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पंडित दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का हुआ आयोजन - श्रीनारद मीडिया

पंडित दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का हुआ आयोजन

पंडित दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का हुआ आयोजन

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आयोजकों के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का सफल आयोजन हुआ

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क


पंडित दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में भोजपुरी एसोसिएशन ऑफ इंडिया भाई और अंग्रेजी विभाग के संयुक्त तत्वावधान में अंतर्राष्ट्रीय एकदिवसीय भोजपुरी संगोष्ठी का आयोजन 29 दिसंबर 2024 दिन रविवार को विश्वविद्यालय के मुख्य सभागार ‘संवाद भवन’ में संपन्न हुआ।

संगोष्ठी का विषय ‘भोजपुरी साहित्य एवं देशज आधुनिकता’ रहा। संगोष्ठी में सर्वप्रथम विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. पूनम टंडन द्वारा उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता की गई। सभी गणमान्य अतिथियों द्वारा दीप प्रज्वलित करके समारोह का औपचारिक उद्घाटन किया गया। मुख्य अतिथि के रूप में मॉरीशस देश से पधारी भोजपुरी सेवी डॉक्टर सरिता बुधु रही, जबकि विशिष्ट अतिथि के रुप में डॉ. गोपाल ठाकुर नेपाल से, बृजभूषण मिश्रा मुजफ्फरपुर से उपस्थित हुए।

संगोष्ठी में सभी अतिथियों को अंग वस्त्र, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह और प्रमाण पत्र भेंट किया गया। समारोह में बीज वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए भोजपुरी एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया ‘भाई’ के अध्यक्ष डॉ. राकेश श्रीवास्तव ने कहा कि अंग्रेजी विभाग एवं भाई ने इस भोजपुरी संगोष्ठी का आयोजन किया है। भोजपुरी हमारे परिवार की भाषा है, घर की भाषा है और भोजपुरी गई तो संस्कृति गई। भोजपुरी के माध्यम से हम अपनी संस्कृति को बचाकर रख सकते हैं। भोजपुरी साहित्य में आधुनिकता क्या है, कैसे है, इस विषय पर आज संगोष्ठी में सभी विद्वान वक्ता अपना उद्बोधन प्रस्तुत करेंगे। इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में आए हुए सभी अतिथियों का और विशेष तौर पर विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. पूनम टंडन जी का मैं ह्रदय की अतल गहराई से स्वागत करता हूं।

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कुलपति प्रो. पूनम टंडन ने कहा कि भारत भाषाओं का गुलदस्ता है। प्रत्येक बोली अपने क्षेत्र की संस्कृति को प्ररलक्षित करती है। अंग्रेजी विश्व भाषा है यह भोजपुरी को विश्व स्तर पर प्रसारित कर सकती है। आपकी भाषा का प्रसार आपकी संस्कृति व संस्कार से होता है। भोजपुरी मीठी भाषा है। भोजपुरी एक ऐसा मंच है जिससे हम सभी जुड़ सकते हैं। अगली पीढ़ी भोजपुरी से समृद्ध हो ऐसी मैं कामना करती हूं। नगर की जनता भोजपुरी के माध्यम से विश्वविद्यालय से जुड़ रही है।

वहीं मुख्य अतिथि के तौर पर मॉरीशस देश से पधारी डॉ. सरिता बुधु ने अपनी कई पुस्तकों का समुह कुलपति को भेंट किया। उन्होंने कहा कि आप अपने विश्वविद्यालय में डायसपोरा का विभाग स्थापित करायें ताकि भाषा पर और खासकर भोजपुरी पर अध्ययन हो सके। डॉ. सरिता वर्षों से पूरे विश्व में घूम-घूम कर भोजपुर की सेवा कर रही है।उद्घाटन सत्र में धन्यवाद ज्ञापन अंग्रेजी विभागाध्यक्ष प्रो. अजय शुक्ल ने कहा की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति क्षेत्रीय भाषा को बढ़ाने, प्रसारित करने का कार्य करती है।

इस संगोष्ठी हेतु हमारे आदरणीय कुलपति प्रोफेसर पूनम टंडन ने समय और हमें अनुमति दी, इसके लिए मैं उनका आभार और धन्यवाद व्यक्त करता हूं, क्योंकि अच्छा होना बड़ी बात है परन्तु बड़ा होना उससे भी अच्छी बात है। भाषा संवर्धन के लिए वार्ता होनी चाहिए, क्योंकि कर्म अपने कर्ता को ढूंढ लेता है और अगर आपकी आंख सकारात्मक है तो दुनिया आपको मानती है लेकिन आपकी जब अगर जीभ सकारात्मक है तो संसार आपको आभार देती है। इस संगोष्ठी में आए हुए सभी विद्वानों का में धन्यवाद करता हूं और आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूं कि यह संगोष्ठी अपने एक नई ऊंचाई को प्राप्त करेंगी।

