क्या जलवायु परिवर्तन से संक्रामक रोग हो रहे है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल  ने एक गंभीर चेतावनी से आगाह कराया है। IPCC ने बताया है कि जलवायु परिवर्तन से संक्रामक रोगों का वैश्विक खतरा बढ़ जाता है। जलवायु और रोगों के बीच का घनिष्ठ संबंध साल-दर-साल सिद्ध हो रहा है। उदाहरण के लिये, मच्छर-जनित रोगों के फैलने की आवधिकता अब अपेक्षित पैटर्न के अनुरूप नहीं रह गई है।

डेंगू अब वर्ष भर दो से तीन चरम अवधि के रूप में प्रकट होता है। तापमान, वर्षा और आर्द्रता की परिवर्तनशीलता रोग संचरण चक्रों (disease transmission cycles) को बाधित कर रही है। ये परजीवी को आश्रय देने वाले रोगवाहकों (vectors) और एनिमल रेज़र्वोयर (animal reservoirs) के वितरण को भी बदल देते हैं। यह सिद्ध हो चुका है कि गर्मी या उष्णता (heat) रोगजनकों (pathogens) की जीनोमिक संरचना में हस्तक्षेप करती है, जिससे उनकी संक्रामकता और उग्रता बदल जाती है।

इससे स्वास्थ्य को होने वाली प्रत्यक्ष क्षति लागत (कृषि और जल एवं स्वच्छता जैसे स्वास्थ्य-निर्धारण क्षेत्रों में होने वाली लागत को छोड़कर) वर्ष 2030 तक 2-4 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष के बीच होने का अनुमान है।

जलवायु परिवर्तन का रोगों के प्रकोप से संबंध: 

  • पर्यावास हानि और ज़ूनोटिक रोग: चूँकि जलवायु परिवर्तन पारिस्थितिक तंत्र को बदलता है, पर्यावास की क्षति अधिक होने लगती है। यह रोग फैलाने वाले पशुओं को उपयुक्त पर्यावास और संसाधनों की तलाश में मानव क्षेत्रों पर अतिक्रमण करने के लिये विवश करता है। मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच इस बढ़ती अंतःक्रिया से ज़ूनोटिक रोगों (zoonotic diseases) का खतरा बढ़ जाता है। ज़ूनोटिक रोग वे रोग हैं जो पशुओं से मानवों में बैक्टीरिया, वायरस या अन्य परजीवियों या रोगवाहकों के माध्यम से फैलते हैं।
    • निपाह वायरस (Nipah virus) इसका एक प्रमुख उदाहरण है, जो इस तरह की घटनाओं के कारण केरल में प्रकोप का ज़िम्मेदार है।
  • तापमान और रोग संचरण: बढ़ता तापमान मच्छरों और किलनी (ticks) जैसे रोगवाहकों के वितरण और व्यवहार को प्रभावित कर सकता है। ये रोगवाहक मलेरिया, डेंगू बुखार और लाइम डिजीज जैसी बीमारियों के संचरण/संक्रमण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • गर्म तापमान इन रोगवाहकों की भौगोलिक सीमा का विस्तार कर सकता है, जिससे उन्हें उन क्षेत्रों में पनपने की अनुमति मिलती है जो पहले उनके लिये अत्यंत ठंडे होते थे।
  • वर्षा के बदलते पैटर्न: जलवायु परिवर्तन वर्षा के पैटर्न को बदल सकता है, जिससे कुछ क्षेत्रों में अधिक तीव्र और लंबे समय तक वर्षा हो सकती है, जबकि अन्य किसी क्षेत्र में सूखा पड़ सकता है। ये परिवर्तन रोगवाहकों के लिये उपयुक्त प्रजनन वातावरण का निर्माण कर सकते हैं।
  • बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि जल स्रोतों को सीवेज और रोगजनकों से दूषित कर सकती है, जिससे हैजा और पेचिश जैसी जलजनित बीमारियों का प्रकोप हो सकता है।
    • भारी वर्षा जलजमाव की स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं जो मलेरिया और ज़ीका वायरस (Zika virus) रोग जैसी बीमारियों को फैलाने वाले मच्छरों के लिये आदर्श प्रजनन स्थल होते हैं।
  • रोगवाहकों में व्यवहार परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन रोगवाहकों के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है।
    • गर्म तापमान रोगवाहकों के भीतर रोगजनकों के विकास को तीव्र कर सकता है, जिससे उनकी ऊष्मायन अवधि (incubation period) कम हो जाती है और बीमारियों का तेज़ी से संचरण होता है।
  • खाद्य सुरक्षा: जलवायु परिवर्तन कृषि प्रणालियों को बाधित कर सकता है, जिससे खाद्य उत्पादन और वितरण में बदलाव आ सकता है। ये व्यवधान कुपोषण में योगदान कर सकते हैं और प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर कर सकते हैं, जिससे आबादी बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकती है। 
  • चरम मौसमी घटनाएँ: जलवायु परिवर्तन चक्रवातहीटवेव (heatwaves) और वनाग्नि (wildfires) जैसी चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति एवं तीव्रता से संबद्ध है। इन घटनाओं से आघातों, विस्थापन और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों में व्यवधान की स्थिति बन सकती है, जिससे रोगों के प्रसार के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा हो सकती हैं।
  • बदलता रोग परिदृश्य: जलवायु परिवर्तन ने मानवों को खतरे में डालने वाले संक्रामक एजेंटों का दायरा बढ़ा दिया है। मानवों को प्रभावित करने वाली सभी ज्ञात संक्रामक बीमारियों में से आधे से अधिक जलवायु पैटर्न में बदलाव के साथ बदतर हो जाती हैं।
    • ये बीमारियाँ प्रायः नए संचरण मार्गों की खोज करती हैं, जिनमें पर्यावरणीय स्रोत, चिकित्सा पर्यटन और दूषित भोजन एवं जल शामिल हैं।

