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क्या भारत की जनसंख्या 2065 तक 1.7 बिलियन पहुँचने का अनुमान है? - श्रीनारद मीडिया

क्या भारत की जनसंख्या 2065 तक 1.7 बिलियन पहुँचने का अनुमान है?

क्या भारत की जनसंख्या 2065 तक 1.7 बिलियन पहुँचने का अनुमान है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग के अनुसार, भारत की जनसंख्या वृद्धि एक प्रमुख फोकस रही है, जिसके वर्ष 2065 तक 1.7 बिलियन तक पहुँचने का अनुमान है, जो भारत में जनसांख्यिकीय लाभांश के चल रहे संक्रमण को रेखांकित करता है।

  • यह एक महत्त्वपूर्ण लेकिन कम चर्चित पहलू पर ध्यान स्थानांतरित करता है, प्रजनन दर में गिरावट, जिसके लैंसेट रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2051 तक 1.29 तक जाने का अनुमान है।
  • वर्ष 2021-2025 (1.94) तथा वर्ष 2031-2035 (1.73) की अवधि के लिये सरकार की अनुमानित कुल प्रजनन दर (TFR) लैंसेट अध्ययन और NFHS 5 डेटा के अनुमान से अधिक है।
  • इससे पता चलता है कि भारत की जनसंख्या वर्ष 2065 से पहले 1.7 बिलियन से नीचे स्थिर हो सकती है।

जनसांख्यिकीय संक्रमण और जनसांख्यिकीय लाभांश क्या है?

  • जनसांख्यिकीय संक्रमण का तात्पर्य समय के साथ जनसंख्या की संरचना में परिवर्तन से है।
    • यह परिवर्तन विभिन्न कारकों के कारण हो सकता है जैसे जन्म दर तथा मृत्युदर में परिवर्तन, प्रवासन प्रक्रिया तथा सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियों में परिवर्तन।
  • जनसांख्यिकीय लाभांश एक ऐसी घटना है जो तब होती है जब किसी देश की जनसंख्या संरचना आश्रितों (बच्चों और बुजुर्गों) के उच्च अनुपात से काम करने वाले वयस्कों के उच्च अनुपात के रूप में स्थानांतरित हो जाती है।
    • यदि देश मानव पूंजी में निवेश और उत्पादक रोज़गार हेतु स्थितियों का निर्माण करता है, तो जनसंख्या संरचना में इस बदलाव का परिणाम आर्थिक वृद्धि और विकास का कारक हो सकता है।

भारत में जनसांख्यिकीय परिवर्तन के लिए कौन से कारक ज़िम्मेदार हैं?

  • तीव्र आर्थिक विकास:
    • आर्थिक विकास की गति, विशेष रूप से 21वीं सदी के शुरुआती वर्षों से, जनसांख्यिकीय परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण चालक रही है।
    • आर्थिक विकास से जीवन स्तर में सुधार, बेहतर स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएँ और शिक्षा तक पहुँच में वृद्धि होती है, जो सामूहिक रूप से निम्न प्रजनन दर में योगदान करती है।
  • शिशु एवं बाल मृत्यु दर में कमी:
    • शिशुओं और बच्चों के बीच कम मृत्यु दर ने परिवारों को वृद्धावस्था में सहायता के लिये बड़ी संख्या में बच्चे रखने की आवश्यकता को कम कर दिया है।
    • जैसे-जैसे स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं में सुधार हुआ है, वैसे ही बाल मृत्यु दर में कमी आई है।
  • महिला शिक्षा और कार्य भागीदारी दर में वृद्धि:
    • बढ़ती शिक्षा और कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
    • जैसे-जैसे महिलाएँ अधिक शिक्षित एवं आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती जाती हैं, उनके कम बच्चे होते हैं और बच्चे के जन्म में देरी होती है, जिससे कुल प्रजनन दर में गिरावट आई है।
  • आवास स्थितियों में सुधार:
    • बेहतर आवास स्थितियाँ और बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच जीवन की गुणवत्ता में सुधार में योगदान करती है, जो बदले में परिवार नियोजन निर्णयों को प्रभावित करती है।
    • परिवार छोटे होने पर वह बेहतर तरीके से रहने की स्थिति का विकल्प भी चुन सकता है।

भारत में जनसांख्यिकीय परिवर्तन की चुनौतियाँ क्या हैं?