संगोष्ठी में प्रथम सत्र का आयोजन।

उद्घाटन के बाद प्रथम सत्र का आयोजन हुआ, जिसमें संगोष्ठी के विषय के भोजपुरी साहित्य उद्देश्य आधुनिकता पर वार्ता हुई। इस सत्र की अध्यक्षता कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि बृजभूषण मिश्रा ने किया। वक्ताओं में सर्वप्रथम युवा भोजपुरी साहित्यकार व दिल्ली से पधारे अनुपम कुमार जलज ने कहा कि समाज में विवाद का विश्लेषण मार्क्सवाद करता है। देशज मतलब आधुनिकता है। भारत की सारी मातृभाषा में सौंदर्य है। देशज सारगर्भित तत्व है, देशज निश्छल प्रेम है, सहज भाव है, लेकिन देशज आधुनिकता एक एजेंडा है जिसे मार्क्सवाद ने फैलाया है।

जब संस्कृति में विवाद आता है तो इसे हम आज एजेंडा कहते हैं। लोक सबसे आधुनिक है। यह नदी की तरफ प्रवाहमय है। यह नित्य नूतन है चीर पुरातन है। भोजपुरी देशज में आधुनिकता है, यह परंपरा की वाहक है। जबकि रांची से पधारे साहित्यकार, समीक्षक व आलोचक कनक किशोर ने कहा कि भोजपुरी साहित्य में देशज आधुनिकता पर बतकही के पहिले देशज आधुनिकता के समझ लेल जरूरी बा।देशज शब्द स्थानीय भाषा के शब्द होला जे देश के विभिन्न बोलियन से लेल जाला, माने तत्सम् शब्द के छोड़ के देश के विभिन्न बोलियन से आइल शब्द देशज शब्द कहाला। आवश्यकता अनुसार एकर प्रयोग कइल जाला आ बाद में प्रचलन में आके हमनीं के भाषा के हिस्सा बन जाला।

आधुनिकता के प्रसंग में ही ‘देशज आधुनिकता’ के चर्चा कइल जाला।‘देशज आधुनिकता’ के शाब्दिक अर्थ देश में उत्पन्न आधुनिकता। तब भारत के प्रसंग में ई प्रश्न कइसे हल होखी कि भारत में उत्पन्न आधुनिकता के पड़ताल कवन मानकन पर होखी?भारतीय आधुनिकता के कवन नया परिभाषा गढ़ल जा सकेला जेकरा आधार पर यूरोपीय आधुनिकता से अलग क़िस्म के आधुनिकता भारत में तलाश कइल जा सकेला? आधुनिक समय में वैयक्तिकता, स्वतंत्रता, समानता, न्याय और राजनीतिक चेतना के समानांतर भारतीय आधुनिकता कवन नया मूल्य मानवता के प्रदान कइले बा भा एह संबंध में कवन नया संकल्पना प्रस्तुत कइले बा, एकर आलोचनात्मक विश्लेषणो प्राप्त नइखे होत।अइसन अनेकन प्रश्न के उत्तर मिल सके, ओइसन कवनो उच्चस्तरीय अकादमिक कार्य जल्दी देखे के ना मिले। तब एह स्थिति में का ई कहल उचित होखी कि महान परंपरा के नाम लेल अउर बात बा आ ओकर वास्तविक समझ आ पड़ताल अउर बात।

विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के आचार्य प्रो. विमलेश मिश्रा ने कहा कि संगोष्ठी का विषय बेहद सुखद है। यह नई पीढ़ी को सचेत करने के लिए है। भोजपुरी को आधुनिकता से संवाद करके आगे बढ़ना होगा। देशज आधुनिकता को समझना है तो आपको प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की’ अवश्य पढ़नी चाहिए। आधुनिकता को समझने हेतु चार उपकरण है। बौद्धिकता, तार्किकता, वैज्ञानिक सोच और प्रश्नानुकूलता है। भोजपुरी साहित्य में जिज्ञासा की वजह से देशज आधुनिकता है। कर्म से बड़ा होना आधुनिकता है।