सरकार द्वारा की गई कुछ प्रमुख पहलें: 

  • स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं में संक्रमण की रोकथाम और नियंत्रण के लिये राष्ट्रीय दिशानिर्देश (National Guidelines for Infection Prevention and Control in Healthcare Facilities): ये दिशानिर्देश रोगी की सुरक्षा और संक्रमण को रोकने एवं नियंत्रित करने में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की क्षमता के संबंध में एक व्यापक रूपरेखा प्रदान करते हैं। इन दिशानिर्देशों का उद्देश्य निपाहइबोला जैसी संक्रामक बीमारियों से वर्तमान और भविष्य के खतरों को रोकना तथा रोगाणुरोधी प्रतिरोध (Anti-Microbial Resistance- AMR) से निपटने के साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं की समग्र गुणवत्ता में सुधार करना है।
  • राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (National Health Mission)यह भारत सरकार द्वारा पर्याप्त सेवा से वंचित ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों की स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये शुरू की गई एक पहल है। इसका उद्देश्य स्थानीय स्तर पर स्थानिक बीमारियों सहित संचारी और गैर-संचारी रोगों को रोकना एवं नियंत्रित करना है।
  • सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम (Universal Immunization programme)इसके तहत बच्चों और गर्भवती महिलाओं को पोलियो, खसरा, टेटनस जैसी 12 टीका-निवारक बीमारियों से बचाने के लिये मुफ़्त टीके प्रदान किया जाता है। इस कार्यक्रम ने मिशन इंद्रधनुष नामक एक महत्त्वाकांक्षी पहल भी शुरू की है, जिसका उद्देश्य पूर्ण टीकाकरण कवरेज में तेज़ी लाना और वंचित आबादी तक इसकी पहुँच बढ़ाना है।

इस समस्या के समाधान हेतु उपाय:

