क्या नौकरशाही राष्ट्रहित में कार्य नहीं कर रही है?

क्या नौकरशाही राष्ट्रहित में कार्य नहीं कर रही है?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

लोकतंत्र के प्रमुख स्तंभों में से एक कार्यपालिका लगातार प्रश्नों के घेरों में रहती रही है, आजादी के अमृतकाल में भी कार्यपालिका के भ्रष्ट, लापरवाह एवं गैरजिम्मेदार होना नये भारत-सशक्त भारत की सबसे बड़ी बाधा है। नेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार की आए दिन आने वाली खबरें यही बताती हैं कि केंद्रीय एजेंसियां डाल-डाल हैं तो भ्रष्टता का जाल पात-पात। विडम्बना तो यह है कि नेतृत्व करने वाली ताकतें भ्रष्टाचार में लिप्त हैं।

मद्रास हाईकोर्ट की हाल ही में की गयी टिप्पणी नौकरशाहों की उस प्रवृत्ति को उजागर करने वाली है जिसमें वे सत्ताधारी दलों का पिछल्लगू बनकर काम करते हैं। तमिलनाडु के पूर्व सीएम एके पलानीस्वामी के खिलाफ हाईवे निविदा के मामले में नए सिरे से जांच के सरकार के आदेश को रद्द करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि संविधान लागू होने के 73 साल बाद कड़वी हकीकत यह है कि कार्यपालिका ने अपनी स्वतंत्रता लगभग खो दी है। इतना ही नहीं, वह सत्ताधारी राजनीतिक दल के आदेशों को क्रियान्वित करने वाला औजार बन गया है।

सत्ता बदलाव के साथ ही कार्यपालिका की कार्यप्रणाली में बदलाव का यह उदाहरण अकेला नहीं है। कमोबेश सभी राज्यों में यह देखने में आता है कि सरकारी कार्यालयों में बदले की भावना से पूर्व सरकारों के कामकाज से जुड़े मामलों की जांच की फाइलें फिर से खंगालने का काम शुरु हो जाता है।

न्यायपालिका की यह टिप्पणी जाहिर करती है कि सरकारें मौके-बेमौके अपने विरोधियों को सबक सिखाने के लिए जांच एजेंसियों का हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं। नौकरशाही को यों तो विधायिका की आंख, नाक व कान की संज्ञा दी जाती है। लेकिन हकीकत यह है कि सत्ता में बैठे लोग कार्यपालिका से जो काम कराना चाहते हैं उसी फाइल पर पंख लगते हैं। भले ही वह काम जायज हो या नाजायज। ऐसे में कार्यपालिका से जुड़े ज्यादातर लोग सरकारों के राजनीतिक एजेंडे के अनुरूप काम करने लगते हैं।

राष्ट्र के संचालन, सुरक्षा, कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कार्यपालिका महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं जबकि नियमों की पालना व आम जनता को सुविधा देने में अफसरशाही ने लाल फीतों की बाधाएं बना रखी हैं। प्रशासकों की चादर इतनी मैली है कि लोगों ने उसका रंग ही काला मान लिया है। अगर कहीं कोई एक प्रतिशत ईमानदारी दिखती है तो आश्चर्य होता है कि यह कौन है? पर हल्दी की एक गांठ लेकर थोक व्यापार नहीं किया जा सकता है। नौकरशाह की सोच बन गई है कि सरकारी तनख्वाह तो केवल टेबल-कुर्सी पर बैठने के लिए मिलती है, काम के लिए तो और चाहिए। इसके लिये वे सत्ताधारी नेताओं एवं मंत्रियों के इशारों पर नाचते हैं।

पदोन्नति, मलाईदार पदों पर नियुक्ति और अन्य तरीकों से दिया जाने वाला प्रलोभन प्रशासन तंत्र को सत्ता के पक्ष में करने के लिए काफी है, जबकि लोकतंत्र में लोकसेवकों से निष्पक्षता, ईमानदारी एवं कार्यदक्षता के आधार पर फैसले की उम्मीद की जाती है। नौकरशाह यदि सत्ताधारी दल के एजेंट के रूप में काम करते हुए दिखेंगे तो जाहिर है कार्यपालिका से जनता का भरोसा टूटेगा ही। ऐसे में कार्यपालिका के लिए अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखना जरूरी है।

इसी कारण प्रवर्तन निदेशालय (ई.डी.) के मौजूदा निदेशक संजय कुमार मिश्रा के कार्यकाल विस्तार को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध ठहराया है क्योंकि उनको 3 बार जो सेवा विस्तार दिया गया, इस तरह लगातार सेवा विस्तार देने का उद्देश्य क्या था? जबकि संजय कुमार मिश्रा की भ्रष्टाचारमुक्त कार्यप्रणाली के बावजूद उन पर लगातार उंगलियां उठती रही हैं।

क्योंकि उन्होंने जितने नोटिस भेजे, छापे डाले, गिरफ्तारियां कीं या संपत्तियां जब्त कीं, वे सब विपक्ष के नेताओं के खिलाफ थीं। इससे भी ज्यादा विवाद का विषय यह था कि विपक्ष के जिन नेताओं ने ई.डी. की ऐसी कार्रवाई से डर कर भाजपा का दामन थामा, उनके विरुद्ध आगे की कार्रवाई फौरन रोक दी गई। यह निहायत अनैतिक कृत्य था, जिसका विपक्षी नेताओं ने तो विरोध किया ही, देश-विदेश में भी गलत संदेश गया।