  • निर्भरता अनुपात परिवर्तन:
    • हालाँकि शुरुआत में TFR में गिरावट से निर्भरता अनुपात में गिरावट आती है और कामकाजी उम्र की आबादी में वृद्धि होती है, लेकिन अंततः इसके परिणामस्वरूप वृद्ध आश्रितों की हिस्सेदारी बढ़ जाती है।
    • यह चीन, जापान और यूरोपीय देशों में देखी गई स्थितियों के समान, स्वास्थ्य देखभाल एवं सामाजिक कल्याण के लिये संसाधनों पर दबाव डालता है।
  • राज्यों में असमान परिवर्तन:
    • भारत के सभी राज्यों में प्रजनन दर में कमी एक समान नहीं है। कुछ राज्यों, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड जैसे बड़े राज्यों को प्रतिस्थापन स्तर की प्रजनन क्षमता प्राप्त करने में अधिक समय लग सकता है।
    • इससे आर्थिक विकास और स्वास्थ्य देखभाल पहुँच में क्षेत्रीय असमानताएँ बढ़ सकती हैं।
  • श्रम उत्पादकता और आर्थिक विकास: 
    • जबकि जनसांख्यिकीय परिवर्तन संभावित रूप से श्रम उत्पादकता बढ़ा सकता है और आर्थिक विकास को गति दे सकता है, यह उम्रदराज़ कार्यबल के प्रबंधन तथा युवा आबादी के लिये पर्याप्त कौशल विकास सुनिश्चित करने के मामले में भी चुनौतियाँ उत्पन्न करता है।

भारत में जनसांख्यिकीय परिवर्तन की क्या संभावनाएँ हैं?

  • बढ़ी हुई श्रम उत्पादकता: 
    • जनसांख्यिकीय परिवर्तन से जनसंख्या वृद्धि में गिरावट आ सकती है।
    • इसके परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति आधार पर पूंजीगत संसाधनों और बुनियादी ढाँचे की अधिक उपलब्धता हो सकती है, जिससे अंततः श्रम उत्पादकता में वृद्धि होगी।
  • संसाधनों का पुनर्आवंटन:
    • घटती प्रजनन दर शिक्षा और कौशल विकास के लिये संसाधनों के पुन: आवंटन को सक्षम बनाती है, जिससे मानव पूंजी व कार्यबल उत्पादकता में सुधार हो सकता है।
      • TFR में गिरावट से ऐसी स्थिति उत्पन्न होगी जहाँ स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या में कमी आएगी, जैसा कि केरल जैसे राज्यों में पहले से ही हो रहा है।
      • इससे राज्य द्वारा अतिरिक्त संसाधन खर्च किये बिना शैक्षिक परिणामों में सुधार हो सकता है।
  • कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि: 
    • कार्यबल में महिलाओं की निम्न भागीदारी के लिये ज़िम्मेदार एक प्रमुख कारक उस आयु में बच्चों की देखभाल में उनकी व्यस्तता है जब उन्हें श्रम बल में संलग्न होना चाहिये।
    • बच्चों की देखभाल के लिये कम समय की आवश्यकता के साथ, आने वाले दशकों में अधिक महिलाओं के श्रम बल में शामिल होने का अनुमान लगाया जा सकता है।
      • महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी (MGNREGA) जैसी रोज़गार योजनाओं में महिलाओं की बड़ी भागीदारी अधिक महिला श्रम शक्ति भागीदारी की ओर रुझान का संकेत देती है।
  • श्रम का स्थानिक पुनर्वितरण:
    • अधिशेष श्रम वाले क्षेत्रों से बढ़ते उद्योगों वाले क्षेत्रों में श्रमिकों की आवाजाही श्रम बाज़ार में स्थानिक संतुलन बना सकती है।
    • इससे दक्षिणी राज्यों और गुजरात व महाराष्ट्र में आधुनिक क्षेत्रों को प्रोत्साहन मिलेगा, जिससे उत्तरी राज्यों से सस्ते श्रम की मांग होगी।
    • पिछले कुछ वर्षों में, इसके परिणामस्वरूप कामकाज़ी परिस्थितियों में सुधार, प्रवासी श्रमिकों के लिये वेतन भेदभाव का उन्मूलन और संस्थागत सुरक्षा उपायों के माध्यम से प्राप्त राज्यों में सुरक्षा चिंताओं का शमन होना चाहिये।
  • जैसा कि एशिया 2050 रिपोर्ट में बताया गया है, यदि भारत कार्यबल के क्षेत्रीय और स्थानिक पुनर्वितरण, कौशल विकास तथा कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाकर इन अवसरों का लाभ उठाता है, तो यह 21वीं सदी में एक प्रमुख आर्थिक खिलाड़ी के रूप में उभर सकता है।
  • यदि भारत के जनसांख्यिकीय लाभांश का प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाए, तो यह वैश्विक आर्थिक प्रतिस्पर्द्धात्मकता में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकता है।
  • जनसंख्या की बदलती गतिशीलता का नीति निर्माण पर गंभीर प्रभाव पड़ता है, विशेष रूप से स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा तथा कौशल विकास के संबंध में।
  • ऐसी नीतियों की आवश्यकता है जो महिलाओं एवं हाशिये पर रहने वाले अन्य समूहों की विशिष्ट आवश्यकताओं को संबोधित करें, और साथ ही समावेशी वृद्धि तथा विकास भी सुनिश्चित करें।
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