरदार नजर नहीं आता।

कश्मीरी हिंदुओं पर हुए बर्बर अत्याचार के लिए पूरे समुदाय को जिम्मेदार ठहराने के इस रुख पर गंगा-जमुनी संस्कृति की हिमायती धर्मनिरपेक्ष बिरादरी की आपत्ति असंगत नहीं है, लेकिन इस फिल्म को मिल रहा चौतरफा समर्थन ये बताता है कि धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से एक बड़ी आबादी का मोहभंग हो चुका है।

कुछ साल पहले तक ‘छद्म’ शब्द का आवरण चढ़ा कर धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के खिलाफ असहमति जताई जाती थी लेकिन मौजूदा दौर आते-आते ‘छद्म’ शब्द तिरोहित होता चला गया और समूची धर्मनिरपेक्षता ही निशाने पर आ गई है। मानसिकता में आए परिवर्तन का परिणाम ये रहा कि गंगा जमुनी तहजीब की अवधारणा अब केवल उपहास और छलावा बनकर रह गई है।

ऐसे में कुछ लोगों की ये चिंता नाजायज नहीं है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ के बाद सामने आ रही लोगों की प्रतिक्रियाओं ने सांप्रदायिक सौहार्द बहाली की रही-सही संभावनाओं के द्वार भी बंद कर दिए हैं। लेकिन विचारणीय प्रश्न ये भी है कि अगर ये स्थिति निर्मित हुई है तो क्या इसके लिए कथित धर्मनिरपेक्षवादियों का वैचारिक दोगलापन उत्तरदायी नहीं है?

‘द कश्मीर फाइल्स’ की सफलता इस मायने से भी महत्वपूर्ण है कि इसने नरेटिव के मोर्चे पर जबरदस्त फतह हासिल की है। निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने प्रोफेसर राधिका मेनन के किरदार के सहारे वाम वैचारिक वर्चस्व वाली बौद्धिक बिरादरी की कुमंशा को बड़ी बेबाकी से बेपर्दा किया है। प्रो राधिका का ये कहना कि ‘सरकार भले उनकी है, लेकिन सिस्टम हमारा है’, उस विचारधारा के इकोसिस्टम की ताकत और हकीकत को बयां करता है।

डायरेक्टर का कमाल ये है कि उन्होंने एएनयू (जेएनयू) में गूंजते प्रचलित नारों और नज्मों को प्रतीक बनाकर इन्हें उनके ही खिलाफ नरेटिव निर्माण के प्रभावी टूल के तौर पर इस्तेमाल कर लिया है। इन नारों और नज्मों को विघटनकारी तत्वों की पहचान के रूप में स्थापित कर देना वाकई कमाल का निर्देशकीय कौशल है।

कश्मीर में हुए उस नृशंस नरसंहार के बारे में आज 32 साल बाद ही सही, गर आवाज उठी है तो आखिर इतनी बेचैनी क्यों? क्योंकि तुम्हीं तो बोलते हो ना कि, ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे….।

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