यह बुद्धिमान बनने की प्रक्रिया है। आधुनिकता भोजपुरी में शोध करने वालों की कमी है। मेरे चौबीस वर्ष के पूरे पठन-पाठन के काल में मात्र दो शोधार्थी भोजपुरी में शोध करने के लिए तैयार हुए। भोजपुरी में अवधी और ब्रजभाषा की तरह महाकाव्य नहीं है। गोरखनाथ से लेकर गोरख पाण्डेय तक की कृतियों में भोजपुरी आधुनिकता है। बटोहिया गीत में भी आधुनिकता है। हीरा डोम की कृति ‘अछूत के शिकायत’ में भी आधुनिकता है। भोजपुरी तभी आगे बढ़ेगी, जब उसमें देशज आधुनिकता होगी। भोजपुरी साहित्य पूरी तरह से देशज आधुनिकता से भरा पड़ा हुआ है।


वही गाजीपुर से अंग्रेजी के आचार्य प्रो. रामनारायण तिवारी ने कहा कि भोजपुरी में विमर्श नहीं है, दलित विमर्श और नारी विमर्श तो एकदम नहीं है। अनुभव का ज्ञान आधुनिकता है। विमर्श का विश्लेषण एवं विस्तार आधुनिकता नहीं है। भोजपुरी मूल रूप से भारतीय परंपरा व संस्कृति का द्योतक है। इसे पश्चिम के किसी शब्द से निरूपित नहीं करना चाहिए।

वही मुजफ्फरपुर के बाबा साहब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय में भोजपुरी विभाग के आचार्य प्रो. जयकांत सिंह जय अपने सारगर्भित उद्बोधन में कहा की आधुनिकता यूरोपीय अवधारणा है, पश्चिम की अवधारणा है। आधुनिकता भारत के समाज में सदियों से बौद्धिकता एवंं तार्किकता है। सांख्य दर्शन में तार्किकता एवं बौद्धिकता है। पश्चिम की आधुनिकता ने स्पर्धा को बढ़ाया है क्योंकि यह पूंजीवादी संस्कृति को बढ़ावा देता है। वह कहता है अधिक उत्पादन, अधिक खपत, अधिक मुनाफा जबकि हमारे यहां यह कहा गया है सीमित उत्पादन, समुचित वितरण एवं प्रकृति का संरक्षण।

पश्चिम की अवधारणा के कारण विश्व कठिनाई के दौर में पहुंच गया है। भोजपुरी को सर्वव्यापी बनाने के लिए गैर भोजपुरी विद्वानों ने कार्य किया है। इसका उदाहरण जार्ज गियर्सन जैसे विद्वानों की गाथाओं व कृतियों से समझा जा सकता है। बिहार विश्वविद्यालय में 1970 के दशक में कुलपति टीवी मुखर्जी ने यहां भोजपुरी विभाग खोलने और पढ़ने की पुरजोर वकालत की थी। देशज आधुनिकता मात्र 15 से 20 वर्षों का विमर्श है जबकि भोजपुरी को संवैधानिक दर्जा दिया जाए उसका सरकारीकरण किया जाए इसके लिए गैर भोजपुरी क्षेत्र में मैथिली के सांसद भोगेंद्र झा ने 1969 में भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए संसद में वक्तव्य दिया था।

प्रो. जय ने अपने उद्बोधन को विस्तार देते हुए कहा कि भारतीय साहित्य आ खास करके हिन्दी साहित्य के आधुनिक – बोध आ आधुनिकता के लेके अबहीं तक बहुत कुछ लिखा – छपा आ कहा – सुना चुकल बा। जवना के पढ़ला – सुनला से लागेला कि ओकरा पर पच्छिमी मतलब यूरोपीय भा औपनिवेशिक आधुनिकता सम्बन्धी अवधारणा के प्रभाव ढ़ेर बा। कुछ भारतीय भा हिन्दी के विद्वान मानेलें कि भोजपुरियो साहित्य त एही भारतीय साहित्य आ हिन्दी साहित्य के एगो अंग , रूप भा प्रकार ह। जब इहे मान के यूरोपीय भा औपनिवेशिक अवधारणा से प्रभावित विचारक – आलोचक भोजपुरी साहित्य के आधुनिक बोध चाहे देशज आधुनिकता पर विचार करिहें त संभव बा कि उनका भोजपुरी समाज आ साहित्य पिछुआइल नजर आवे।

