महान संत और अद्भुत कवि गोस्वामी तुलसीदास जयंती पर रोचक कथा!

महान संत और अद्भुत कवि गोस्वामी तुलसीदास जयंती पर रोचक कथा!

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

गोस्वामी तुलसीदास न केवल एक महान हिंदू संत और कवि थे बल्कि महाकाव्य रामचरितमानस समेत उन्होंने कुल 12 ग्रंथों की रचना की जिनमें श्रीरामचरितमानस, दोहावली, कवितावली, जानकीमंगल, पार्वती मंगल, वैराग्य संदीपनी, विनयपत्रिका, गीतावली, हनुमान चालीसा, बरवै रामायण आदि प्रमुख हैं!

बहुत कम लोग जानते हैं… आम जनता में लोकप्रिय रामलीला का नाट्य मंचन भी गोस्वामी तुलसीदास जी ने ही किया इसलिए ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा की अपने कालखंड से लेकर आज भी भारतीय कला, साहित्य, संस्कृति, मूल्य, मान्यताओं और प्रतीकों को क्षय होने से बचाने में संत तुलसीदास का योगदान अतुलनीय है!

पारंपरिक हिंदू कैलेंडर के अनुसार तुलसीदास को जयंती श्रावण माह के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को मनाई जाती है!

सभी जानते हैं की रामायण मूल रूप से ऋषि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में लिखी गई और इसे समझना केवल विद्वानों की पहुंच में था, लेकिन जब तुलसीदास की रामचरितमानस अस्तित्व में आई, तो ऋषि वाल्मीकि द्वारा रचित ये हिंदू महाकाव्य और इसकी महानता सामान्य जनता के बीच लोकप्रिय हुई!

अवधी भाषा में लिखा गया ये महाकाव्य जन जन तक पहुंचाने का श्रेय गोस्वामी तुलसीदास ही को जाता है!

आम जनता में संत तुलसीदास मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के प्रति उनकी भक्ति और हनुमान चालीसा लिए प्रसिद्ध हैं!

इन्होंने अपना अधिकांश जीवन वाराणसी, अयोध्या एवं चित्रकूट में गंगा किनारे व्यतीत किया! वाराणसी में गंगा नदी के तट पर प्रसिद्ध तुलसी घाट का नाम भी उन्हीं के नाम पर रखा गया है, इसके अतिरिक्त चित्रकूट के निकट राजापुर गांव में कालिंद्री नदी के तट पर उनका गांव और तपोस्थली आज भी है, साथ ही हस्तलिखित मानस भी !

माना जाता है कि वाराणसी में भगवान हनुमान को समर्पित प्रसिद्ध संकटमोचन मंदिर की स्थापना भी संत तुलसीदास ने ही की थी!

महान हिंदू संत तुलसीदास जी की कहानी भी बड़ी रोचक है…

कहते हैं की उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के गांव राजापुर में पिता आत्माराम दुबे और माता हुलसी के घर पैदा हुए तुलसीदास अपने जन्म के समय रोए नहीं और सभी बत्तीस दांतों के पैदा हुए!

जन्म के वर्ष को लेकर कई भ्रांतियां हैं लेकिन अधिकांश तथ्यों से इनका जीवन काल 1511 से 1623 के बीच मानते हैं जिसके हिसाब से उनकी मृत्यु के समय उनकी आयु लगभग 112 वर्ष की रही जब वाराणसी के ही अस्सी घाट पर!

तुलसीदास के संत बनने की कथा भी रोचक है… उनकी विदुषी पत्नी का नाम बुद्धिमती (रत्नावली) और पुत्र का नाम तारक था।

तुलसीदास जी को अपनी पत्नी से इतना लगाव था की वह उससे एक दिन का भी अलगाव सहन नहीं कर सकते थे, इसी क्रम में एक दिन उनकी पत्नी बिना उन्हें पूर्वसूचित किए अपने पिता के घर चली गई।

तुलसीदास रात को चुपके से अपने ससुर के घर उनसे मिलने गए तो बुद्धिमती में शर्म की भावना पैदा हुई, और उन्होंने तुलसीदास से कहा, *“मेरा शरीर मांस और हड्डियों का एक ढांचा है। यदि मेरे गंदे शरीर की जगह आप भगवान राम के लिए अपने प्यार का आधा भी विकसित करेंगे, तो आप निश्चित रूप से संसार के सागर को पार करेंगे और अमरता और शाश्वत आनंद प्राप्त करेंगे!”

पत्नी के ये शब्द तुलसीदास के हृदय को तीर की तरह चुभ गए, वह वहां एक पल के लिए भी नहीं रुके और उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और एक तपस्वी बन गए।

इस दौरान उन्होंने हिंदू तीर्थस्थानों के विभिन्न पवित्र स्थानों का दौरा करने में चौदह वर्ष बिताए!

