भारत की ताकत उसका लोकतंत्र है,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
इंदिरा गांधी सोवियत संघ की राजकीय यात्रा 1982 में की थी। यात्रा के दौरान क्रेमलिन में भारतीय और सोवियत प्रतिनिधिमंडलों के बीच इंदिरा गांधी और लियोनिद ब्रेज्नेव की अध्यक्षता में वार्ता हुई। श्रीमती गांधी ने पंजाब में बढ़ते उग्रवाद पर चिंता जताई।
जब वे बोल रही थीं तो ब्रेज्नेव ऊंघने लगे। उनकी तबीयत तब ठीक नहीं रहती थी और वे बहुत उम्रदराज भी थे। उनके समीप बैठे सोवियत विदेश मंत्री अंद्रेई ग्रोम्यको ने उन्हें जगाया। ब्रेज्नेव ने ग्रोम्यको के कान में कहा- ‘वे क्या बोल रही हैं, मुझे एक भी शब्द समझ नहीं आ रहा।’ तब ग्रोम्यको ने उन्हें बताया कि भारत की प्रधानमंत्री अपने एक राज्य पंजाब के बारे में बात कर रही हैं, जहां अलगाववादियों द्वारा खालिस्तान के निर्माण की बढ़ती मांग से वो चिंतित हैं।
ब्रेज्नेव- जो अब पूरी तरह से जाग चुके थे- ने अचानक हस्तक्षेप करते हुए कहा- ‘महोदया, आप ऐसी चीजों को होने की अनुमति कैसे दे सकती हैं? सोवियत संघ को देखें। 1917 से ही हम अलगाववादी ताकतों को कुचलते आ रहे हैं और हम अब तक एक संयुक्त संघ बने हुए हैं।’ नवम्बर 1982 में ब्रेज्नेव का निधन हो गया। 1991 में सोवियत संघ 15 भिन्न राष्ट्रों में टूट गया। जबकि पंजाब आज भी भारतीय संघ की लोकतांत्रिक मुख्यधारा का हिस्सा है!
इन दोनों स्थितियों का एक ही कारण है- लोकतंत्र। भारत में लोकतंत्र था, सोवियत संघ में नहीं था। जब सर्वसत्तावादी ताकतें राज्यतंत्र से छेड़छाड़ करने लगती हैं तो चीजें नियंत्रण से बाहर होने लगती हैं। मिखाइल गोर्बाचेव जब सुधारों की बात करते थे तो वे गलत नहीं थे।
उन्होंने ग्लासनोस्त यानी खुली व्यवस्था और पेरेस्त्रोइका यानी पुनर्निर्माण की बात कही थी। लेकिन अलोकतांत्रिक और नियंत्रणवादी सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी लोकतांत्रिक सुधारों की अभ्यस्त नहीं थी, जिससे हालात काबू से बाहर हो गए। सोवियत साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया।
इतिहास से हमें कई जरूरी सबक मिलते हैं। उनमें से एक यह है कि लोकतंत्र में भले कमियां हों, लेकिन यह दूसरी प्रणालियों से बेहतर है, क्योंकि यह आकांक्षाओं, बहुलताओं और असंतोष के प्रेशर कुकर के लिए सेफ्टी वॉल्व का काम करता है और विस्फोट की स्थिति निर्मित होने से रोकता है।
आजकल भारत और चीन की ताकत की बहुत तुलना की जाती है। इसमें संदेह नहीं कि चीन जीडीपी, प्रतिव्यक्ति आय, बुनियादी ढांचे और फौज के पैमाने पर भारत से आगे है। लेकिन सोवियत संघ की तरह उसमें भी एक महत्वपूर्ण आयाम का अभाव है, और वह है- लोकतंत्र।
मेरा मानना है कि देर-सबेर चीन को भी उन प्रणालीगत संकटों का सामना करना पड़ेगा, जिनके चलते यूएसएसआर में अंदरूनी संघर्ष टकराव आए थे। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को अपने हठ का त्याग करते हुए लोगों में बढ़ते असंतोष को समायोजित करना होगा, जिसे हमने जीरो कोविड नीति के विरोध में उभरते हुए देखा था। अरसे से दमित प्रतिरोध को जैसे ही प्रकट होने का अवसर मिलता है, वह बड़े पैमाने पर अराजकता की स्थिति निर्मित कर सकता है।
चीन की अंदरूनी समस्याएं लोकतंत्र के अभाव के कारण निर्मित हुई हैं। वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने वन चाइल्ड पॉलिसी का जो एकतरफा फरमान जारी कर दिया था, उसके चलते आज वहां जनसांख्यिकी सम्बंधी कठिनाइयां उत्पन्न हो गई हैं। उसकी कामकाजी आबादी घट रही है। आज यह स्थिति है कि हर कामकाजी व्यक्ति को दो सेवानिवृत्त लोगों का खर्च उठाना पड़ रहा है।
चीन के राज्यशासित उद्योग भी चाहे जितने उत्पादक हों, उनमें उद्यमिता या इनोवेटिव भावना नहीं है। 2007 में उसकी जीडीपी विकास दर 14.2 प्रतिशत थी, जो आज 3 प्रतिशत रह गई है। अगर उसका आर्थिक विकास बाधित हुआ तो अंदरूनी टकरावों के चलते वहां बिखराव की स्थिति निर्मित हो सकती है। जबकि भारत की ताकत उसका लोकतंत्र है।
उसकी आर्थिक विकास दर धीमी हो सकती है, लेकिन उसकी बुनियाद मजबूत है। जब लोग चुनावों, अभिव्यक्ति की आजादी, असहमति, स्वतंत्र न्यायपालिका, निष्पक्ष मीडिया, स्वायत्त संस्थाओं और मुखर विपक्ष के आदी हो जाते हैं तो किसी कीमत पर उनके साथ छेड़खानी नहीं होने देते, क्योंकि तब उससे न केवल देश का विकास बल्कि उसकी एकता भी खतरे में पड़ जाती है। लोकतंत्र का जिन्न बोतल से बाहर आने के बाद फिर उसमें प्रवेश नहीं करता। इस बात को आज भारत में लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकारों- जिनमें केंद्र सरकार भी शामिल है- को याद रखना चाहिए।
लोकतंत्र आकांक्षाओं, बहुलताओं और असंतोष के प्रेशर कुकर के लिए सेफ्टी वॉल्व का काम करता है और विस्फोट की स्थिति निर्मित होने से रोकता है।
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