IPCC की रिपोर्ट में भारत संबंधी निष्कर्ष चिंताजनक है,क्यों?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (Intergovernmental Panel On Climate Change- IPCC) ने तीन भागों में तैयार अपनी छठी आकलन रिपोर्ट का दूसरा भाग जारी किया है, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों, भेद्यता, अनुकूलन एवं इनके निहितार्थ पर केंद्रित है। 1.1 डिग्री सेल्सियस ग्लोबल वार्मिंग के साथ जलवायु परिवर्तन के कुछ प्रभाव पहले से ही प्रकट हो रहे हैं जिससे विश्व के अरबों लोगों के जीवन में व्यवधान उत्पन्न हो रहा है।
भारत भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं है जहाँ विश्व के लगभग सभी कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्र पाए जाते हैं। इस अध्ययन के भारत संबंधी निष्कर्ष चिंताजनक हैं। जलवायु समस्या से निपटने के लिये अतीत की गलतियों को सुधारने की आवश्यकता होगी जिनमें कस्बों व शहरों से संबंधित योजना बनाते समय जल विज्ञान की अनदेखी करने, बाढ़ चेतावनी प्रणालियों की उपेक्षा करने और अत्यधिक जल का उपयोग करने वाली फसलों को प्रोत्साहित करने जैसी गलतियाँ शामिल हैं।
रिपोर्ट के दूसरे भाग में भारत संबंधी निष्कर्ष
- भारतीय आबादी सबसे सुभेद्य/संवेदनशील और गंभीर जलवायु-प्रेरित जोखिमों एवं आपदाओं से प्रभावित आबादी में से एक है।
- भारत में तीन प्रमुख जलवायु परिवर्तन ‘हॉटस्पॉट’ हैं- अर्द्ध-शुष्क व शुष्क क्षेत्र, हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र और तटीय क्षेत्र।
- भारत का लगभग आधा भू-भाग शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क है जो बढ़ते तापमान के प्रभावों से ग्रस्त है।
- रिपोर्ट में पाया गया है कि जलवायु परिवर्तन से विशेष रूप से एशिया के उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में मलेरिया या डेंगू जैसे वेक्टर-जनित और जल-जनित रोगों के मामले बढ़ रहे हैं।
- इसमें यह भी बताया गया है कि तापमान में वृद्धि के साथ संचारी, श्वसन-संबंधी, मधुमेह और संक्रामक रोगों से होने वाली मौतों के साथ-साथ शिशु मृत्यु दर में वृद्धि हो सकती है।
- समुद्र-स्तर चरमताएँ (Sea-level Extremes), जो पहले 100 वर्षों के अंतराल पर प्रकट होती थीं, अब अधिक प्रकट होने लगी हैं।
शहरीकरण का जलवायु संवेदनशीलता से संबंध:
- शहरीकरण-जलवायु अंतर्संबंध: शहरीकरण की प्रक्रियाओं ने जलवायु परिवर्तन के खतरों के साथ संयुक्त भेद्यता एवं अरक्षितता उत्पन्न की है, जिसने शहरी जोखिम एवं प्रभावों को प्रेरित किया है।
- अत्यधिक गर्मी और उमस से जीवन के लिये खतरा पैदा करने वाली जलवायु स्थितियाँ उत्पन्न होंगी।
- भारतीय शहर अधिक ऊष्मा प्रतिबल (Heat Stress), शहरी बाढ़ और चक्रवात जैसे अन्य जलवायु-प्रेरित खतरों का अनुभव करेंगे।
- मोटे तौर पर भारतीय आबादी का चौथाई भाग अब शहरी क्षेत्रों में निवास करता है और अगले 15 वर्षों में यह संख्या 40% तक पहुँच सकती है।
- पहले से ही गर्म भारतीय शहरों में ग्लोबल वार्मिंग और जनसंख्या वृद्धि का संयोजन बढ़ते ऊष्मीय जोखिम का प्राथमिक चालक है।
- परिणाम: शहरी क्षेत्रों में वृद्ध वयस्क, सह-रुग्नताओं से ग्रस्त लोग और अस्वच्छ परिवेश में रहने को विवश लोग अत्यधिक जोखिम का सामना करेंगे।
- शहरी क्षेत्रों में उच्च जलवायु भेद्यता के साथ ही एक उच्च शहरी आबादी के कारण ऊष्मा-प्रेरित श्रम उत्पादकता हानि (Heat-Induced Labour Productivity loss) की स्थिति बनेगी जिसका आर्थिक प्रभाव उत्पन्न होगा।
- मौजूदा अनुकूलन उपाय मुख्यतः अविवेकपूर्ण त्वरित समाधान और आपदा प्रबंधन पर केंद्रित हैं, जबकि प्रत्यास्थी शहरों के लिये दीर्घकालिक योजना की ओर आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
- समुद्र-स्तर में वृद्धि, उष्णकटिबंधीय चक्रवाती तूफानों की संख्या में वृद्धि और वर्षा की उच्च तीव्रता से शहरों में बाढ़ आने की संभावना बढ़ जाएगी।
- तटीय महानगर (मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, विशाखापत्तनम ), छोटे तटीय कस्बे व ग्राम, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह बाढ़ के अधिकाधिक खतरे का सामना कर रहे हैं।
हिमालय क्षेत्र पर प्रभाव