कहते हैं इसी क्रम में… एक बार एक जगह जहां तुलसीदास कुछ समय के लिए ठहरे हुए थे तो सुबह नित्यकर्म से लौटते समय अपने पानी के बर्तन में बचे पानी को एक पेड़ की जड़ों में फेंक देते थे जिस पर एक आत्मा रहती थी!

अनजाने में तृप्त हुई आत्मा इससे बहुत प्रसन्न हुई और उस आत्मा ने कहा, “हे मनुष्य! मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूंगा!”

तुलसीदास ने उत्तर दिया, “मुझे भगवान राम के दर्शन करा दो!” आत्मा ने कहा, “हनुमान मंदिर जाओ, वहाँ हनुमान जी कोढ़ी के वेश में रामायण का पाठ सुनने सबसे प्रथम आते हैं और सबसे अंतिम में स्थान छोड़ते हैं। उन्हें पकड़ लो, वही आपकी सहायता करेंगे!”

तदनुसार, तुलसीदास हनुमान जी से मिले, और आखिरकार अंततः हनुमान जी की ही कृपा से, उन्हें भगवान राम के दर्शन भी हुए।

एक अन्य रोचक कथा के अनुसार कुछ चोर तुलसीदास के आश्रम में उनका सामान लेने आए थे। उन्होंने नीले रंग का एक रक्षक देखा, जिसके हाथों में धनुष और बाण था, जो द्वार पर पहरा दे रहा था। वे जहां भी जाते थे, रक्षक उनका पीछा करते थे। वे डरे हुए थे!

प्रात:काल उन्होंने तुलसीदास से पूछा, “हे पूज्य संत! हमने आपके निवास के द्वार पर एक युवा रक्षक को हाथों में धनुष-बाण के साथ देखा। ये सज्जन कौन हैं?”

तुलसीदास चुप रहे और रो पड़े। तब उन्हें पता चला कि भगवान राम स्वयं उनके जानो माल की रक्षा के लिए संकट उठा रहे थे, और उन्होने तुरंत अपनी सारी संपत्ति गरीबों में बांट दी इसके बाद तुलसीदास जी कुछ समय अयोध्या में भी रहे। फिर वे वाराणसी चले गए।

एक दिन एक हत्यारा आया और चिल्लाया, “राम के प्रेम के लिए मुझे भीख दो। मैं एक हत्यारा हूं!” तुलसीदास जी ने उसे अपने घर बुलाया, उसे पवित्र भोजन दिया जो भगवान को चढ़ाया गया था और घोषित किया कि प्रभु के प्रसाद से इस हत्यारे को शुद्ध किया गया है।

हालांकि वाराणसी के ब्राह्मणों ने तुलसीदास जी की निन्दा की और कहा, “हत्यारे का पाप कैसे नष्ट हो सकता है? आप उसके साथ कैसे खा सकते थे? यदि शिव-नंदी का पवित्र बैल हत्यारे के हाथों से खा लेगा तो ही हम स्वीकार करेंगे कि वह शुद्ध हो गया था!” तब उस हत्यारे को मन्दिर में ले जाया गया और बैल ने उसके हाथों से खा लिया इसके बाद तुलसीदास जी की महानता से अनभिज्ञ सभी ब्राह्मणों ने शर्म के मारे हार मान ली।

तुलसीदास जी के आशीर्वाद ने एक गरीब महिला के मृत पति को फिर से जीवित कर दिया, जब दिल्ली में मुगल बादशाह को तुलसीदास द्वारा किए गए महान चमत्कार के बारे में पता चला। उन्होंने तुलसीदास को बुलवाया। तुलसीदास सम्राट के दरबार में आए। सम्राट ने संत से कोई चमत्कार करने को कहा!

इसपर तुलसीदास ने उत्तर दिया, “मेरे पास कोई अलौकिक शक्ति नहीं है। मैं तो राम का ही नाम जानता हूँ!” गुस्से से सम्राट ने तुलसी को कारागार में डाल दिया और कहा, “मैं तुम्हें तभी छोड़ूंगा जब तुम मुझे कोई चमत्कार दिखाओगे!” इसके बाद तुलसीदास जी ने हनुमान से प्रार्थना की।

शक्तिशाली वानरों के अनगिनत दल शाही दरबार में दाखिल हुए, सम्राट भयभीत हो गया और कहा, “हे संत, मुझे क्षमा करें, मैं अब आपकी महानता को जानता हूं!” और बादशाह ने तुलसीदास जी को तुरंत जेल से रिहा कर दिया।

अंततः राम में लीन तुलसीदास ने अपने नश्वर कुंडल को छोड़ दिया और 1623 ईस्वी में वाराणसी के असीघाट में नब्बे वर्ष की आयु में अमरता और शाश्वत आनंद के साथ वैकुंठ धाम की ओर प्रस्थान किया!

धन्य हैं तुलसी, धन्य तुलसी के राम!

जहं तुलसी तंह राम, तहैं रहें हनुमान!

इसलिए ये भी कहा जाता है…

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी से पुनि आध,
तुलसी संगत साधु की, हरै कोटि अपराध!

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