देशज आधुनिकता त एने पन्द्रह – बीस बरिस से भारतीय बौद्धिक – विमर्श के विषय बनल बा। जेकर सिद्धातकार मानल जालें राजनीतिशास्त्र आ समाजशास्त्र के विद्वान प्रोफेसर डॉ. धीरूभाई शेठ। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रान्ति के बाद आ खास करके नब्बे के दशक वाला सामाजिक-न्याय से जुड़ल संदर्भन के गर्भ से उत्पन्न भइल सामाजिक, राजनीतिक आ आर्थिक सच्चाई के भारतीय जन जीवन पर पड़त प्रभाव आ ओकरा फलस्वरूप आइल आधुनिक बदलावन के परिप्रेक्ष्य में ई देशज आधुनिकता बौद्धिक – विमर्श के केन्द्र में आइल। शेठ जी विकासशील समाज अध्ययन पीठ ( सी एस डी एस ) के संस्थापक सचिव के रूप में उत्तर औपनिवेशिक कालीन भारत का देशज आधुनिकता के लेके कई गो महत्वपूर्ण काम कइले बाड़न।

जबहीं भारतीय संदर्भ में देशज आधुनिकता के बात होई त बात बहुत पीछे तक जाई काहे कि भारतीय समाज आ साहित्य के अस्तित्व कवनो चउदहवीं – पन्द्रहवीं सदी से नइखे प्रारंभ भइल। आ एकरा खातिर भारतीय बौद्धिक वर्ग का यूरोप आ अमेरिका से कुछ नइखे सीखे – जाने के। एह से हम भारतीय भा भोजपुरी परम्परा, आधुनिक बोध आ देशज आधुनिकता पर कुछ कहे का पहिले नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन का ओह विचार के इयाद करा देवे के चाहत बानीं जवन ऊ अपना पुस्तक ‘ द आर्गुमेंटेटिव इंडिया ‘ में लिखले बाड़न। जवना के भाव बा कि ‘ आधुनिकता के लेके भारत का यूरोप से कुछ नइखे सीखे – जाने के।

भारत पुरातन काल से विवेकशील आ तार्किक समाज रहल बा। एकर वेदांत, षडदर्शन आदि के आधार ज्ञान आ तर्क रहल बा। आ जवना समाज के जीवन ज्ञान आ तर्क पर आधारित होला ऊ समाज समय, परिवेश आ परिस्थिति के अनुरूप अपना परम्परागत बहुआयामी उपलब्धियन में से अनुपयोगी आ अप्रासंगिक रूढ़ वस्तु – विचार के छोड़त आ नया – नया चीजन के अनुसंधान करत – जोड़त आधुनिक होत चल जाला। ‘

हमहूं इहाँ अमर्त्य सेन का एह विचार के प्रबल – प्रखर पक्षधर बानीं। काहे कि एही जीवन – पद्धति के अपनावत भारतीय समाज आज तक तमाम झंझावात के झेलत आपन अस्तित्व आ अस्मिता बचावत आइल बा। इहे ऊ बात बा कि एकर हस्ती आजुओ बांचल बा आ यूनान, मिश्र आ रोम के सभ्यता – संस्कृति आदि मिट गइल।
यूरोपीय आधुनिकता के बहुत तह में ना जाके जदि ओकरा वजह आ पहचान के गिनती कइल जाए त मुख्य रूप से जवना मूल्य आ मुद्दा के गिनती कइल जा सकेला, ऊ बा – लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था, विज्ञान , उद्योग , व्यापार, शिक्षा, न्याय- प्रणाली, तकनीकी ज्ञान, चर्च के दखल से राज्य – व्यवस्था के मुक्ति आदि।

अब जदि एही चीजन के यूरोप अपना आधुनिकता के आधार मान मानेला तब त ब्रिटिश काल में एह अवधारणा से सुसम्पन्न भारत का परम्परागत बहुआयामी उपलब्धियन के काहे नष्ट कइल गइल। जवना के उल्लेख अनेक एशियाई आ यूरोपीय विद्वान करत आइल बाड़ें। जवना के ब्रिटेन के संग्रहालय आ पुस्तकालय में छुपा के राखल गइल आ अब कई आधुनिक तकनीकी स्रोत से प्रकट हो रहल बा। धर्मपाल जी सहित अनेक शोधी भारतीय विद्वान यूरोपीय इतिहासकार, वैज्ञानिक, साहित्यकार आदि के लिखल, छपवावल सामग्रियन के यूरोप का संग्रहालय – पुस्तकाल से निकाल के सामने रख रहल बाड़न।