  • जलवायु परिवर्तन का शमन करना: 
    • स्वच्छ और अधिक कुशल प्रौद्योगिकियों का उपयोग कर, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की और आगे बढ़, ऊर्जा दक्षता में सुधार कर और निम्न-कार्बन जीवन शैली को बढ़ावा देकर जीवाश्म ईंधन, कृषि, उद्योग और अपशिष्ट जैसे विभिन्न स्रोतों से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना।
      • राष्ट्रीय जैव ईंधन नीतिवाहन स्क्रैपेज नीति , E20 ईंधन नीति , राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन आदि इस संबंध में सरकार द्वारा उठाये गए कुछ प्रमुख कदम हैं।
    • प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा एवं पुनर्स्थापना कर, कार्बन पृथक्करण एवं भंडारण को बढ़ाकर और भूमि क्षरण एवं वनों की कटाई को रोककर वन, मृदा और महासागरों जैसे ग्रीनहाउस गैसों के संचय को बढ़ाना।
      • राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम (National Afforestation Programme- NAP)प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण (Compensatory Afforestation Fund Management and Planning Authority- CAMPA Funds)मरुस्थलीकरण की रोकथाम के लिये राष्ट्रीय कार्रवाई कार्यक्रम (National Action Programme to Combat Desertification) इस दिशा में सरकार द्वारा उठाये गए कुछ कदम हैं। 
  • रोग निगरानी प्रणालियों को सुदृढ़ बनाना: 
    • निगरानी प्रौद्योगिकी को उन्नत बनाना: उन्नत निगरानी प्रौद्योगिकियों और प्रणालियों में निवेश किया जाए जो रोगों के उभरते प्रकोप की वास्तविक समय पर ट्रैकिंग कर सकने में सक्षमता प्रदान करे। रोगों की रिपोर्टिंग के लिये वेब-सक्षम प्लेटफॉर्म के उपयोग को बढ़ावा दिया जाए।
      • एकीकृत स्वास्थ्य सूचना प्लेटफॉर्म (Integrated Health Information Platform- IHIP)IHIP को वर्ष 2018 में सात राज्यों में पेश किया गया था। IHIP को एक वेब-सक्षम, लगभग वास्तविक समय की इलेक्ट्रॉनिक सूचना प्रणाली के रूप में डिज़ाइन किया गया था जो रोग स्थितियों की एक विस्तृत शृंखला पर रिपोर्ट करने और अलग-अलग डेटा प्रदान करने में सक्षम है।
        • हालाँकि, IHIP कई चुनौतियों से जूझ रहा है जैसे कि उभरती बीमारी के प्रकोप की वास्तविक समय पर नज़र रखने के मामले में IHIP उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सका है। तकनीकी प्रगति के बावजूद, कार्यान्वयन या परिचालन संबंधी चुनौतियाँ भी उत्पन्न हो सकती हैं जिनका समाधान करने की आवश्यकता है।
    • ‘वन हेल्थ’ एप्रोच: वन हेल्थ एप्रोच (One Health Approach) को अपनाया जाना चाहिये जो मानव, पशु, पौधे और पर्यावरणीय स्वास्थ्य की निगरानी को एकीकृत करता है। यह दृष्टिकोण इन कारकों के अंतर्संबंध को चिह्नित करता है और प्रकोपों (विशेष रूप से पशुओं से उत्पन्न होने वाले प्रकोपों) को रोकने के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
      • वन हेल्थ दृष्टिकोण को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिये, भारत को केंद्र सरकार और राज्यों के साथ-साथ विशेष एजेंसियों के बीच अधिक तालमेल स्थापित करनी चाहिये।
      • पशुपालन, वन एवं वन्यजीवन, नगर निकाय और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये ज़िम्मेदार विभागों को परस्पर सहयोग करने और सुदृढ़ निगरानी प्रणालियों का निर्माण करने की आवश्यकता है।
      • विश्वास निर्माण, डेटा साझेदारी और विभिन्न ज़िम्मेदारियों को परिभाषित करना इस दृष्टिकोण के महत्त्वपूर्ण घटक हैं। 
  • क्षमता निर्माण और संसाधन आवंटन: 
    • रोगों के प्रकोप की प्रभावी ढंग से निगरानी करने और इस पर प्रतिक्रिया देने के लिये स्वास्थ्य कर्मियों, पर्यावरण वैज्ञानिकों और अन्य प्रासंगिक पेशेवरों के लिये प्रशिक्षण एवं क्षमता निर्माण में निवेश किया जाना चाहिये।
    • रोग निगरानी और प्रतिक्रिया प्रयासों का समर्थन करने के लिये धन एवं कार्मिक सहित पर्याप्त संसाधन आवंटित किया जाना चाहिये। 
  • जन जागरूकता और शिक्षा: 
    • जलवायु परिवर्तन से प्रेरित रोगों से जुड़े जोखिमों और लक्षणों की शीघ्र रिपोर्टिंग के महत्त्व के बारे में जनता को शिक्षित किया जाए। समुदायों को रोग निगरानी प्रयासों में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित किया जाए।
      • दिल्ली सरकार के डेंगू-विरोधी अभियान जैसे जागरूकता कार्यक्रमों को तेज़ी से आगे बढ़ाने की ज़रूरत है। 
  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: 
    • प्रधानमंत्री के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार के कार्यालय ने इस पहल में अग्रणी भूमिका निभाई है। हालाँकि, विश्व बैंक जैसे नए वित्तपोषण स्रोतों के साथ, वन हेल्थ और संक्रामक रोग नियंत्रण कार्यक्रमों की सफलता सुनिश्चित करने के लिये अधिक समन्वयन एवं प्रबंधन की आवश्यकता है।
  • कार्यक्रम मूल्यांकन और अनुकूलन:
    • रोग निगरानी और नियंत्रण कार्यक्रमों की प्रभावशीलता का नियमित रूप से मूल्यांकन किया जाए तथा उभरते रोग पैटर्न और जलवायु परिवर्तन प्रभावों के आधार पर रणनीतियों को अनुकूल बनाया जाए।

निष्कर्ष: 

  • जलवायु परिवर्तन केवल संक्रामक रोगों तक ही सीमित नहीं है। यह चरम मौसमी घटनाओं, श्वसन एवं हृदय संबंधी रोगों और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से प्रेरित आघात एवं मृत्यु के मामलों में भी वृद्धि करता है।
  • केरल में निपाह का फिर से उभरना एक चेतावनी है कि बीमारियों के प्रति केवल जैव-चिकित्सकीय प्रतिक्रिया अपर्याप्त है। बदलती जलवायु और संक्रामक रोगों के बढ़ते खतरे के परिदृश्य में पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा करना, सहयोग को बढ़ावा देना तथा ‘वन हेल्थ’ प्रतिमान को अपनाना हमारा सबसे अच्छा रक्षात्मक उपाय होगा।
  • आगे की राह, न केवल अनुकूलन के लिये बल्कि सक्रिय रूप से हमारे ग्रह और इसके निवासियों की सुरक्षा के लिये भी ठोस प्रयासों की आवश्यकता रखती है।
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