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अत्याचारियों को भारतीय कभी छोड़ा नहीं करते-उधम सिंह. - श्रीनारद मीडिया

अत्याचारियों को भारतीय कभी छोड़ा नहीं करते-उधम सिंह.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

एक अनाथ नौजवान यूरोपीय और अफ्रीकी देशों से होता हुआ लंदन जा पहुंचता है। मकान किराये पर लेता है, कार खरीदता है और साथ ही रिवॉल्वर भी। ताकि वो अपनी योजना को अपने सही अंजाम तक पहुंचा सके। लेकिन इससे पहले ही उसे ज्ञात होता है कि जिसे वो मारने आया वो पहले ही अपनी मौत मर गया। लेकिन अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए वो अपनी किताब से बंदूक निकालता है और नरसंहार का हुक्मनामा देने वाले के ऊपर दाग देता है दो गोलियां इस संदेश के साथ कि ”अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी छोड़ा नहीं करते”। लेकिन इस घटना को अंजाम दिए जाने के पीछे एक दर्दनाक और मानवता को शर्मशार करने वाली घटना छिपी है जिसे अंग्रेजी शासनकाल का एक काला अध्याय माना जाता है।

परिमल-हीन पराग दाग़ सा बना पड़ा है,

हा! यह प्यारा बाग़ खून से सना पड़ा है।

मशहूर कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने पंक्तियां आज से 102 साल पहले जलियांवाला बाग में शहीद हुए लोगों की याद में लिखी थी। कुछ कहानियां वक्त पर ऐसे निशान छोड़कर जाती हैं कि दशक बीतते हैं, सदियां बीतती हैं। लेकिन हम हिन्दुस्तानियों के जेहन से नहीं उतरती हैं। ऐसी ही एक कहानी है उधम सिंह की जिन्हें हम साल दर साल याद करते हैं। उनकी पैदाइश के दिन उनकी शहादत के दिन। क्योंकि उधम सिंह ने हिन्दुस्तान के साथ हुई एक बड़ी नाइंसाफी का बदला लिया था।

ओ’डायर पर चलाई गोलियां

लंदन में जाकर उन्होंने एक होटल में वेटर का काम किया ताकि कुछ ओर पैसे इकट्ठे कर बंदूक ख़रीदी जा सके। उनको ये सब काम करने में पूरे 21 साल लग गये । फिर भी उनके मन में प्रतिशोध की ज्वाला कम नही हुयी थी। लेकिन उधम सिंह अपनी योजनाओं को अमली जामा पहना पाते, इससे पहले जनरल डायर अपनी मौत मर गया, पर हत्याकांड का हुक्मनामा जारी करने वाला उसका बॉस यानी लेफ्टिनेंट गर्वनर सर माइकल ओ’डायर ज़िंदा था।  अल्फ़्रेड ड्रेपर अपनी किताब ‘अमृतसर-द मैसेकर दैट एंडेड द राज’ मे लिखते हैं, “12 मार्च, 1940 को ऊधम सिंह ने अपने कई दोस्तों को पंजाबी खाने पर बुलाया था।

भोजन के अंत में उन्होंने सबको लड्डू खिलाए। जब विदा लेने का समय आया तो उन्होंने एलान किया कि अगले दिन लंदन में एक चमत्कार होने जा रहा है, जिससे ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिल जाएंगीं। 13 मार्च 1940 को ऊधम सिंह कैंथस्चन हॉल में एक मीटिंग में पहुंचे। उन्होंने किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के शेप में काट लिया था और बक्से जैसा बनाया था। उससे उनको हथियार छिपाने में आसानी हुई।

मीटिंग खत्म होने को थी तभी ऊधम सिंह ने स्टेज की तरफ गोलियां चलाई। वो जलियांवाला बाग कांड के वक्त पंजाब के गवर्नर रहे माइकल ओ’डायर और सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडियन अफेयर्स लॉरेंस को मारना चाहते थे। ओ’डायर को दिल पर गोली लगी और उसकी मौत हो गई लेकिन लॉरेंस बच गया। अफरा तफरी के बीच ऊधम सिंह नहीं भागे।

बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार जब ऊधम सिंह के अवेशष को लिए विमान ने भारतीय ज़मीन को छुआ तो वहाँ मौजूद लोगों की आवाज़ विमान के इंजन की आवाज़ से कहीं अधिक थी। दिल्ली हवाई अड्डे पर उनका स्वागत ज्ञानी ज़ैल सिंह और शंकरदयाल शर्मा ने किया, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने। संयोग देखिए कि 31 जुलाई को ही उधम सिंह को फांसी हुई थी और 1974 में इसी तारीख को ब्रिटेन ने इस क्रांतिकारी के अवशेष भारत को सौंपे।

उनके अवेशष को कपूरथला हाउस ले जाया गया, जहाँ उनके स्वागत के लिए इंदिरा गांधी मौजूद थीं।देश के बाहर फांसी पाने वाले उधम सिंह दूसरे क्रांतिकारी थे। उनसे पहले मदन लाल ढींगरा को कर्ज़न वाइली की हत्या के लिए साल 1909 में फांसी दी गई थी।  2018 में जलियाँवाला बाग़ के बाहर ऊधम सिंह की मूर्ति लगाई गई। उसमें उनको अपनी मुट्ठी में ख़ून से सनी मिट्टी को उठाए हुए दिखाया गया है।

 

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