भोजपुरी समाज मूल रूप से गाय आ गोवंश आधार कृषि संस्कृति के जीये वाला समाज रहल बा। एकर हर संस्कार – विधान, जीवन – व्यापार, पर्व – त्योहार, सामाजिक संरचना आदि एही खेती – किसानी से सम्बद्ध रहल बा। आ ई खेती – किसानी सम्यक् ढ़ंग से तबे सम्पन्न हो सकेला, जब परिवार संयुक्त रहे आ समाज में समरसता रहे। एह कृषि – कर्म खातिर हर पेशा – वर्ग के लोग उपयोगी रहे। भोजपुरी समाज के गँवई जीवन में वर्ण आ जाति के अस्तित्व त रहे, बाकिर ओकरा बीच आज जइसन भेद-भाव ना रहे। खेती के उत्तम आ बेवसाय के मध्यम व्यापार मानल जात रहे।

नोकरी – चाकरी के अधम आ नीच काम बूझल जात रहे – ‘ उत्तम खेती मध्यम बान, अधम चाकरी, भीख निदान। ‘ बाकिर अंगरेजी सरकार गांव का उन्नत खेती आ समृद्ध किसान के कमर तूड़ के देस के कमजोर, लाचार आ कृत्रिम अकाल के गाल में ठेल दिहलस। किसान चाकरी आ मजदूरी करे खातिर बाध्य होत गइलें। कुछ मजबूत जवान के देस से बाहर अनुबंधित करके ले गइलें। उन्हन के उन्हन के तत्कालीन पीड़ा के व्यथा – कथा आउर असहनीय बा। एह कुल्ह तथ्यन के बोध भोजपुरी साहित्य के अध्ययन से ही संभव बा।

जब यूरोपीय आधुनिकता के तथाकथित पोषक फिरंगी सरकार भारतीय का मन में इहाँ के जीवन – मूल्य, परम्परागत ज्ञान, भौगौलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक आ आर्थिक समृद्धि के नजरअंदाज आ उपेक्षा करत हेय आ त्याज बताके भारतीय जनमानस के बरगलावत रहे तब रघुवीर नारायण भोजपुरी राष्ट्रीय गीत ‘ बटोहिया ‘ लिखलें। जहाँ भारतेन्दु हरिश्चंद भारत दुर्दसा लिखलें त प्रिंसिपल मनोरंजन फिरंगिया लिखलें।

भिखारी ठाकुर भोजपुरी समाज में फइलल नारी समस्या, पइसा आ प्रेम के अभाव में बिखड़त भोजपुरी परिवार, समाज, विधवा नारी के समस्या, कृषि – कर्म के कमजोर होते मजबूरी में पलायन के समस्या, बेमेल बिबाह आदि के अपना नाटकन के विषय बनाके समाज के सामने रखबे ना कइलन, बल्कि, ओकरा में सुधार खातिर नया ढ़ंग से सोचे आ जीये ला बाध्य कइलें।


जब ईसाई मिशनरी कृत्रिम अभाव पैदा करके, लोभ – लालच देखा के, गरीबी से उबारे के झांसा देके सनातन समाज का विकास धारा में कवनो कारण से पिछड़ल जन – समुदाय के धर्मांतरित करे में लागल रहे तब भोजपुरी कवि हीरा डोम सनातन धर्मावलंबी तथाकथित ऊंची वर्ग का लोग के आ ईसाई मिशनरी के खिलाफ कचहरी के अंगरेज हाकिम से सिकायत करके के उद्देश्य से ‘ अछूत की शिकायत ‘ कविता लिखलें जे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के पत्रिका सरस्वती के सितम्बर,सन् १९१४ ई. के अंक में छपल रहे।

देशज आधुनिकता के प्रभाव आ परिणामस्वरूप भोजपुरी में पद्येतर अर्थात् काव्येतर गद्य का विविध विधा में रचना होखे लागल। देस आ देस के बाहर का कई देसन में भोजपुरी भाषा में साहित्य के सृजन, अध्ययन आ अनुसंधान होखे लागल। पत्र – पत्रिकन के बाढ़ आ गइल। भोजपुरी भाषा, संस्कृति, समाज आ साहित्य के विकास के निमित्त अनेक तरह के गैर सरकारी आ सरकारी संस्था कायम भइली स। भोजपुरी भाषी राज्यन में भोजपुरी के अध्ययन – अध्यापन के सिलसिला प्रारंभ भइल। साहित्य अकादमियन के गठन होखे लागल।

बाकिर एह भाषा आ समाज के सङ्गे केन्द्र सरकार के उपेक्षापूर्ण बेवहार के वजह से एकरा सब तरह के अर्हता के बावजूद संविधान के आठवीं अनुसूची में स्थान नइखे मिलत। साहित्य अकादमी से ऊ सम्मान नइखे मिल पावत, जवना पर एकर हक बा। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एकरा के गंभीरता से नइखे लेत। अइसे एकरा विकास में बाधक कुछ दकियानूसी सुभाव के भोजपुरी भाषी हिन्दी सेवी साहित्यकार आ प्राध्यापक लोग बा। एहू ओर भोजपुरी सेवी संस्था, संगठन आ सेनानियन के ध्यान जाए के चाहीं।