- हिमालय क्षेत्र में एक लाख से कम आबादी वाले छोटे शहरों में शहरीकरण का प्रसार हो रहा है। अनियोजित शहरीकरण भूमि उपयोग और भूमि आवरण में उल्लेखनीय बदलाव को जन्म दे रहा है।
- वर्षा की परिवर्तनशीलता में वृद्धि भौतिक पर्यावरण पर जलवायु-प्रेरित प्रभावों में से एक है। भारी बारिश एक सामान्य बात होती जा रही है और इससे अधिकाधिक भू-स्खलन की घटनाएँ सामने आ रही हैं।
- ग्लोबल वार्मिंग ने हिमालय क्षेत्र के औसत तापमान में वृद्धि की है जिससे ग्लेशियर पिघल रहे हैं और क्षेत्र के जलीय तंत्र में परिवर्तन आ रहा है।
- ग्लेशियर का पिघलना ब्लैक कार्बन के कारण तेज़ हो गया है जो कि पराली ज्वलन, ईंट भट्ठों, प्रदूषणकारी उद्योगों आदि से उत्सर्जित होता है।
- हिमालयी क्षेत्र के अधिकांश छोटे शहर झरनों, तालाबों और झीलों से जलापूर्ति के माध्यम से अपनी जल आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।
- शहरीकरण इन जल निकायों के आवरण को कम कर रहा है, जिससे पहाड़ी शहरों में जल असुरक्षा वर्तमान में एक प्रमुख समस्या बनती जा रही है।
आगे की राह
- बाढ़ के प्रभावों को कम करना: तूफान-जल प्रबंधन, हरित अवसंरचना और सतत् शहरी जल निकासी प्रणालियों जैसे बाढ़ प्रभाव प्रबंधन के मौजूदा अनुकूलन उपायों को मज़बूत किये जाने की आवश्यकता है ताकि भविष्य में बाढ़ की समस्या से बेहतर तरीके से निपटा जा सके।
- रिपोर्ट में कहा गया है कि गंगा एवं ब्रह्मपुत्र घाटियों में बाढ़ की गंभीरता बढ़ जाएगी और सूखे एवं जल की कमी से फसल उत्पादन प्रणाली बाधित होगी।
- नीति निर्माताओं को यह सुनिश्चित करने के तरीके ढूँढने होंगे कि देश की खाद्य सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
- उन्हें आबादी के सबसे कमज़ोर लोगों को मुद्रास्फीति के प्रभावों से बचाना होगा और जलवायु-प्रेरित आजीविका द्वारा होने वाली हानि की भरपाई के लिये अवसरों का निर्माण करना होगा।
- स्थानीय स्तर पर अनुकूलन नीतियाँ: बेहतर अनुकूलन नीतियाँ सुरक्षित और अधिक सतत् भविष्य की ओर ले जा सकती हैं। अनुकूलन के आर्थिक लाभ स्थानीय संस्थाओं के लिये अनुकूलन कार्रवाई का समर्थन करने हेतु एक रणनीति है।
- सूरत शहर विशेष उदाहरण है, जहाँ शहर-स्तरीय राजनीतिक नेतृत्व ने राष्ट्रीय नीति से परे जाकर अनुकूलन कार्रवाई का समर्थन किया है।
- ‘अर्बन हीट आइलैंड्स’ में कमी के लिये ‘पैसिव कूलिंग’: पैसिव कूलिंग प्रौद्योगिकी (जो प्राकृतिक रूप से हवादार इमारतों के निर्माण के लिये व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली रणनीति है) आवासीय एवं वाणिज्यिक भवनों के लिये ‘अर्बन हीट आइलैंड्स’ की समस्या के समाधान हेतु महत्त्वपूर्ण विकल्प हो सकती है।
- IPCC रिपोर्ट में प्राचीन भारतीय भवन डिज़ाइनों का हवाला दिया गया है, जहाँ इस तकनीक का उपयोग किया गया है। ग्लोबल वार्मिंग के संदर्भ में आधुनिक इमारतों में भी इस तकनीक को अनुकूलित किया जा सकता है।
- शहरी भारत को जल भंडार की दृष्टि से सुरक्षित बनाना: रिपोर्ट में बेंगलुरु का उदाहरण दिया गया है जहाँ भारतीय समुदायों ने पारंपरिक रूप से जल कुंडों के एक नेटवर्क का प्रबंधन किया है जो अत्यधिक पारिस्थितिक महत्त्व रखते हैं।
- हालाँकि शहरी विकास ने पिछली आधी सदी में इस ‘ब्लू नेटवर्क’ को लगातार खतरे में डाल दिया है।
- इस ‘ब्लू नेटवर्क’ की पुनर्बहाली जल संसाधनों के प्रबंधन के लिये एक अधिक सतत् और सामाजिक रूप से उपयुक्त विकल्प प्रदान कर सकती है।
- जलवायु अनुकूलन कोष: भारत और अन्य विकासशील देश लंबे समय से और उपयुक्त तर्क देते रहे हैं कि विकसित देशों को जलवायु परिवर्तन के लिये अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को स्वीकार करना चाहिये। रिपोर्ट में IPCC ने फिर से विश्व भर में ‘न्यायसंगत अनुकूलन’ (Equitable Adaptation) प्रयासों का आह्वान किया है।
- विकसित देशों के संबंध में शुद्ध शून्य उत्सर्जन के प्रति प्रतिबद्धता या नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाना भर ही पर्याप्त नहीं होगा।
- संसाधनों के नुकसान और क्षति जैसे मुद्दों को ध्यान में रखते हुए अनुकूलन हेतु वित्त के बेहतर प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिये विकसित देशों को जलवायु वित्तपोषण के मामले में और कदम उठाने होंगे या और प्रतिबद्धता जतानी होगी।
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