बावजूद इसके केंद्रीय एजेंसियां ईडी, सीबीआई अथवा आयकर विभाग ने जो इन दिनों राजनीतिक दलों एवं नेताओं के पर कार्रवाई की, भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिये नौकरशाही की यह भूमिका अपेक्षित भी है। आजादी के बाद से भ्रष्टाचार एवं घोटालों पर नियंत्रण के लिये आवाज उठती रही है, इसके लिये आन्दोलन एवं अनशन भी होते रहे हैं, लेकिन सबसे प्रभावी तरीका केन्द्रीय एजेंसियों की कार्रवाई एवं न्यायालयों की सख्ती ही है, जो भ्रष्टाचारियों पर सीधा हमला करती है।

देश में सर्वाधिक भ्रष्टाचार राजनीतिक दलों में ही व्याप्त रहा है, इसलिये नौकरीशाही का नेताओं पर आक्रामक होने का यह पहला अवसर है, अब तक केन्द्रीय एजेंसियां की कार्रवाईयां नेताओं पर प्रभावी नहीं हो पा रही थीं। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता हासिल करते ही भ्रष्टाचार के खिलाफ कमर कसी है, जिसका असर देखने को मिल रहा है।

भले ही इन दिनों हो रही केन्द्रीय एजेंसियों की कार्रवाई को राजनीतिक प्रेरित बताया जाये, लेकिन इससे भ्रष्टाचार को समाप्त करने की दिशा में एक कारगर एवं प्रभावी कदम कहा जायेगा। दिल्ली में आम आदमी पार्टी हो या कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दल, जब-जब उनके भ्रष्टाचार उजागर हुए, केन्द्रीय एजेंसियों ने उनके खिलाफ कार्रवाई की, उसे डराने का हथकंडा कहा गया हो या राजनीतिक प्रेरित, जनता ने उनका स्वागत ही किया है। राजनीतिक एवं नौकरशाही से जुड़े भ्रष्टाचार को शिष्टाचार मानने की मानसिकता से उबरना ही होगा।

प्रभावी कार्य के आधार पर अधिकारियों के पदस्थापन एवं एक ही पद पर बार-बार विस्तार भी होने लगते हैं। जाहिर तौर पर कार्यपालिका में सरकार के पक्ष व विपक्ष के धड़े भी बनते दिखते हैं। इनमें पक्ष का धड़ा सत्ता के साथ रहने में माहिर माना जाता है। नौकरशाही में यह बदलाव कार्यपालिका को लगातार कमजोर करता जा रहा है, इसमें संशय नहीं।

जबकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबको कानून-कायदों की परिधि में रहकर काम करना होता है फिर चाहे वह सत्ता का अंग हो या कार्यपालिका का। पर देखा जाता है कि सत्ता में आने के बाद राजनीतिक दल भी इन संस्थाओं को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करते हैं।

भले ही खुद भाजपा सरकार प्रश्नों से घिरी हो, फिर भी निश्चित ही वर्तमान सरकार के प्रयासों एवं नीतियों से प्रशासनिक क्षेत्र जागा है, भ्रष्टाचार कम हुआ है, जिम्मेदारी का अहसास सरकारी कामों में गति के साथ निष्पक्षता ला रहा है। सरकार में अब कर्मचारियों के कामकाज के नियमित मूल्यांकन पर भी विचार चल रहा है। प्रशासनिक सुधार की जरूरत महसूस करते हुए उसे दक्ष, जिम्मेदारी एवं समयबद्ध करने की आवश्यकता लंबे समय से रेखांकित की जाती रही है।

इससे भी ज्यादा जरूरी है प्रशासन को भ्रष्टाचारमुक्त बनाने की। इसके लिए गठित समितियां और आयोग अनेक मौकों पर अपने सुझाव पेश कर चुके हैं। उनमें से कुछ को लागू भी किया गया, पर प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों से जैसी दक्षता, कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी, समयबद्धता और जवाबदेही की अपेक्षा की जाती रही है, वह पूरी नहीं हो पा रही है, यह एक गंभीर चुनौती एवं त्रासद स्थिति है।

अधिकारियों-कर्मचारियों में जब तक इन गुणों का अभाव बना रहेगा, तब तक भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन असंभव है, आम नागरिकों को परेशानियों से मुक्ति नहीं मिलेगी एवं सरकारी योजनाओं, कार्यक्रमों में अपेक्षित गति नहीं आ पाएगी। इसी क्रम में प्रशासनिक अधिकारियों की दक्षता विकास करने के लिए राष्ट्रीय सिविल सेवा क्षमता विकास कार्यक्रम, मिशन कर्मयोगी की शुरूआत की गई है। इसके तहत लोकसेवा के चयनित अधिकारियों को उनके कामकाज में दक्ष बनाने का प्रयास किया जाएगा।

Leave a Reply

error: Content is protected !!