ताकि एहू तरह के बीमारी – बाधा के समय रहते इलाज हो सके। तबो हमरा ई कहे में तनिको संकोच नइखे कि अइसने मातृभाषाई अस्मिता बोध से संचालित संस्थन आ संगठनन के अभियान के प्रभाव आ परिणामस्वरूप राज्य आ केन्द्र के सरकार का अपना शिक्षा नीति में स्थानीय, क्षेत्रीय आ प्रांतीय भाषा, संस्कृति आ साहित्य के सम्मिलित करे खातिर बाध्य होखे के पड़ल। जवना से भोजपुरी के ही ना, भारतीय अस्मिता के गौरवशाली पक्ष से दुनिया परिचय होई।

बिहार में मुजफ्फरपुर से पधारे सत्र की अध्यक्षता कर रहे बृजभूषण मिश्रा ने कहा कि दिल्ली विश्वविद्यालय के समाजशास्त्री ने देशज आधुनिकता लाकर भोजपुरी में विमर्श को जन्म दिया। पेरियार ने देशज आधुनिकता को रखते हुए कहा था कि जो ईश्वर समाज में भेद करें, उस ईश्वर को समाप्त करने देना चाहिए, जबकि नीत्शे ने कहा कि ईश्वर समाप्त हो गया है तो अब फिर इस विमर्श हेतु एक नया ईश्वर पैदा करना रहेगा। सबसे बड़ी बात यह है की जाति रहेगी तभी तो आरक्षण रहेगा। जातियता से ऊपर संस्कार है। देशज आधुनिकता सामाजिक समरसता के साथ है। सामाजिक विभेद के साथ नहीं है। देशज आधुनिकता से भोजपुरी साहित्य भरा पड़ा है, इसके लिए हमें पेरियार, शेट्टी और पुरुषोत्तम अग्रवाल के पास नहीं जाना होगा।

इस सत्र का संचालन शिवेंद्र पांडेय ने किया। सभी वक्ताओं का सम्मान अंग वस्त्र व स्मृति चिन्ह से किया गया।

अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में द्वितीय सत्र के विषय ‘लोक संस्कृति में भोजपुरी’ की अध्यक्षता महात्मा गांधी केंद्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के प्रति कुलपति प्रो. चितरंजन मिश्र ने किया।


अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. चितरंजन मिश्र ने कहा कि भोजपुरी को बढ़ावा देने के लिए अन्य भाषा का भी अध्ययन किया जाना चाहिए ताकि वह आगे बढ़े। भाषा अपनी सृजनात्मक से सुदृढ़ होती है। इसमें रचना गंभीरता से होनी चाहिए। भाषा व्यवहार का माध्यम है, इसमें टकराहट नहीं होनी चाहिए। हमें अन्य भाषाओं जैसे संस्कृत, तमिल, तेलुगू, बांग्ला का भी गहन अध्ययन करना चाहिए ताकि हम इसमें अनुवाद के माध्यम से अपनी भोजपुरी को वहां पहुंच सके। भोजपुरी संकटग्रस्त भाषा है। भोजपुरी को अगर हम बचाना चाहते हैं तो घर में हमें भोजपुरी को प्रारंभ करना होगा।

अपनी अगली पीढ़ी से संवाद करना होगा। आज भोजपुरी की सेवा वैसे लोग कर रहे हैं जिन्होंने कब का गांव छोड़ दिया है। वे‌ फ्लैट में रहते हैं प्लेट में खाते हैं। कभी वस्त्र के रूप में धोती-कुर्ता नहीं पहनते है, स्वभाव में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। भोजपुरी के शब्द भी उन्हें ठीक ढंग से अब मालूम नहीं है वे लोग भोजपुरी की संस्थाओं को चलाते हैं उसे आठवीं अनुसूची में शामिल करने का दावा कर रहे है।

जबकि अंग्रेजी साम्राज्यवाद का भूत हमें लीलने को तैयार है। किसी भी संस्कृति को सर्वश्रेष्ठता का दवा नहीं करना चाहिए, सभी के लिए अपनी संस्कृति महान है, टकराव की भाषा से बचना चाहिए। ईर्ष्या व द्वेष से उपलब्धि नहीं होती, उपलब्धि हेतु कर्म करना पड़ता है, संकटों से जूझने उससे उबर का उपाय हमें ढूंढना चाहिए। हिंदी संसार में भोजपुरी के कंधे पर सवार होकर गई है। भोजपुरी की संस्कृति का संबंध उत्पादकता से है।

विश्व के बाहर हिंदी के अठारह बोलियां में भोजपुरी का परचम महत्वपूर्ण है। इसके गीत सामूहिक चेतना के हैं, जो मिट रहे है। इस समय देश में किसानों की जमीन लूट रही है, खेती न होने पर भोजपुरी संस्कृति भी मिट रही है। हम उपभोक्ता होने को तैयार हैं, हमने अपनी उत्पादकता को छोड़ दिया है। पूंजीवादी संस्कृति सर्वाग्रही होती है जो अपने को सबसे उत्तम बताती है। यह संस्कृति हमें अपने आगोश में ले लिया है और हमारे अस्तित्व को लूट रही है। अब हम शेयरिंग की जगह गोपनीयता की बात करते है। एक भाई दूसरे भाई के साथ अपनी समृद्धि का बखान करता है, अपनी संकट को नहीं रखता है।

भोजपुरी क्षेत्र का लेखक हिंदी में भोजपुरी लिखता है, जैसे प्रेमचंद, रेणु, दिनकर। यह चेतना की बनावट है, यह हमारे भीतर का लोक है। यही कारण है कि विद्या निवास मिश्र जी सर्वथा लोक को प्रश्रय देते रहे। लोक की संपदा शास्त्र में है। भोजपुरी के मूल में परिश्रम है, सामूहिकता है। व्यक्तिगत हीत की हमें तितांजलि देनी होगी। दूसरी पीढ़ी से संवाद और तीसरी पीढ़ी से अत्यधिक संवाद करना होगा।

सिंगापुर से पधारे उद्यमी एवं भोजपुरी एसएमएस एसोसिएशन ऑफ सिंगापुर के अध्यक्ष नीरज चतुर्वेदी ने कहा कि भोजपुरिया लोग अपनी पहचान छुपाते हैं क्योंकि हमारे पास अपने समाज से कोई रोल मॉडल नहीं है जो समाज में सफल हो गए हैं उनका भोजपुरी बोलना आवश्यक नहीं है जबकि उन्हें भोजपुरी बोलना चाहिए सिनेमा में नौकर की भूमिका भोजपुरी क्षेत्र के लोग की ही करते हैं बाद में या गुंडा माफिया के रूप में चरितार्थ हो गया भोजपुरी लोग नहीं बोल रहे हैं इसलिए यह मुश्किल दौर में है भोजपुरी पर अश्लीलता का मोहर लग गया है जबकि हम हमें इसका विरोध करना चाहिए कोट पेंट टाई लगाकर हमें भोजपुरी बोलना चाहिए भोजपुरी संस्कृति को अपनाना चाहिए इससे हमारी पहचान बनी रहेगी।

वहीं दिल्ली से पधारे सर्व भाषा ट्रस्ट के अध्यक्ष व संचालक केशव मोहन पांडेय ने कहा कि भोजपुरी लोक की मौखिक परंपरा है। यह सामाजिक संस्कृति है। इसमें कहा गया है की कथा गया वन में,सोचो अपने मन में। यह भोजपुरी में समीक्षा का विस्तार है। भोजपुरी संस्कृति गतिशील रही है। गीत गाने वाली यह संस्कृति सदियों से विद्यमान रही है।

वहीं गोपालगंज की धरती से पधारे सिरिजन पत्रिका के संपादक संगीत सुभाष ने कहा कि लोक यानी जो दिखाई दे रहा है यानी पूरा विश्व। इसमें हम अपनी संस्कृति को अभिव्यक्त करते हैं। उन्होंने अपने उद्बोधन को विस्तार देते हुए कहा किजवन लउकत बा ऊ लोक ह। लोक शब्द के व्युत्पत्ति “लोक दर्शने बतावल गइल बा, एह तरे सारी दुनिया जवन नजर के जद में बिया ऊ लोक ह। हालांकि अलग-अलग संदर्भ में एह शब्द के अलग-अलग अर्थ में प्रयोग भइल बा। दरअसल लोक मने सारा विश्व ही होला।

लेकिन साहित्य में लोक के प्रयोग एह अर्थ में विशिष्ट होला कि एह में आसपास के भौतिक परिवेश के अलावे व्यक्ति, समाज, ओकर रहन-सहन, पहिनावा, भाषा, रीति-रिवाज सोच के स्तर, सारा सांस्कृतिक उपादान लोक के दायरा में आ जाले। साँच कहीं त लोक में नैसर्गिकता के भाव अधिका बा। मानव आ प्रकृति के संबंध के एक स्तर ईहो ह कि ऊ आपन सुविधा आ रुचि के अनुसार ओ में परिवर्तन करत रहेला एह से बदलाव के प्रक्रिया शुरु हो जाला। सतत बदलाव के गुन खुद प्रकृति में मौजूद बा ए से अभिजात्य के विकास होला। अभिजात्य लोके के ऊ अंश जवना में चौतरफा श्रेष्ठता बोध होला।

पड़ोसी देश नेपाल की धरती से पधारे मुख्य भाषा आयुक्त डॉ. गोपाल ठाकुर ने कहा कि लोक में राजा एवं ब्राह्मण प्रतिरोध का सामना करते है। पराती अगर नहीं होगा तो राग भैरवी नहीं होगा, झूमर नहीं होगा तो यमन राग भी नहीं होगा। भोजपुरी लोक संस्कृति समृद्ध है।आठों पहर के समयबद्ध गीत भोजपुरी में है। छह रितुओं के भी इसमें गीत है परन्तु असमय भी गीत नहीं गाना चाहिए। भाषा बोली जड़ नहीं चेतन है, अचल नहीं चल है। इसकी समृद्धि हेतु हम सभी को अवश्य प्रयास करने चाहिए।

अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का तीसरा सत्र।

सत्र का विषय भोजपुरी सिनेमा का संसार रहा, जिसकी अध्यक्षता मॉरीशस से पधारी डॉ. सरिता बुधु ने किया।
वक्ताओं ने मनोज भावुक ने कहा कि बहुत अच्छा सोचना चाहिए, जब आप अच्छा नहीं कर सकते हैं तो कम से कम सोच तो सकते है। आधारभूत संरचनाएं बढ़ रही हैं, लेकिन हृदय से हृदय का जुड़ाव समाप्त हो रहा है। इसके बावजूद भी भोजपुरी संस्कृति हमें सिखाती है कि गलत और खराब चीजों की आयु कम होती है। गाना वही जीवित रहेगा जिसमें गीत है। भोजपुरी एक बड़े वर्ग के लिए सिनेमा नहीं बना पा रही है। जबकि चलना प्राण है और भोजपुरी को चलना है, यही जीवन है। भोजपुरी में मेरी पुस्तक शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली है। इसमें भोजपुरी सिनेमा को विस्तार से बताया गया है।

भाव के परिवर्तन का चित्रण सबसे अधिक भोजपुरी में है। गांव से नगर में आना संघर्ष है। संघर्ष में जीवन से भाव को समाप्त कर दिया है। वर्तमान की चुनौतियां भोजपुरी संस्कृति में है, इसने भाव को समाप्त किया लेकिन हमारी पुरातन संस्कृति को जानने के लिए व्यक्ति अपने अतीत में लौटता है, गांव जाता है, वहां की संस्कृति को समझता है। भोजपुरी में सतही मनोरंजन है, इसमें भावुकता नहीं है। यह शुद्ध मनोरंजन है, धर्म और सेक्स भोजपुरी का विषय बन गया‌ है। यही कारण है कि भोजपुरी में आज बहुत अच्छा सिनेमा नहीं बन पा रहा है।

क्योंकि सिनेमा विशुद्ध रूप से व्यावसायिक चीज है। भोजपुरी के सभी संस्था एक दूसरे से ईर्ष्या करते हैं द्वैष करते हैं उनमें अहंकार है। शिक्षित वर्ग की संख्या घटी है। लोग साक्षर हो गए हैं लेकिन शिक्षित नहीं हुए। जबकि सिनेमा समाज का दर्पण है। समाज से भोजपुरी संस्कृति समाप्त हो रही है, इसलिए भोजपुरी सिनेमा में सेक्स व अश्लीलता लगातार बढ़ती जा रही है। परन्तु हम भोजपुरी संस्कृति को जीवंतता प्रदान करते हुए सिनेमा को अच्छा बना सकते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के सांध्यकालीन सत्र में भिखारी ठाकुर की कालजयी कृति विदेशिया नाटक का मंचन प्रस्तुत किया गया। जिसकी सभी ने एक स्वर से प्रशंसा की। सभी नाट्य कलाकारों को प्रमाण पत्र प्रदान किया गया।
अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी की विशेषता यह रही कि इसके चारों सत्र में ना कोई शोधार्थी और ना ही छात्र-छात्राओं ने अपना शोध पत्र प्रस्तुत किया।‌ संगोष्ठी में गंभीर श्रोताओं का अभाव रहा।
अंततः अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजकों के अनुसार सफल आयोजन के साथ संपन्न हो गई।

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